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माँ पर कविता

'' माँ पर कविता '' सबसे प्यारी सबसे न्यारी पूज्यनीया है माँ माँ से बढ़कर दुनिया में नहीं कोई बड़ा इन्सान माँ के आगे सब कुछ बौना बौना लगे भगवान माँ दुनिया की पहली अवतरण जिसे कहते हैं माँ कि तेरे जैसा कोई नहीं माँ न तेरे जैसा सुन्दर नाम , माँ शब्द शहद से मीठा आत्मीयता सोम सी माँ की माँ सृष्टि सृजन की रचईता सारे अनुष्ठान चरण में माँ की सबसे बड़ा तीरथ माँ का दर्शन चारों धाम परिधि में माँ की माँ त्याग,तपस्या करुणा की देवी पूजा,मन्त्र है जाप जहाँ की कि तेरे जैसा कोई नहीं माँ न तेरे जैसा सुन्दर नाम , गर्भ के तेरे गहन प्रेम की मैं उपलब्धि हूँ माँ बिना तेरे कहाँ सम्भव था दुनिया में मेरा आना कितनी पीड़ा दर्द सहा कि    मैं दीदार करूँ दुनिया का  सारी दुनिया तुझमें समाई कभी कर्ज़ चुके ना माँ का कि तेरे जैसा कोई नहीं माँ न तेरे जैसा सुन्दर नाम , तूं ममता की पावन मूरत तेरा आँचल सुख का सागर रात-रात भर जाग सुलाई मुझको लोरी गाकर तेरे आँचल की छाँव में छलका निस दिन स्नेह का गागर भींच सीने में सिर सहलाई खिली अंक में मुझे लिटाकर कि ते...

दीवाली पर कविता ''

            '' दीवाली पर कविता ''  शत-शत अभिनन्दन माँ लक्ष्मी तेरा आना हंसा पे सवार मेरे घर आँगना , हर्ष उल्लास का पर्व दीवाली  रिश्तों में खूब गर्माहट लाना  दूर भगा अंधेरा नेह लूटाना नभ तारे शरमा जायें पावन हो तेरा आना , शत-शत अभिनन्दन माँ लक्ष्मी तेरा आना हंसा पे सवार मेरे घर आँगना , धवल ज्योति से उजियारा कर नफ़रत की दीवार ढहाना ईर्ष्या,द्वेष मिटा प्रेम,सौहार्द्र बरसा रौनकता से शान्ति का साम्राज्य बिछाना , शत-शत अभिनन्दन माँ लक्ष्मी तेरा आना हंसा पे सवार मेरे घर आँगना , आसुरी वृत्तियों का कर प्रतिकार अमावस की काली रात भगाना  जग पर कर अनन्त काल अधिकार कण-कण अणु-अणु में प्रकाश बिखराना , शत-शत अभिनन्दन माँ लक्ष्मी तेरा आना हंसा पे सवार मेरे घर आँगना , मन का भाव बतासे सा मीठा हो  दुलराना खिले खील सा अन्तस्तल  खुशियों की सौगात लुटाकर आगमन से शुभ पर्व ये परमानन्द बनाना , शत-शत अभिनन्दन माँ लक्ष्मी तेरा आना हंसा पे सवार मेरे घर आँगना ।                         ...

"मिले आँखों को सुकूं चले आओ तुम

अविचल द्वारपाल बन खड़ी द्वार पर दो पुतलियाँ बावरी तक रहीं राह पर काटे कटता नहीं लमहा इन्तज़ार का कितनी शामें गुज़र गयीं दहलीज़ पर । लौट आने की शर्त पर जहाँ छोड़कर तुम गये थे खड़े हैं हम उसी मोड़ पर कैसे भूले मिलन का प्रथम तुम प्रहर  प्रणय पल में दिए जो वचन तोड़ कर । धड़कनें भी तो नादान धड़कें यादों में इस क़दर समा गये शिराओं सांसों में मिले हृदय को सुकून चले आओ तुम घटा सावन सी घुमड़े सदैव आँखों में । पथ आते-जाते हैं कितने बटोही मगर बेख़्याल तुम हो गये या निर्मोही डगर जागी हर रात श्वेताभ चाँदनी संग मेरे नभ के तारों से पूछलो न मानो अगर । उन्नीदे नयनों में बीति रातों के वृतान्त पढ़ लेना काटे जो वक्त तन्हा नितान्त ग़र आ ना सको दो निज घर का पता  सब्र होता नहीं उर है कितना अशान्त । सैलाब बन प्रीत का बहूं जीवन में तेरे फिरूं नींद का ख़्वाब बन नैनन में तेरे मन के पतझड़ में तेरे अभिलाषा मेरी  झूमूं शादाब सा पुष्प बन चमन में तेरे । शादाब--हरा-भरा सरवाधिकार सुरक्षित  शैल सिंह

शहीद की पत्नी का विलाप

लौट कर आने की बात कहकर गये चाँदनी की रश्मि से भोर होने तलक पथ निहारा की सारा दिन सारी रात  आँखें पथरा गईं राहें देखते अपलक । हुआ इंतज़ार ख़त्म वे आए तो मगर तन पर डाल तिरंगा शान से द्वार पर  जिनके इंतज़ार में दिनरात की बसर मनहूस सहर लाई  जाने कैसी ख़बर । अमर रहे,क्रंदन,ज़िन्दाबाद का नारा पुष्पवर्षा,शोक धुन,रोदन हाहाकारा जन समूह का इकट्ठा हुजूम देखकर   थम गईं धड़कनें दृष्टि देखे जो मंजर । कर्तव्य के अनुरागी वे वतन के लिए  शहादत का ये गौरव वरण कर लिए  जिनके आस में जलाई दृगों के दीये सात फेरों के वचन तोड़ वे चल दिये । कर्ज माटी का चुका वे फर्ज निभाए श्वेतवस्त्र नजर कर मेरा अंग सजाए करवा चौथ तीज व्रत का अंत कैसा उम्र भर के विरह का दिया दंश ऐसा । झट बिंदिया सिंदुर मेरी पोंछ दी गई तोड़ मंगलसूत्र चूड़ी भी कूंच दी गई वैधव्य के पोशाक में शक्ल देखकर  बहने लगे सब्र तोड़ आँख से समंदर । विछोह सहने की क्षमता लाऊँ कैसे जो दरक रहा भीतर समझाऊं कैसे वर्दी की लाज रखे वो अमर हो गये  हमारी दुनिया लुट गई बेघर हो गये । सहर—सुबह , नजर---तोहफ़ा  सर्वाधिकार सुरक्ष...

" मैं सीपी के मोती जैसी "

मैं सीपी के मोती जैसी हमराह में साथी नहीं संगी कोई अपना भरे जो रंग गहबर सा अधूरा ही रहा सपना मिले मंजिल मेरी मुझको  अभिलाषाएं भटकती हैं  महत्वाकांक्षा रही सिसकती  उमर पल-पल गुजरती है , गगन के सितारों सी चमकने की कल्पना थी  जमीं पर पांव चाहत चाँद छूने की तमन्ना थी ।  अपनों ने दिखा दिवा सपना  कंचन सा विश्वास ठगा मेरा  खुद की धुरी के चारों ओर  बस डाल रही अब तक फेरा , घायल मन की व्यथा मिटा यदि कोई बहलाता  चाहे अनचाहे सपनों की यदि मांग कोई भर जाता ।  सागर से भरी गागर है  मन रीता-रीता सा ही  मोती सी तरसती तृष्णा  घर संसार सीपी सा ही , टूटे साजों पर गीत अधूरे किस्मत काश संवर जाए  चाहत पर चातक की शायद स्वाति की बूँद बरस जाए ।  कस्तूरी जैसी महक मेरी  ये जागीर ना देखा कोई  असहाय साधना की राहें  ऐसी तरूण कामना खोई , घरौंदों को आयाम मिले कब किरण भोर की आएगी  कब कसौटियों पर खरी उतर शख़्सियत गर्द मचाएगी ।  विराट कलाओं की पूँजी  रेतमहल सी धराशाई  क्या सपनों का...

दीवाली पर कविता

                    '' दीवाली पर कविता '' दीवाली का पर्व है आया देशवासियों अबकी बार दीवाली में आओ चलो फिर से इतिहास दुहरायें अबकी बार दीवाली में , माटी के दीये जलाकर अपने संस्कृति की अलख जगायें हम  परित्याग कर चाइनीज़ वस्तुएं, वस्तु स्वदेशी ही अपनायें हम , पुनर्जिवित कर परम्पराओं को दीपावली यादगार बनायें हम राष्ट्रभक्ति के भाव के बीज,जन-मन में बोने को उकसायें हम , स्वदेशी वस्तुओं से बनें स्वावलंबी ऐसा महायज्ञ करवायें हम जले स्नेहसिक्त दीप मन से मन में,मन के तिमिर मिटायें हम , घर बाहर पग-पग दीप जला हर्ष उल्लास से पर्व मनायें हम देहरी सजा दीपों से माँ लक्ष्मी को घर सादर प्रेम बुलायें हम । सर्वाधिकार सुरक्षित  शैल सिंह 

" पी ज़हर का प्याला भी ये दर्द मरता नहीं "

" पी ज़हर का प्याला भी ये दर्द मरता नहीं " मृदुल अहसासों  का असंख्य  उपहार दे ग़म,दर्द, ख़ुशी प्यार का अनन्य संसार दे  प्रीति की  ज्योति आँखों  में जलाकर गये चैन दिन का  नींद रातों की  चुराकर गये । मधुर बोलों से कर के  गुञ्जार श्रवणेंद्रियाँ अपने आधीन कर श्वांसें,धड़कनें,इन्द्रियाँ छू गात अनुराग से चित्त गुदगुदाकर गये मंजु कलिका उर में प्रेम की उगाकर गये । दिल,ज़िगर,क़रार सब अपने संग ले गये शूल इंतज़ार के एवज में वे बेअंत दे गये    रंगीन ख़्यालों के भंवर में उलझाकर गए तृषित नयनों में भोली छवि बसाकर गए । शरीर मेरा है मगर जीव  मुझमें मेरा नहीं उनके रंग में घुल बह रही अधीर मैं कहीं ले परिधि में बांहों के ज़न्नत दिखाकर गए  अनुराग का आसव  नैनों से पिलाकर गए । लगे सरसराहट हवा की मुझे आहट तेरी राह भूले गली का भला किस बाबत मेरी  क्यों झूठे वादों का दिलासा दिलाकर गए सितारे आसमानी दिवा में  दिखाकर गए । चाँद,तारे क्षितिज ...

नज़्म '' मेरे लफ़्ज़ों का दर्द क्या है वो काग़ज़ ही जानते हैं ''

 '' मेरे लफ़्ज़ों का दर्द क्या है वो  काग़ज़ ही जानते हैं  '' कहते हैं लोग मुझको दीया साँझ को जलाया करो जबकि रहता मकाँ रौशन उसके यादों के चराग़ से अब तलक ज़ेहन में ताज़ी है वस्ल की सुहानी रात कभी हिज्र में भी ना हुईं रुख़्सत वो यादें दिमाग़ से । बहुत सोचा कर दूँ ख़यालों को आज़ाद ग़िरफ़्त से      ख़ुश मिज़ाज यादें छोड़तीं ना पीछा दिल तोड़ कर  शुक्र है कि कर लेती हूँ  दर्द बयां लिख काग़ज़ों पर  वरना अब तक बिखर गई होती दिल कमजोर कर । जबकि मालूम ख़्वाब झूठे पर जिंदा रहने के लिए मेरी तन्हाइयों,ख़्वाबों को और महका जाता है वो ये कैसा अनूठा रिश्ता ज़ुदा हो भी नहीं होता ज़ुदा मेरी हर रात,अलस्सुबह ग़ुलों से सजा जाता है वो । कैसे सीखूँ  श्वासों में बसा उसे  भूल जाने का हुनर बड़ा दर्द होगा मर के जीना रातों का दर्द मिटाकर  घुल-घुलकर भुला दिया ख़ुद को उसकी चाहतों में उसकी आदत सी है रखा जिगर में दर्द संभालकर । सारे रिश्ते तोड़े उसने ताउम्र ब...

गूँगे कतरों में डूबे रहे दरिया की तरह

गूँगे कतरों में डूबे रहे दरिया की तरह झूठी मुस्कुराहटों के सूखे होंठों पे दर्द लफ़्ज़ बन उसे कर देंगे बज़्म में बेपर्द । पीये होती ग़र शराब हो जाता वबाल इसलिये पी लिया समन्दर आँखों का यदि होता हक़ीक़त सब पूछते सवाल इसलिये छुपा लिया बवंडर आँखों का । किसे परवाह इन मासूम आँसुओं की   तैरे बेबसी की  किश्ती सब्र आँख का रहके पलकों की हद में,लब रख हँसी करता रहता ख़ुदकुशी अब्र आँख का । ख़ुदा जानता है मेरे दिल में बात क्या वो होता बेनक़ाब कह देती बात क्या मुझको नहीं देना हर बात का जवाब ख़ामोशी बता देगी  दिल में बात क्या । ज़िन्दगी की भी कैसी हाय ये बेचारगी   रोने को विवश, ज़ब्त करने में लाचार  गूँगे कतरों में डूबे रहे दरिया की तरह भीतर की तबाही के सह के अत्याचार । अनायास खर्च किया मैंने आँसू हज़ार  बेवफ़ाई के मंडी में हुई वफ़ा शर्मसार चुपचाप बिखर जाऊँ या करुँ बयां दर्द या काटूँ सज़ा उम्मीद की करुं इंतज़ार । सर्वाधिकार सुरक्षित  शैल सिंह आँख

सुशांत सिंह राजपूत पर कविता '' हम सबके दिलों में रहोगे जिंदा मरते दम तक ''

सुशांत सिंह राजपूत पर कविता  हम सबके दिलों में रहोगे जिंदा मरते दम तक  होता नहीं यक़ीं कि तुम इस जहाँ में अब नहीं अश्क़ बहें तेरे याद में आँखें किसकी नम नहीं मुक़र गई नींद नैयनों से बिलखते गुजरती रात तुम अब लोक में नहीं कैसे दिलाएं यह विश्वास  , तस्वीर तेरी जब कहीं दिखाई देतीं आँखों को छलक उठते हठात् आँसू भींगो देते गालों को    जैसे ऋतु बरसात की आँखें रहतीं हरदम नम    क्यों मौत को लगा गले दिये इतने तुम ज़ख़म , अच्छा हुआ दिन शोक का देखने से पहले माँ  परलोक गईं सिधार वरना देखतीं यह हाल ना   न जाने बीतती क्या माता पर कैसा होता मंज़र असह्य वेदना सोच नयन में उतर आता समंदर , क्या होगा हाल पापा का इक बार भी न सोचा   थे इकलौते भाई बहनों के इक बार ये न सोचा  कैसी वेदना थी मन में ऊफ़ मथते रहे ख़ुद को  कष्ट यही,लेते व्यथा बांट दंड देते नहीं ख़ुद को , मातम अरमां का मना मृत्यु का ख़याल छोड़ते किसका डर,भय किस बात का मलाल बोलते कचोटता है हृदय सहा अपार द...

“ हम हैं विश्वगुरु “

भारत फिर से विश्व के मानस पटल पर एक अलग पहचान बना रहा है ।                                                        ' हम हैं विश्व गुरु '     हो चाँद हमारी मुट्ठी में हमें करना सूरज भी बस में      उत्तुंग शिखर से सागर तक हम चमकें सारे जग में । शांति,अमन के हम प्रहरी तुझे पाक उत्पात मचाना आता  जब ख़ुश्बू होगी आम हमारी करनी पर होगा तूं पछताता । हम बेजा वक़्त नहीें गंवाते तुझ सा असभ्य हरकतें कर के  करना मुकाबला तो आओ ना पथ विकास के चल कर के ।   भगवान हमारे मस्जिद में रमते ख़ुदा रहता मन्दिर में तेरा हम सुनें अज़ान मस्जिद की सुने तूं स्त्रोत मन्दिर का मेरा । हम मलयज सा महक फ़िज़ा में बिखरा रहे दिन-प्रतिदिन  ग़र देते लोबान का तुम सोंधापन आकंठ लगाते निशदिन । चाँद पर होगा घर अपना करेगा सूरज भी मेहमाननवाजी  बिछाओ चौपड़ की कोई भी बिसात हम जीतेंगे हर बाजी । जल,वायु,अवनि,अंबर ...

लॉकडाउन की तन्हाई पर कविता

गुमसुम सी है सुबह,सुनसान शाम आजकल  ख़बरदार मेरी तन्हाई में न डाले कोई ख़लल । करीब मेरे बेहिसाब ख़यालों के आशियाने हैं  दिल के बन्द कक्षों में कई यादों के ख़ज़ाने हैं इसीलिए तन्हाईयां मुझे तनहा होने नहीं देतीं जगाकर रखतीं रात भर कभी सोने नहीं देतीं । मुझे भी हो गई अकेलेपन से मुहब्बत इतनी भाईं नहीं किसी की भी नजदीकियां जितनी ख़ुशी ना उदासी बैठे हैं ख़ामोश सुबहो-शाम लगने लगीं सुखदायिनी भी तन्हाईयां कितनी । फिर पुराने मौसम आ गये लौट के तन्हाई में  अपनों से बिछड़ना दर्द,ग़म जख़म जुदाई में जो बीता,गुजरा लिखा मन बहला लिया मैंने और तन्हाई में तन्हा ही जश्न मना लिया मैंने । विरां वक़्त मग़र हैं बिचरते माज़ी के कारवां  मुद्दतों बाद भी महसूती आज भी वही समां अतीत के सुरंगों में संजो रखी जो असबाब मेरी तन्हाईयां उनसे ही गुलजार औ आबाद । असबाब--सामान,वस्तु सर्वाधिकार सुरक्षित                 शैल सिंह

" बस चितवन से पलभर निहारा उन्हें "

वो जो आए तो आई चमन में बहार सुप्त कलियाँ भी अंगड़ाई लेने लगीं चूस मकरंद गुलों के मस्त भ्रमरे हुए कूक कोयल की अमराई गूंजने लगीं । फिर हृदय में अभिप्सा उमगने लगीं नयन में चित्र फिर संजीवित हो उठे           मृदु स्पन्दन अंग की उन्मुक्त सिहरनें  पा आलिंगन पुन: पुनर्जीवित हो उठे । स्वप्न पलकों के आज इन्द्रधनुषी हुए निशा नवगीत सप्तस्वर में गाने लगी हृदय के द्वारे मज़मा आह्लाद के लगे चाँदनी और शोख़ हो मुस्कराने लगीं । अधर प्यासे वो सींचे अधर सोम से  मन के अंगनाई शहनाई बजने लगी बस चितवन से पलभर निहारा उन्हें भोर की तत्क्षण अरुणाई उगने लगी । फिर से बेनूर ज़िन्दगी महकने लगी  जब से ख़ुश्बू उनकी घुली साथ है हरसू लगने लगीं अब तन्हाईयाँ भी उर घुला  मधुर मखमली  एहसास है फासले हुए ऐसे नदारद ज़िन्दगी से  खुशनुमा-खुशनुमा हर पल आज है जब से आए हैं वो वीरां ज़िन्दगी में तब से सारा शहर लगता आबाद है, भयभीत होती नहीं हो  घनेरा तिमिर चाँद सा हसीं महबूब...

इन्तज़ार और याद पर कविता " आँखों के आँगने उतर ना देतीं जागने की सज़ा "

" आँखों के आँगने उतर ना देतीं जागने की सज़ा " सूरज की तप्ती दोपहरी चाँदनी सी शीतल रात  बीतीं जाने कितनी भोर संध्याएँ बीते कित मास । अब तो हो गई है इंतिहा आँखों के इन्तज़ार की लगता बिना तेरे मैंने कितनी शताब्दी गुजार दी हर साँझ जला रखते दृग,पथ उम्मीदों का दीया बुझा अश्क़ों की वर्षात से मिज़ाज को क़रार दी । निश-दिन भींगती तेरी यादों में बरसात की तरह वह कशिश कहाँ बरसात में तेरी यादों की तरह  यादें भी क्या बला  रखतीं बैर आँखों की नींद से तोड़ देतीं दिला यादें निर्दयी यादों को उम्मीद से । मुहब्बत में बिछड़ने का ग़म बस मुझे होता क्यूँ दर्द अनुभूतियों का मुझ सा नहीं तुझे होता क्यूँ जैसे बिताती बेचैन रातें बिन तेरे तन्हाईयों में मैं वैसी ही बेचैनी का अहसास नहीं तुझे होता क्यूँ । कभी बोये थे मेरी आँखों में तुम्हीं ख़्वाब सुनहरे कभी मंडराए थे भ्रमरे सा कैसे भूले साँझ सवेरे  अपने ज़ुल्फ़ के पेंचों में कर गिरफ़्तार बाज़ीगर कैसे किया देख हाल आके डाल आँखों में बसेरे । कभी बन पवन का झोंका  खेल जाते गेसुओं से   कभी कर जाते पलकें नम बरस नैन के मेघों ...

कविता " यादें बचपन की "

                   " यादें बचपन की " अभी तक है घुली नथुनों में सोंधी ख़ुश्बू गांव की    याद छत पे सोना कथरी बिछा धूल भरे पांव की । बारिशों में भींगी मस्ती क़श्ती कागज की बहाना  गर्मियों की चाँदनी रातें बिछी खाटें खुला आँगना शरारतें,नदानियां,रुठना,मनाना खिल्ली ठिठोली याद बालेपन का घरौंदा साथ सखियों का सुहाना । खांटी दूध,दही,छाछ,अहरे की दाल चोखा भउरी ज़ायके घुघुनी रस के रसदार तरकारी में अदउरी लुत्फ़ खीरा ककड़ी का मकई के खेतों का मचान  भूली नहीं मेलों की चोटही जलेबी,लक्ठा,फुलउरी । कारे मेघा पानी दे घटा से बरस जाने की मनुहार  माटी में लोट कहना,साथियों के संग की तकरार  आलाप आल्हा-ऊदल का रासलीला,मदारी खेल कहाँ गईं वो चीजें  बाइस्कोप,नौटंकी की झन्कार । दूसरों के बाग़ों से टिकोरा तोड़ना भरी दुपहरी में  झगड़े कुट्टी,मिट्ठी करना उंगलियों की कचहरी में अब क्यों बचपन जैसी सुबह और शाम नहीं होती मस्ती,हुड़दंग,होंठों पर अल्हड़ मुस्कान नहीं होती । हमजोली संग मिल गुड्डे-गुड़ियों का व...

" विश्वव्यापी व्याधि पर कविता पर कविता "

" विश्वव्यापी व्याधि पर कविता " ऐसी विभीषिका से  वबाल मचाई हो कॅरोना कैसी विश्वव्यापी व्याधि तूँ दुसाध्य सांस लेना । किन गुनाहों की मिल रही सज़ा ज़िन्दगी को कि अब ज़िन्दगी ही दे रही दग़ा ज़िन्दगी को हवाएं भी खफ़ा हो ज़ुल्म ढा रहीं हैं सांसों पर  एवं ख़तरनाक हो क़हर ढा रहीं हैं आँखों पर । जाने कब तक चलेगा मौत का ये सिलसिला तुम्हारी बेग़ैरत करतूत से ज़िन्दगी को गिला दुनिया सहम गई है देख जनाज़ों का कारवां  शंकित शवों की संख्या से मरघट भी पशेमाँ । हो वैरी का जैविक वार या प्रकृति हुई ख़फ़ा कि महाप्रलय पे तुले धर्मराज कर रहे ज़फ़ा विस्मित हूँ सांसों के ,अकस्मात् थम जाने से सृष्टि बेबस निरूपाय उचित उपचार पाने से । जो किया कल के लिये संचय न काम आया कांपें स्वजन भी छूने से ऐसी अस्वस्थ काया कांधे भी मुनासिब नहीं बेसहारा सी मृत देह थरथराती देख रूह औषधालयों पे भी संदेह । लिपट कर भी ना रो पाएं ऐसे छटपटाते प्राण बेअसर उपाय सारे जो भी सभी ने किये त्राण चाँदी हो गई हरामख़ोरों की इस महामारी में ज़िन्दगी,धन से गये...

कोरोना की तीसरी लहर

कोरोना की तीसरी लहर  और कितना प्रकोप ढाओगी  कितनी वर्जनाएं लगाओगी कोहराम मचा है चारों ओर  तीसरी लहर का और है शोर , कितने घोंसले उजड़ गये  कितनों के सपने बिखर गये कितनों का संबल छीन लिया  कितनों को अदृश्य हो लील लिया , सारी कायनात लग रही है विरां  छेद रही मर्मभेदी करूणा है सीना उन्मुक्त हँसी अधरों से गायब  सब कुछ जैसे लग रहा अजायब , किस अमोघ अस्त्र से होगी पस्त  सारी दुनिया हो गई है तुमसे त्रस्त कौन सा दिव्यास्त्र चलाया जाये आतंकित,भयभीत सभी दिशाएं , फ़जाओं में पसरा गहरा सन्नाटा  थमा-थमा कोलाहल दे झन्नाटा आवागमन पर छाया घोर कुहासा भाग रहे सब जब कोई खांसा , निस्तेज हुई है कांति मुखों की ऐसा वज्र गिरा दु:खों की प्रगति पर विराम लगा दी सबका प्रवेश वर्जित करा दी , कितना बरतें एहतियात हम कितना सतर्क रहें बता हम किसकी कितनी सुनें सलाह क्या हालत हो गई या अल्लाह , जी मिचले कड़वा काढ़ा पी भाई नहीं होती कारगर कोई दवाई किसके सम्पर्क से रहें अछूत लगे ज़िन्दे इंसान भी कोई भूत , कैसा अज़ाब ढाई हो कोरोना ऊफनवा रही हो जाबा पहना दहशत से डरा-डरा है मन कि...

याद पर कविता " पराई हो गईं हैं सांसें मुझसे "

मत ख़लल डालो ज़रा ठहरो  रुको सांसों चलो धड़कनों आहिस्ता  खटका रही कुण्डी दिल की,किसी की याद कहीं इस शोर से रूठ जायें न मेरे ख़्वाब आहिस्ता ।    कैसे करें सरेआम शरम आये लगा चाहत का रोग बसे तुम रूह में दवा,दुआ ना आये काम कैसी व्याधि है यह   लगे श्वांसों की ध्वनि बैरन जबसे तुझमें मशरूफ़ मैं ।  वे मधुर कम्पन छुवन के तेरे  करें झंकृत जब याद आ तन-मन को  खिल उठे उर कचनार सा जैसे खड़े सम्मुख  ना जाने कैसा रिश्ता है जो महका जाता चमन को । परायी हो गईं हैं साँसें मुझसे  धड़कन बन धड़कने लगे तुम जबसे नज़र आते नहीं नयनपट पर रैन बसेरा कर  मुस्कुरा निद्रा मेरी आँखों से चुराने लगे तुम जबसे ।  सर्वाधिकार सुरक्षित                   शैल सिंह

'' कोरोना पर कविता ''

कोरोना पर कविता  हर ओर है पसरा सन्नाटा  चहुँओर ख़ौफ़नाक है मंज़र  मची तबाही शहर गली में  इक वायरस ने घोंपा है ख़ंजर ,  कारागृह हो गया है घर  क़ैदी भाँति क़ैद हुए सब घर में  ग़ुम हुईं रौनक़ें बाज़ारों की  फासले बना रह रहे सब डर में , विरक्ति सी हो रही चीजों से  नीरस सा हो गया है मन  इंसा इंसा के काम ना आता  धरा रह जा रहा दौलत औ धन ,  ऐसा संक्रामण का रूप भयंकर  हर व्यक्ति संदिग्ध सा लग रहा  मानवों को लील रही महामारी   श्मशान लाशों के ढेर से पट रहा , अलसाई सी सुबह लगे  लगे तन्हा-तन्हा सी शाम  सांसों की डोर है डरी-डरी  अवरूद्ध पड़े जा रहे सब काम ,  छाई सर्वत्र उदासी ख़ामोशी  भयावह सी लगती नीरवता  कब काल आ भर ले आग़ोश में  हर पल इस संशय में है कटता , देख दारुण सी व्यथा जगत की  करुण क्रन्दन सुन कर्ण फटे  ऐसी दहशत फैला रखी कोरोना  कि अपने भी सम्पर्क से परे हटें , ऐसी आपदा विपदा में भी  कोई किसी के काम ना आये  असहा...

प्रेम पर कविता '' चाँद नभ का ना बन सताओ मुझे ''

किस क़दर डूबी हूँ प्यार में मैं तेरे  हो कर वाक़िफ़ मगर हो यों बेख़बर  क्या जानो मज़ा इश्क़ के नशे का   दिखता सूना हृदय भी रंगों का नगर । मेरे हर जिक़्र में नाम लब पर तेरा  इस तरह तुम बसे हो जाँ औ ज़िग़र संग मेरे सफर में चलो तुम अगर हसीं हो जायेगा हर कदम हमसफ़र । ग्रन्थ लिख डाले मैंने कई प्यार के  पढ़कर भी अगर देख लेते भर नज़र  करते मंथन अगर वेदना सिंधु का   नैना बह जाते तेरे भी झर-झर निर्झर । बीती रातें कई मेरी करवटें बदल  नर्म बिछौने पर ना नींद आई रात भर पीर का हिस्सा बन विरह में पगी  मैं बरसात में भी जलती रही उम्र भर ।  पतझड़ सा जीवन चमन हो गया  बहारें आईं गईं कितनी रहीं बेअसर  चाँद नभ का ना बन सताओ मुझे  चाहत आओ न नैनों के आँगन उतर ।  मैंने माना कि मौन प्रेम मेरा रहा  निठुर तेरी भी रही प्रीत ऐ मीत मगर  कृष्ण के मीरा सी मैं दीवानी बन हुई लहरों से टकराती नैया सी जर्ज़र । किस क़दर डूबी हूँ प्यार में मैं तेरे  हो कर वाकिफ़ मगर हो यों बेख़बर........

ज़िन्दगी पर कविता

उम्मीदों से भरा जियो ज़िंदगी का विहान आसमान से ऊँचा रखो सपनों की उड़ान उठा करो गिर-गिर कर हिम्मत बटोर कर हर पल बिताओ ख़ुशी से बांहों में भरकर मुसीबत के बादलों को हौसलों से छांट दो मुश्क़िलों की खाई मुस्कुराहटों से पाट दो सीखना हम सबको साथ वक़्त के चलना नदी के जैसे कल-कल राह बना के बहना फैसला तक़दीरों का क्या ये लकीरें करेंगी ग़र है जज़्बा जीत का मुकाबलों से डरेंगी भले दूर हो मंज़िल कदम मगर ना रोकना पूरा करना मकसद बस सफ़र का सोचना ज़िन्दगी को ख़ुद के  मुताबिक जिया करो जो चीज हो पसंद उसे हासिल किया करो लौट कर ना आने वाला बीता हुआ लमहा उम्र यूं ही गुजर जायेगी हो जाना है तनहा सिर्फ सांस लेना ही नहीं ज़िंदगी का काम ख़्वाब,उम्मीदें ही ना हों तो ज़िन्दगी हराम जितने दर्द,क़र्ज़,फर्ज़ हमारी जिन्दगी में हैं उतनी वंदना की सूची रब की वन्दगी में है । सर्वाधिकार सुरक्षित             शैल सिंह

" कलम से गुजारिश "

           कलम से गुजारिश अनकहे भावों को शब्दों में उकेरकर   प्रिये पोरों लिख दो आँसुओं में भींगोकर खेलने दो शब्दों से भावनाओं के उफ़ान को  रख दो ज़ुबां ख़ामोशी की कागज़ों पे खोलकर । कैसे गुजरता है वक़्त तनहा बता दो बहकते अक्षरों को मोतियों सा सजा दो   जिन क्यारियों में बोये कभी ख़्वाब हम हसीं  मिली तन्हाईयों की तोहफ़े में दहकती सी जमीं । ख़ामोशियों,तन्हाईयों के बाज़ार में भीड़ में हजारों की निग़ाहें तुम्हें ढूंढ़तीं अहसासों की दुनियां में छाई बस वीरानियाँ कहना हर अजनवी से पता तेरा बावली पूछती । ज़िन्दगी के पन्नों के सारे ईबारत लिखो क़लम तुझे तो हासिल महारत दो पल के मोहब्बत में गुनाह कैसा था हुआ कि धड़कनों के ही साजो-सामां हो गये नदारद । जीने में ना मरने में तेरे इन्तज़ार में गुजारती हूँ कैसे शाम और रात का समां अभी तक हैं दिल में महफ़ूज़ जो निशानियां सहेज कर उसे हैं बैठे चैन और करार हम गवां । तुझे ही ज़िन्दगी ने बस तवज्ज़ो दिया बेफ़िकर हो मुझको तुमने ही तन्हा किया गुज़रे मौसमों का मंजर मेरी आँखों ...

कविता 'वसंत पंचमी' पर

   कविता        'वसंत पंचमी'   पर आओ वसंत पंचमी पर्व मनायें प्रकृति ने ली अंगड़ाई है वासंती परिधान का जलवा चहुं ओर खिली तरुणाई है।   मन रंगा वसंती रंग में और रंग गई सगरी जहनियां झूर-झूर बहे मलयज का झोंका ऋतुराज करें अगुवनियां ,मन रंगा  .... | चन्दा लुक-छुप करे शरारत चकोर निहारे चंदनियां मधुऋतु की शुभ बेला,पल्लव,बेली ताने पुष्प कमनियां ,मन रंगा  .... | पपिहा,कोयल,बुलबुल चहकें रूम-झूम नाचे मोर-मोरनियां नवल सिंगार कर प्रकृति विहँसे वन भरें कुलाँचे हिरनियां ,मन रंगा  ….|  मद में महुवा रस से लथपथ अमुवा मऊर बऊरनियां  निमिया फूल के गहबर झहरे हरियर पात झकोरे जमुनियां ,मन रंगा  ....| हरषें बेला,चमेली,चंपा भंवरा गुन-गुन गाये रागिनियां  पीत वसन पेन्हि ग़दर मचाये सरसों चढ़ी कमाल जवनियां ,मन रंगा  ....|  घर ठसक से आये वसंती पाहुन सतरंगी ओढ़ी ओढ़नियां  पतझर सावन सा मुस्काये बोले कू-कू कोयल पुलकित वनियां ,मन रंगा  ....|  टेसू,केसू,ढाक,पलास पल्लवित,रूप अभिनव धरे टहनियां   लावण्य टपकता अम्ब...

काश इन हर्फों में आवाज होती

          काश इन हर्फों में आवाज होती    सहसा क्या हुए उनसे रूबरू  शर्म से सुर्ख हो गये रूख़सार मेरे रौनक छा गई था बड़ा खुश़्क आलम आ गया शहंशाह ख़्वाबों का दरबार मेरे शोख लटें चूम झुकी पलकों से कहने लगीं देखो नजरें उठा आए अंजुमन में दिलदार तेरे । तुम्हीं से हसीं थी मेरी ज़िन्दगी तुम्हीं बन ग़ज़ल थे मचले अधर पर हुई आज खण्डहर सी जीर्ण हालत मेरी क्यों गये तन्हा छोड़ मरूस्थल में सफर पर आजा हर सवालों का हल बनके दहलीज मेरे देखे एहसासों का ताजमहल राह ऐ अजीज मेरे । माना जुदाई में तुम बिन मरे ना पर तन्हाई में भी तो जी भी सके ना मुझ जैसे तड़पकर मोहब्बत में तो देखो अश्क़ बहा भी सके ना और पी भी सके ना तुझे भूल जाने का फन भी तुम्हीं से सीख लेते  मगर जज़्बात मेरे तेरे अन्दाज़ सीख भी सके ना । काश इन हर्फ़ों में आवाज होती मेरे अल्फ़ाजों की तुम सदा सुन लेते करें बेचैन यादें बीते लम्हों को याद कर यही बेकरारी तुम भी अहसासों में गुन लेते कितना उचाट बिन तेरे मेरे ज़िन्दगी का दायरा तुम भी करके बंद आँखें मुझ सा ख़्वाब बुन लेते । सर्वाधिकार सुरक्षित शैल सिंह

पुलवामा काण्ड पर लिखी पुरानी कविता

मौजूदा हालात पर सर  बांध  तिरंगा  सेहरा  माँ  कर  दुधारी   तलवार   थमा  फौलादी  बाँहें   मचल   रहीं  उबल रहा जिस्म में लहू जमा । माथे  तिलक  लगा विदा कर प्रण है  रण में जाना  मुझको  बैरी  दुश्मन  का  शीश  काट     चरणों में  तेरे चढ़ाना  मुझको । चीत्कार रहा है सिहर कलेजा पिता,पति,पुत्र  खोया है वतन घोंपा है कायरों ने पीठ में छुरा  शांति,वार्ता के सब व्यर्थ जतन । बूंद-बूंद कतरे-कतरे का देखना लूंगा हिसाब जाहिल भौंड़ों का  खौल रहा है घावों का गर्म लहू   करूंगा घातक वार हथौड़ों का। शैल सिंह

नव वर्ष पर कविता

   नव वर्ष पर कविता नवल वर्ष है स्वागत तेरा  लाना जीवन में नया विहान नई स्फूर्ति,नये जोश,आनंद से  भरना नई पतंगों में नभ नया उड़ान ।   नवल वर्ष हो मंगलमय बीते वर्ष ने गाया मंगलगीत अम्बर ने बरसाया फूल हर्ष से भर अंकवार बसुंधरा ने लुटाया प्रीत । नई भोर की नई किरण सूरज धूप का सेहरा बाँधे धरा बनी सज-धज के दुल्हन सधे-सधे पग देहरी धर शरमा लाँघे । ओ नव वर्ष के नव प्रभात भरना नव उजास जीवन में हर्षो-उल्लास से नूतन सौगातें उलिचना आँजुरी भर-भर आँगन में ।   ऊँच-नीच का भेद मिटाना प्रीत ज्योति जला हर उर में हर पल सुनहरा सुखमय बीते हिल-मिलके गायें नग़मा हम सुर में । आने वाला लम्हा मुबारक मिटे रंजिश,नफ़रत के चाहत  बीते वर्ष के खट्टे-मीठे अनुभव बिसार करें हम सब सबसे मुहब्बत । मानवता का कर कल्याण  अरपन रचना हर घर के द्वार आत्मीयता की अलख जगाना अद्भूत उन्नति,समृद्धि का दे उपहार । सर्वाधिकार सुरक्षित शैल सिंह