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बड़े आदमी होने का दंश

   बड़े आदमी होने का दंश कुछ खुशियाँ ऐसी क्यों होती हैं  जो ज़िन्दगी को बेमानी सी बना देती हैं कुछ ख्वाब कुछ सपने पूरे तो होते हैं मगर ख़ुद को ख़ुद से क्यों अन्जानी सी बना देती हैं शोहरत,मूल आचरण से कर देती पृथक को मजबूर क्यों उपलब्धियां भी ज़िन्दगी परेशानी सी बना देती हैं औपचारिक व्यवहार की रीति शिष्टाचार से कर देतीं हैं दूर संवादों हेतु क्यों मानक तय कर ज़िन्दगी हैरानी सी बना देती हैं।                    अंतर्द्वन्द  चुप रहकर जीना कितना दर्द भरा होता है  घुट-घुट आँसू पीना कितना दर्द भरा होता है मन का मर्म दबा लेना कितना दर्द भरा होता है वीरानी पीड़ा से गुजरना कितना दर्द भरा होता है निश्छल आचरण पे लांछन कितना दर्द भरा होता है मन का वृन्दावन पतझर होना कितना दर्द भरा होता है मुक्त हंसिनी सा जीवन दुभर होना कितना दर्द भरा होता है ।                खामोशियों  की जुबाँ  मेरी ख़ामोशियों से दिल के ग़र अल्फ़ाज़ समझ लेते काश मेरे सब्र पे भी दिल के ग़र जज़्बात समझ लेते तो हैरा...

बेटियों की महत्ता पर कविता

बेटियों की महत्ता पर कविता '' '' सुराख आस्मां में कर दें इतनी ताब हैं रखते हम '' हम वो फूल हैं जो महका दें अकेले पूरे चमन को ,हम वो दीप हैं जो रोशनी से भर दें अकेले पूरे भवन को, हम वो समंदर हैं जो तृप्त कर दें सारे संसार को, और समेट भी लें अपने आगोश में सारी कायनात को, हम चाहें तो स्वर्ग उतार लाएं आसमान से । गर हम बेटियां ना होतीं विपुल संसार नहीं होता गर ये बेटियां ना होतीं ललित घर-बार नहीं होता गर बेटियां ना होतीं भुवन पर अवतार नहीं होता गर हम बेटियां ना होतीं रिश्ते-परिवार नहीं होता । हमने तोड़ के सारे बन्धन अपनी जमीं तलाशा है दृढ़ इरादों के पैनी धार से अपना हुनर तराशा है हमने फहरा दिया अंतरिक्ष में अस्तित्व का झंडा सूरज के शहर डालें बसेरा मन की अभिलाषा है । झिझक,संकोच शर्म के बेड़ियों की तोड़ सीमाएं हौसले को पंख लगा निडर उड़ने को मिल जाएं सुराख आस्मां में कर दें इतनी ताब हैं रखते हम बदल जग सोच का पर्दा हमारी शक्ति आजमाए । मूर्ख से कालिदास बने ...

" कोहिनूरों से भी कीमती अनमोल हैं यादें "

" कोहिनूरों से भी कीमती अनमोल हैं यादें " शबनम हुई है शोला दिल में छुपाऊं कैसे चन्द लफ़्ज़ों में दास्तां इतनी सुनाऊं कैसे हो गये पुराने ग़म जवां देख उसे बज़्म में  ग़ज़ल सामने उस बुत के गुनगुनाऊं कैसे । ये इक आईना है जो लिखी है मैंने ग़ज़ल हो गईं आँखें सुनने वालों की ऐसे सजल शिकवा,गिला करना मुनासिब ना समझा  पिरो दर्द दिल का  गुनगुना दी मैंने ग़ज़ल । कुछ अल्फ़ाजों में बयां कर पाती हूँ सुकूं कुछ क़ागजों पर लिख कर पाती हूँ सुकूं कुछ परछाईयां रखी बसा दिल,आँखों में  कुछ धड़कन,सांसों में छुपा पाती हूँ सुकूं । कैसे कर दूं आजाद यादों को आगोश से बंद मन की तिजोरी में हैं जो ख़ामोश से कोहिनूरों से भी कीमती अनमोल हैं यादें क्यूँ हर्फ़ों तुम भड़क जाते हो आक्रोश से । सर्वाधिकार सुरक्षित शैल सिंह

" सारी-सारी शब अपनी याद में जगाते रहे "

सारी-सारी शब अपनी याद में जगाते रहे आती हर बात याद डंसती बैरिन सी रात प्यासे रह गये जज़्बात ऐसी हुई हिमपात । मेरे आँसुओं का कतरा वो दरिया जानके    प्यास बुझा चला गया  मुशाफिर की तरह न परखा उदासी न समझा दर्द अश्क़ का बेपरवाह दिल-ए-ग़म से राहग़ीर की तरह । सोचती क्यूं बहे देख उसे अश्रु ये फ़िज़ूल   ढले अनमोल अश्क़ क्यूं इश्क़ में फ़िज़ूल भान होता न था वो कभी मुझ पर निशार  बहने ना देती सब्र तोड़ आँखों से फ़िज़ूल । वो आँखों को हसीं ख़्वाब बस दिखाते रहे सारी-सारी शब अपनी याद में जगाते रहे जो काजल लगाती आँखों में बड़े शौक से वे चित्र आरिज़ों पे स्याह रंग के बनाते रहे । लब से छेड़ती तरन्नुम है भर आती आँख लब पर खेलती तबस्सुम ढल जाती आँस तरन्नुम और तबस्सुम करें  बज़्में गुलज़ार  नादां ख़ुद को बेज़ार किये गातीं एहसास । आरिज़--गाल

" बड़े जिद्दी ख़्वाब तेरे "

इस तरह ना हर रात मेरे ख़्वाबों में आया करो कि बिखर जायें आँखें खुलते किरचों की तरह । सोचों की डगर पर मेरी तुम बन कर हमसफर आ जाते जाती जहाँ कहीं मुस्कुराते हुए नज़र बेहिसाब सलीके से  सताने का नायाब तरीका जाने सीखते कहाँ से आँखों में समाने का हुनर । महज खूबसूरत ख़्वाब बन न पलकों पे छाओ थम जातीं धड़कनें न शोर सिरहानों पे मचाओ सोने की करूं कोशिशें जब करें करवटें बखेड़ा बड़े जिद्दी ख़्वाब तेरे रतजगा में हो जाये सवेरा । दीदार की ख़्वाहिशों का भी है अजीब सा नशा मिले फुर्सत कभी तो देख जाना आ कैसी दशा क्या तेरी आँखों में मेरे ख़्वाब आ पूछते सवाल तुम्हें भी हैं याद क्या वो शामें सलोनी कहकशाँ ।      नज़रों का मिलना और मुस्कुराना ज़ुर्म हो गया कशिश नज़रों में गजब ईश़्क का इल़्म हो गया इक अजनवी चेहरा ने किया हृदय ऐसा घायल कि भ्रमजाल में नज़रों के ख़ुद पे ज़ुल्म हो गया । कहकशाँ--आकाश में तारों का समूह सर्वाधिकार सुरक्षित शैल सिंह

" मिज़ाज पूछा होता बिमारे दिल का "

भले तुम मिटा दो हर जगह से नाम मेरा मिटा न पाओगे लिखा दिल पे नाम मेरा । ख़फ़ा होने की भी वजह ना बताया ना आँखों से कहा कुछ न लबों से सुनाया  इक तेरा चेहरा बसा रखा निग़ाहों में ना होने देता तनहा सजा रखा ख़यालों में , यों मोहब्बत की खुश्बू तन्हाई में भी कराती तेरा एहसास रूसवाई में भी । कहीं रूठकर भी न जाना दूर हमसे चाहत की ज़िंदगी चार दिन की कसम से मिज़ाज पूछा होता बिमारे दिल का पता बहुत आसां था दिल के क़ातिल का , देखा ना तरसे नैनों की सदाक़त मेरी हँसके मुँह फेर लेना देख हालत मेरी । व्यथा की ईबारत सूरत से पढ़ लेना दिखा ना सकूं जिसे अनदेखा न कर देना  ख़्वाब क्यों दिखाया माहताब जैसा करके बावला मुहब्बत में आफ़ताब जैसा । दर्द दिल का देखकर परेशां ज़िग़र है सरापा से ग़म के बस तूंही बेख़बर है । सरापे--नख-शिख सहित सदाक़त--सच्चाई,सत्यता सर्वाधिकार सुरक्षित शैल सिंह

" खड़ी तूफां से लड़कर साहिल पे योद्वा की तरह "

बड़े गुमान से उड़ान मेरी,विद्वेषी लोग आंके थे ढहा सके ना शतरंज के बिसात बुलंद से ईरादे  ध्येय ने बदल दिया मुक़द्दर संघर्ष की स्याही से कद अंबर का झुका दिया मैंने हौसलों के आगे । प्रयास दोहराने में हो लीं साहस विफलतायें भी    विस्तृत भरोसों ने खींचीं कल्पनाओं की रंगोली असम्भव सी मिली जागीर जो है आज हाथों में बन्द अप्रत्याशित प्रतिफल से निंदकों की बोली । कंटीली झाड़ियों,वीहड़ रास्तों पे चलकर अथक बाधाओं को पराजित कर जीता जड़कर शतक खड़ी तूफां से लड़कर साहिल पे योद्वा की तरह ग़र लहरें करतीं अस्थिर कैसे पाते डरकर सदफ़ । पड़ाव ज़िंदगी में आया कितना उतार,चढ़ाव का  खा-खा कर ठोकरें भी हम नायाब हीरा बन गये बहुत लोगों को परखी ज़िंदगी दे देकर इम्तिहान लोग समझे दौर खत्म मेरा देखो माहिरा बन गये । सदफ़--मोती ,  माहिरा--प्रतिभाशाली  सर्वाधिकार सुरक्षित शैल सिंह

" सफलता पर कविता "

सफलता पर कविता मेरे अपनों ने की ना कभी कद्र हुनर की  सब समझते रहे कतरा मैंने इसके वास्ते विस्तार समंदर सा था जबकि मुझमें भी  बह दरिया की तरह बना लिए मैंने रास्ते । आसमान छूना इतना आसां ना था मग़र दिशा गंतव्य को देना शिद्दत से अड़ गये जूझा संघर्षों से अकेले कोई ना साथ था सार्थकता में जाने कितने रिश्ते जुड़ गये । मंजर जो हौसलों का तरकश दिखाया है ऐ परिहास करने वालों देखो अंत हमारा  कोशिशों के तीर से मैदान में उम्मीदों के बाँधे जीत का सेहरा रच वृतान्त सुनहरा । भटकती अभिलाषाएं भी उत्साह बढ़ाईं मन का विश्वास,साहस फौलादी हो गया  दीयों की तरह जल-जल हर रात तपी मैं हर्ष दहलीज मेरी चूमा जज्बाती हो गया । कतरा--बूंद,  सार्थकता--सफलता, वृतान्त--इतिहास,   हर्ष--खुशी सर्वाधिकार सुरक्षित शैल सिंह

" नदी के तट सी मुझसे बना दूरियां "

ग़र दर्द सारे तुम अपने दे देते मुझे पिरो ग़ज़लों में बज़्म में सुना देती मैं पीर उर की जो कह ना सके खोलकर हर कड़ी उसकी बज़्म में गुनगुना देती मैं । क्यों गम्भीर मुद्रा तुम अपना लिए मन वीणा के तार कभी छेड़े तो होते चाहा बहुत ढाल बन जाऊँ तेरे दर्द की  दर्द अधरों के पट अनकहा उकेरे तो होते । ख़ामोशी का इक कवच ओढ़ कर मौन के यज्ञ ग़म का हवन बस किये तान वितान नजदीक तुमने तन्हाई का  मेरे कौतूहल का हँसकर शमन बस किये । नदी के तट सी मुझसे बना दूरियां  गीला मन क्यों पाषाण सा कर लिया मन का मकरंद मैं तुम पर लुटाती रही मुझे भी तुमने भींगे सामान सा कर लिया । क्यूँ मुख़ालिफ हवायें हुईं प्रीत की काश निहारा तो होता कभी प्यार से कभी चुप्पी की चादर हटाकर नैन भर भींगे होते मेरे नयनों की भी कभी धार से । शमन---शान्त करना सर्वाधिकार सुरक्षित शैल सिंह

बादल पर कविता " ऐ नभ के कारे बादलों क्यूँ भाव हो खाते "

अरे बादलों बरसना है तो बरस जाओ ना ऐसे रोज-रोज घन घेर कर डराते हो क्यों  हवाओं का झकोरा दामिनी की दहाड़ से गुजरे लम्हों की सुध फिर दिलाते हो क्यों । बीते सुहाने रूत भींगा-भींगा सा एहसास सर्द-सर्द फ़िज़ाएं धुंआं-धुंआं सा आकाश सूर्यास्त का तमस झींसियों से भिंगो देना फिर यादों के आवर्त में आकंठ डुबो देना । कहीं ऋतु ना बीत जाये आवारा सा फिरे मिटे भू की तिश्नगी बरसा फुहारा सा नीरें ऐ नभ के कारे बादलों क्यूँ भाव हो खाते राहत के सांस दो उमस से क्यूँ हो सताते । तूं ख़ुद तो फिरे चन्दा को आगोश में लिये रोयें किसी की ख़ाहिशें ख़ामोश लब सीये कोई रोज भींगता भीतर की वृष्टि में मगन दे सलिल की सौगात धरा हो जाये दुल्हन । भृकुटी तनी तेवर मेघ नज़ाक़त किसलिए  ताने घूँघट घटा के इतने उन्मत्त किसलिए दरकी धरती सूखी नदियां व्याकुल परिन्दे दग्ध हृदय विरहणियों के बरसा तरल बूँदें । तड़-तड़ा गड़क-तड़क अंतर्ध्यान हो जाते गड़-गड़ा ग़ुर्रा के नीला आसमान हो जाते बरसो झमाझम सावन मनभावन हो जाये चहुँ दिशाएं नन्ही बूंदों से सुहावन हो जाये । सर्वाधिकार सुरक्षित शैल सिंह

" धड़कतीं अभी धड़कनें तेरे इंतज़ार में "

धड़कतीं अभी धड़कनें तेरे इंतज़ार में हसीं स्वप्नों की लड़ियाँ पिरो आँखों में सजा रखी हूँ पलकों के शामियानों में ली कैसे करवटें सलवटों से पूछ लेना मुस्कान का मधुमास दे लब चूम लेना । फड़कें आँखें कभी तेरी तो सोच लेना के जिक्र तेरा लब से छेड़ रहा है कोई  नींद आँखों से बैरी हुयी तो सोच लेना के याद के लौ में तेरे जल रहा है कोई । कसमसा लें कभी अंगड़ाई  बांहे तेरी महसूस लेना कहीं बांहों में मैं तो नहीं ओढ़ कर लिहाफ़ सोना मेरे यादों की आभास लेना जिस्म संग मेरा तो नहीं । आओ इक  बार तुमको  लगा ले गले जाने कब कहाँ  मौत आ लगा ले गले   फिर जाने लौट  दिन ये आयें ना आयें वक्त मनहूस फिर मिल पायें  ना पायें । सांसें अंटकी  तुम आओगे तक़रार में धड़कतीं अभी धड़कनें तेरे इंतज़ार में प्रीति की ओस से आ बुझा प्यास मेरी दो बूंद को चातकी सी लगी आस तेरी । तुम गये जिस जगह थे मुझे छोड़ कर पथ निरखती  मिलूँगी  उसी  मोड़ पर मन की वीणा के तार आ झनझना दो  ग़ज़ल प्यार की फिर कोई गुनगुना दो । ...

आज की परिस्थिति पर कविता

आज की परिस्थिति पर कविता क्या कहें कैसा हो गया है आलम नीरस विरक्तता छाई है हर तरफ  घुट रहा है दम अब तो सन्नाटों से  प्रचण्ड स्तब्धता छाई है हर तरफ । न कोई किसी की ख़ैरियत पूछता ना तो किसी का दर्दे हाल जानना ख़ुद से ही हो गए हैं सब अजनवी ना कोई चाहे किसी से हो सामना । कितना लाचार कर दिया व्याधि ने  आपसी सौहार्द मेलजोल ही खतम फिर कब आएंगे दिन लौट सुनहरे   कब नई भोर का प्राची से आगमन । है फन काढ़े खौफ़नाक भयावहता लगता जैसे हवाएं विषैली हो गईं हैं सर्वत्र करते परिभ्रमण यमदूत जैसे उचट ज़िन्दगी भी कसैली हो गई है । सजना -संवरना  पहनना- ओढ़ना लगे सबपे कोरोना का ग्रहण भारी घूमने टहलने पे भी लगीं पाबंदियां पूरे विश्व में कोविद का क़हर जारी । घर भी मुद्दत से मेरे ना आया कोई  नाकारा लगे घर का साजो सामान  नाता सबसे तुड़ा दिये नाशपीटी ने क्या इससे निपटने का हो अनुष्ठान । वर्षों पीछे ढकेल दिया महामारी ने निठल्ला बैठे भी क्षति हुई वक्त की  कई सपनों की टूटीं बिखरीं मीनारें  युक...

याद पर कविता " उसकी यादों के महक सिवा "

ग़म सीने में छुपाये हँसी होंठों पे रखकर रोक के आँसू आँखों में मुस्कराना सीख लिया कबतक बहायें आँसू नैन कबतक ग़म का ग़म करें जख़्मों को बना कर तराना मैंने गुनगुनाना सीख लिया ।   बड़ी तल्ख़ी से ज़माने ने सवालात किये सीखा हुनर लब सील कर जज़्बात छुपाने का  थक गई है ज़िंदगी भी ढो-ढोकर कर्ज़ मोहब्बत का  कब तक रखूँ सिलसिला आँसुओं से ब्याज़ चुकाने का । करना बदनाम उसे मेरी फ़ितरत में नहीं बेक़सूर बेबाक़ी से उसको बताना सीख लिया शाद था जबकि बेहिसाब ज़ालिम की दग़ा पे दिल हो न वो बदनाम बहारों पे इल्ज़ाम लगाना सीख लिया । मुझसे मुझे जुदा कर जाने कहाँ गया वो बस उम्मीदों के पांव बंधी दे खोल कोई ज़ंजीरें उसकी यादों के महक सिवा चाहूँ न मैं तो कुछ भी  बस दर्दे-दिल का सुकूं नयन में दे छोड़ संजोई तस्वीरें । करती है सियासत कैसी मुहब्बत भी तो ज़िन्दगी को हर क़दम देना इम्तिहान होता है लगे ईश्क में मुद्दत सा हर पल हर लम्हा जुदाई का आँखों में पलते अज़ीब ख़्वाब लब पे दर्दे जाम होता है । सर्वाधिक...

अभी तक जिसपर किसी ने नहीं लिखा

अभी तक जिसपर किसी ने नहीं लिखा किसी को ठेस पहुँचाने के लिए नहीं वरन मंथन करने के लिए लिखा है ,लेखन के क्षेत्र में रचनाकारों के भागमभाग पर एक वानगी जिन लोगों ने रचनाओं का स्वरूप ही बिगाड़  दिया है,कितनी कोई प्रतिक्रिया देगा दौड़ती हुई  रचनाओं पर......  प्रशंसा में छिपा झूठ कवि पहचानते नहीं  आलोचना में सत्य छिपा तुम ताड़ते नहीं , यूँ रोज-रोज कविवर जो कविता लिखोगे अनायास जबरदस्ती उसमें लफ़्ज़ ठूंसोगे तुक,ताल, लज्जतें,ना कथ्य,प्रेरणा,सन्देश बुन ज़ाल शब्द के बे-अर्थ भाव पिरोओगे , कविता,कलाम,रूबाई औ ग़ज़ल हर्फ़ से मन होने लगा विरत है क्यों इस तरफ से बिन सुस्ताये लिख शायद गर्दा उड़ाते हो अनर्गल प्रलाप गढ़गढ़ कविता बनाते हो , न दर्द करूण रस में न श्रृंगार रस में दम दो चार पाठकों की सराहना के पात्र बन अप्रयोज्य सृजन पर तुम यूँ गुमान करोगे रूप पद्य का बिगाड़ कर नाम कमाओगे , ऐसे कीर्ति की ललक क्यूँ जो दौड़ रहे हो अल्फ़ाज़ काव्य में अरुचि के सौन रहे हो कोफ़्त होने लगी है पठन...

इतनी पाबन्दियां होंगी गले अपनों को लगा ना पायेंगे " कोरोना पर "

इतनी पाबन्दियां होंगी गले अपनों को लगा ना पायेंगे कभी सोचे ना थे हम ज़िन्दगी में दिन ऐसे भी आयेंगे  पहिया वक्त का थम जायेगा ठप व्यवसाय हो जायेंगे । ऐसा क़हर कोरोना ढायेगा जुगत कुछ कर ना पायेंगे निलय में ख़ुद को रख बंधक तन्हा दिन-रैन बितायेंगे बहेगी शुद्ध,स्वचछ,निर्दोष हवा लुत्फ़ उठा ना पायेंगे लहरेगी गंगा माँ में पावन धार  तृष्णा मिटा ना पायेंगे  कभी सोचे ना थे हम ज़िन्दगी में दिन ऐसे भी आयेंगे । वक़्त ही वक़्त रहेगा पास मन की बात कर ना पायेंगे होंगे सखा,सनेही के बंद किवाड़ हम मिल ना पायेंगे  पकेंगे घर में बहु व्यंजन  स्वजन को खिला ना पायेंगे खाली सूनसान सड़क पर भी सवारी दौड़ा ना पायेंगे कभी सोचे ना थे हम  ज़िन्दगी में दिन ऐसे भी आयेंगे । निर्धन मजलूमों के कारोबार के रास्ते बन्द हो जायेंगे घर में होगी भरी विभूति,पूर्ण आकांक्षा कर ना पायेंगे मचलते मन को वश में कर के मलते हाथ रह जायेंगे लाॅकडाउन के पालन में अवकाश भी मना ना पायेंगे कभी सोचे ना थे हम  ज़िन्दगी में दिन ऐसे भी आयेंगे । जहां स...

कोरोना पर कविता " ख़ौफ़ इंसा से इंसान खाने लगा है "

 " ख़ौफ़ इंसा से इंसान खाने लगा है " दूरियां बन  गई हैं  कारगर  दवाई इस क़दर डर अब  सताने लगा है , नन्हीं वायरस  ने क़हर ऐसा ढाया कि याद सबको ईशा आने लगा है घर की चारदीवारी महफ़ूज़ कोना ख़ौफ़ मानव से मानव खाने लगा है , गले जान के पड़ी आफ़त कोरोना लॉकडाउन तारीखें बढ़ाने लगा है समय औ हालात बदल गये इतने  वक्त ऐसा आईना दिखाने लगा है , समीपता कभी थी प्रेम का प्रतीक पृथकता के मायने  बताने लगा है इक दूजे का ग़र है परवाह करना ये फासला तरकीबें सुझाने लगा है , कोविद नाइन्टिन पांव ऐसे पसारा यत्न कैसा करें जी घबराने लगा है  जाने कब किसपे गिरें गाज़ इसके मुंह सन्नाटा भी तो चिढ़ाने लगा है , आबोहवा हुई है क़ातिल जहाँ की मौत जग में तांडव मचाने लगा है बेमोल ज़िन्दगी सम्भाले है रखना निकटता बड़ी वैरी बताने लगा है । सरवाधिकार सुरक्षित शैल सिंह       

जीवन की सफलता पर कविता '' लकीरें तो हाथ की रेखाएं,भाग्य मिटा न सके दुश्मन भी ''

लकीरें तो हाथ की रेखाएं,भाग्य मिटा सके न दुश्मन भी पंख पसारा मैंने लेकिन कभी अंम्बर का विस्तार न मांगा व्यवधानों ने किये प्रहार मगर,मैंने कभी हथियार न डाला, अगणित बार हुई हार,हृदय पर अगण्य बार सही आघात  मगर समर में कर्तव्यनिष्ठ हो ,प्रतिज्ञा करती रही अभ्यास, हारजीत के दांवपेंच में,दृढ़ इच्छाशक्ति लेती रही आकार जिनकी आलोचनाओं से बढ़ा हौसला,उनका भी आभार, बहुत छला विश्वासों ने अपना बन,पीड़ाओं का दे उपहार परिताप का पारावार ना भूलता ना अपनों का ये उपकार, भयभीत हो परिस्थितियों से,छोड़े न कभी कौशल ने हाथ हारकर मुश्किलों से आत्मविश्वास मेरे,कभी न छोड़े साथ, मुर्छित होकर भी कर्म पथ पर,डटे रहे निर्भीक कदम मेरे उगते दिनकर को रोक सके ना घने अतिक्रमण के कोहरे, तूफां का सामना किये मगर,की ना श्रम की धीमी रफ़्तार परिश्रम के अथक,अश्रान्त प्रयास से,मुकद्दर लिया संवार, गिर-गिर कर उठना औ निखरना,बना ली प्रयत्न की रीत पात्रता पर षडयंत्र करने वाले,देख लें प्रवीणता की जीत, लकीरें तो हाथ की रेखाएं,भाग्य मिटा सके न दुश्मन भी नियति भी हो...

कोरोना पर गीत

कोरोना पर गीत घर में ही रहना सुरक्षित कहीं घर से बाहर ना जाना अस्पृश्य है कोरोना संक्रमित मुई को गले ना लगाना खतरनाक डायन है संक्रमण कोरोना घुल बह रही ये हवाओं में समझो ना ऐसी मौत को निमन्त्रण दे ना बुलाना हवा ज़हरीली दोज़ख़ घर में ना लाना , ये अणु वायरस है आखेटक शिकारी क्षण मिनटों में फैलाती घोर महामारी रहना संभल कर ऐसी घातक बीमारी रब की नेमत अमोल ज़िंन्दगी तुम्हारी, क्यों बाहर निकलने की ज़िद पर अड़े इसने कर दिया बड़े-बड़े धराशाई धड़े चप्पे-चप्पे पर एहतियात के पहरे कड़े सामां बहुत जी बहलाने के घर में पड़े, मन के घोड़ों पर लगा लगाम हम रखें लाॅकडाउन में बंद है शहर टाऊन देखें नये मिज़ाज की बला यह समझें परखें कोरोना क़हर से खुद को सलामत रखें, करें अनुपालन मोदी  के अभियान का हमें तोड़ना मिल कर अभिमान इसका कर पर्दाफ़ाश कोविद  की साज़िश का परास्त कर इसे खोजें समाधान इसका, यही एकमात्र विकल्प सामाजिक दूरी बनाये जिसे रखना हम सबको ज़रूरी विश्व की पीर हरने को लें संकल्प पूरी  जग में विजयी हो भारत दमके सिंदूरी । सर्वाधिकार सुरक्ष...

कोरोना पर कविता

कोरोना पर कविता कोरोना-कोरोना गुस्ताख़ी अब करो ना कृपा कर जहाँ से आई वहीं जा रहो ना , हद हो गई है अब तेरे ज्यादती की जिम्मेदार तूं ही जग के त्रासदी की सुस्त ज़िन्दगी की चौपट कारोबार रोजी-रोटी ठप्प की ख़त्म रोजगार सूनसान सड़कें,गलियां,डगर लगे सूना कोरोना-कोरोना गुस्ताख़ी अब करो ना कृपा कर जहाँ से आई वहीं जा रहो ना , संक्रमण का ख़तरा बढ़ा कमीनी रौनक बाजारों,दुकानों की छीनी चहुँओर मरघट सा पसरा सन्नाटा मन करे कोरोना मारें खींच चाँटा श्मशान सरीखा शहर का कोना-कोना कोरोना-कोरोना गुस्ताख़ी अब करो ना कृपा कर जहाँ से आई वहीं जा रहो ना , दवा ना दुवा ना रोकथाम इसका डर के मारे इंसा घर में है दुबका ऊबन हो रही है घुटन हो रही है बैठै-बैठे कब्ज़,अपचन हो रही है मचाई त्राहि-त्राहि,कैसा कर जादू-टोना कोरोना-कोरोना गुस्ताख़ी अब करो ना कृपा कर जहाँ से आई वहीं जा रहो ना , दहशत में दुनिया ख़ौफ़ में हैं लोग पलायन कर रहे डरे सहमे हैं लोग मानवों पे चीन तूने किया है प्रयोग अस्त्र ऐसा ईजाद कर दिया है रोग जाकर चीन में ही कोहराम मचाओ ना कोरोना-कोरोना गुस्ताख़ी अब करो ना कृपा कर जहाँ से आई वहीं जा रहो ना , ज़...

" जपूं मैं शिव का नाम "

आज महाशिवरात्रि का पावन दिन उमड़ी भक्तों की भीड़ देवालय में हर-हर महादेव का तुमुल उद्घोष गूंज रहा है सभी शिवालय में , कर में त्रिशूल हैं धारे शिव गले सर्प की माला तन पर भष्म रमाये कण्ठ में विष का प्याला , जटा में गंगा की धारा नंदी की करें सवारी बड़े कृपालु शिव भोले कहलाते त्रिनेत्र त्रिपुरारी , मन बसे शिव शंकर भोला मन ही मेरा शिवाला भक्ति में उनके लीन सदा वही जीवन में भरें उजाला , क्षीर,बेर,बेलपत्र,धतूरा आह्लादित पी भंग की हाला कैलाश गिरि पे डाले बसेरा ताण्डव करें पेन्ह मृगछाला , घोर हलाहल विष पीकर शिव नीलकंठ कहलाए  सोहे गले मुण्ड की माला   शिव औघड़दानी कहलाए , जब-जब संकट मंडराए घेरें बुरी बला के साये कालों के काल महाकाल पल में सारे कष्ट मिटायें , बसे रोम-रोम में शिव मेरे जपूं मैं शिव का नाम स्तुति करने से ही मात्र बन जाते सब बिगड़े काम । सर्वाधिकार सुरक्षित  शैल सिंह

" वसंत पंचमी " पर कविता

" वसंत पंचमी " पर कविता आओ वसंत पंचमी पर्व मनायें प्रकृति ने ली अंगड़ाई है  वासंती परिधान का जलवा चहुं ओर खिली तरुणाई है।   मन रंगा वसंती रंग में  और रंग गई सगरी जहनियां झूर-झूर बहे मलयज का झोंका ऋतुराज करें अगुवनियां ,मन रंगा  .... | चन्दा लुक-छुप करे शरारत  ओट से चकोर निहारे चंदनियां मधुऋतु की शुभ्र सुहावन बेला   बेली,पल्लव ताने पुष्प कमनियां ,मन रंगा  ... | पपिहा,कोयल,बुलबुल चहकें  रून-झून नाचे मोर-मोरनियां नवल सिंगार कर प्रकृति विहँसे  वन भरें कुलाँचे हिरनियां ,मन रंगा  ….|  महुवा मद में रस से लथपथ  अमुवा मऊर बऊरनियां  निमिया फूल के गहबर झहरे  हरियर पात झकोरे जमुनियां ,मन रंगा  ....| हरषें बेला,चमेली,चंपा  भ्रमरे गुन-गुन गायें रागिनियां  पीत वसन पेन्हि ग़दर मचाये  सरसों चढ़ी बिंदास जवनियां ,मन रंगा  ....|  ठसक से आये वसंती पाहुन  सतरंगी ओढ़ी ओढ़नियां  पतझर सावन सा मुस्काया  पिक बोले पुलकित कू-कू वनियां ,मन रंगा  ....|  टेसू,केसू,ढाक पल्लवित पलास  रूप...

" कब होगा आँगना में आगमन तुम्हारा "

कुम्हला गए ताजे पुहुपों के वंदनवार पथरा गये नैना खंजन करके इंतज़ार बीते दिवस कित बीति जाये कित रैन चली गईं जाने कित आ आकर बहार , मुरझा गया कुन्तल केश सजा गजरा विरक्त लगे चन्द्रमुखी चक्षु का कजरा लुप्त हो गई लाली रक्तिम कपोल की अविरल वर्षे नेत्र भींजे कंचुकी अंचरा , संभाला ना जाये धड़कनों का आवेग आएगी मिलन की कब रुत का उद्वेग कब होगा आँगना में आगमन तुम्हारा   सहा जाये ना भावाकुल उर का संवेग , पलकों पे छाई रहती याद की ख़ुमारी छवि अंत:करण बसी अनुपम तुम्हारी गुनगुनाते,मंडराते अलि जैसे रात-दिन ताड़ प्रीत की ख़ूब उत्कंठा तुम हमारी , अनकहे भाव अलंकृत शब्दों से करके  रचनाओं में सृजित करूं मर्म विरह के अन्तर्मन की पीर संग्रह गीतों में करके गुनगुनाया करती नीर दो दृगों में भरके , करती स्वर रागिनी से कलह असावरी अवसादों से भरी काटूं विरह विभावरी कर ख़ुद से हुज्जत जुन्हाई भरी रैन में अपलक निहारूँ चाँद,जैसे कोई बावरी , अविलंब हरषा जा उतप्त हृदय आकर  सर्दी के घाम सी नेहवृष्टि कर आस पर सन्निपात व्याधि जैसी रूग्ण काया हुई कल्पना के उड़ती उन्मुक्त आकाश पर । आसावरी-...

" वसन्त ऋतु पर कविता "

'' वसन्त ऋतु पर कविता " शरद ऋतु  की कर विदाई  ऋतुराज अतिथि गृह आये पतझड़  को  नवजीवन  दे मुरझाये प्रकृति संग हर्षाये , ऋतुपति हैं ऋतुओं के राजा  इनकी शोभा अतीव निराली अनुपम सौंदर्य  से परिपूरित बिखेरें दिग्-दिगन्त् हरियाली , मधुमाती  गंध  से वातावरण  मह-मह माधव  ने  महकाया  वसुन्धरा  पर  मुक्त पाणि से अगणित अपूर्व नेह बरसाया , अम्बर ने  मादक  रंग बिखेरा छवि विभावरी करे सम्मोहित  कली  जूही  की  प्रियतम  के बंध आलिंगन  हुई आलोड़ित , मधुमासी नेह कलश में भींग  महक उठी प्रमुदित अमराई लद बौराया  अमुवा मंजर से  कोयल चहक कुहुक इतराई , क्यारी-क्यारी बिछी हरीतिमा बाग़ सोलह सिंगार कर हुलसे प्रदीप्त सौंदर्य से दसों दिशायें  अलौकिक आह्लाद उर विहँसे , महुआ नख-शिख रस में मात टप-टपा-टप   चूवे  जमीं  पर श्वेत सुमन से छतर-छतर नीम कौमार्य से झरे इठला मही पर , सुआ, सारिका,सारंग, शिखी पा वासन्ती वात्सल्य हैं हर्षित मातंग, मरा...

" एक दीवाना ऐसा भी "

" एक दीवाना ऐसा भी " हटा दो लाज का  पहरा      सबर आँखों का जाता है            मेरी बेचैन चाहत को                अदा नायाब भाता है ।  काली घटा सी जुल्फें     क्या बिजली गिराती हो         मैं मदहोश हुआ जाता           ग़जब चिलमन गिराती हो ।  चुराकर चैन सोती तुम       सपन की मीठी बाँहों में          मेरी पल भर कटी ना रातें              मगन बोझल निगाहों में ।  अगर तुम ला नहीं सकतीं    जुबां पर दिल की वो बातें        निगाहों से बयां कर देतीं          जुबां और दिल की वो बातें । तेरे खंजर नयन नशीले     कहीं जान ना मेरी ले लें        सुर्ख लबालब होंठ रसीले               सरेआम मोहब्बत ना पीले ।   आँखें मदभरी ...

" कविता का विकृत श्रृंगार ना हो "

" कविता का विकृत श्रृंगार ना हो " ऐ मेरे सृजन ले चल मुझे हृदय के भाव प्रवण छांव तले जिसके गहन सिन्धु में लहर लहर अनुभूतियों के सुघड़ सलोने भाव पले तिलमिलाती अभिव्यक्तियाँ जहाँ भावों के सागर में कौंधतीं हिलोरें जहाँ प्रेम का सागर उमगता जहाँ संवेदना की उमड़तीं रसधारें जिसकी हर बूंद में हो तूफां सी रवानी  भरी हो जिसमें जीवन के अनुभवों की कहानी जो अन्तर के क्रंदन को सृजित करे  उर के कोलाहल को जगविदित करे । ऐ मेरे सृजन ले चल मुझे जहाँ शब्दों का अपव्यय ना हो और जबरन शब्दों के आभूषण से कविता का विकृत श्रृंगार ना हो ऐसे भाव उकेरूं जैसे हरसिंगार के फूल झरे  सीपी के मोती सा उद्गार व्यक्त हो काव्य प्रेमियों को भाव विभोर कर सकूं वितृष्णा,उकताहट का ना सार व्याप्त हो  चाह नहीं प्रशंसा के मिथक चन्द शब्दों की जिससे चन्दन सी शीतलता का बोध प्राप्त हो ऐसे प्रवाह का मेरी कविता में भरो उद्बोधन  जिसे पढ़कर मन को ठंडक का आभास हो ऐ मेरे सृजन ले चल मुझे जहाँ कवि मन के अन्तर्द्वन्द का विलाप हो ना अनर्गल ना निकृष्ट प्रलाप हो जहाँ ...

याद पर कविता " महका जातीं सांसों को अनुराग से "

 " महका जातीं सांसों को अनुराग से " जब-जब दूधिया  किरण छितराई बजी सुधियों वाली मृदुल शहनाई टंगी तस्वीर देख मन की भीत पर सीने में हूक उठी आँख डबडबाई , जो ख़ुश्बू समाई अबतक सांसों में रोक लूँ सांसें लेना  ये सम्भव नहीं पृथक कर दिए उसूलों ने राहेें मगर दिन बिन याद गुजरे ये सम्भव नहीं , यादें प्राय: बिखेरतीं इन्द्रधनुषी रंग  आ पलकों की  चौखट अन्दाज़ से  नेेह से चूम अंतस् के अहसास को महका जातीं सांसों को अनुराग से , रखीं अनमोल ख़तों की निशानियां जिन शब्दों में बसी सुगंध प्यार की उम्र भर रखा चस्पा कलेजे से उन्हें थकीं आँखें न कम्बख़्त इंतज़ार की , हर डगर पर करतीं  यादें परिक्रमा  पग-पग चलें साथ परछाईं की तरह स्तम्भ सम खड़ी स्मृति आत्मा में वो जो दमकतीं सूर्ख अरुनाई की तरह । सर्वाधिकार सुरक्षित  शैल सिंह 

गीत रचना

" कैसे बतलाऊँ हया की बात " वो मेरे कजरे की हैं धार तभी तो नैन मेरे कजरारे  हर कोई झांके मेरी आँखों में  छुप-छुप नैन मेरे निहारे पूछें छवि किसकी इसमें आबाद बता दे ज़ेहन में कौन बसा रे अँधेरी रात में भी चाँद सा रौशन दमकता मुखड़ा क्यों मेरा रे  कैसे बतलाऊँ शर्म से बोझिल कि कैसे पलकें झुकी उठीं उजियारे , वो मेरे रत्नों के भण्डार तभी तो गले मोतियों की हारें वो मेरे सूरज हैं रक्ताभ तभी तो चाँद सा नूरां चेहरा रे मेरी चंचल चितवन घनकेश घटा  नैनों की झील में वो आकण्ठ डूबा रे बिन सिंगार के भी हैं लोग पूछते क्यों मेरा रूप निखरताा जा रहा रे  कैसे बतलाऊँ हया की बात कि हुए क्यूँ रक्तिम मेरे रूख़सार रे,   वो बोल मेरी गीतों  के तभी तो कण्ठ मेरे रसधारे वो मेरे सुन्दर सुरों के साज तभी तो स्वरों में घुले ताल चटखारे बनी उनके लिए फ़नकार तभी तो पाजेब मेरी झनकारे मेरी अभिव्यक्तियों के भाव अलख कैसे होते इतने मुखर मंजुल अन्दाज़ रे  कैसे बतलाऊँ उनके ख़यालों का भीना  मेरी रोम-रोम में ...

कविता " कितनी बार की श्रृंगार हृदय के ज्वार के लेकिन "

तुम आँखों से पढ़ लेते मेरे मानस की ग़र भाषा स्वयं मौन निमंन्त्रण की समझ जाते अभिलाषा मैं प्रेम का प्रतिमान समर्पण की ऋचा थी पगले उम्र की बीति सदी आधी दिवंगत रह गई आशा, उर्मि उर के सरोवर की ढकी छतनाई जलकुंभी न तह का कभी कोलाहल उफनाई सतह पे भी हृदय के उपनिषद का पृष्ठ कभी खोल पढ़ लेते तो मन के मुक्तक को न लिखती मैं विरह में भी , मुलायम भावनायें थीं शोख़ हिरणी सी तरूणाई आस जिस चाँदनी की थी कभी उगी न अंगनाई कितनी बार की श्रृंगार हृदय के ज्वार के लेकिन  वसंती मनुहार की कर्ण में कभी गूंजी न शहनाई , झंकारें लोम की तेरे उन्मादित होती ही नहीं जैसे क्यों इस तरह शिराओं के रसों को विश्राम दे बैठे छलकते यौवन की मदिरा के अभिप्राय ना समझे  ऐश्वर्य रूप का कुम्हलाए तुम भरे मधुमास में ऐंठे , आद्र अरूण कपोलों को कभी तुम चूम भर लेते हुलस भुजपाश में भर कर कभी यूँ झूम भर लेते मृदुल मुस्कानों पर मेरे भ्रमर सा तुम मचलते ग़र अनुष्ठान साधना का करती रसपान तुम कर लेते । उर्मि--लहर,     लोम--रोआँ    सर्वाधिकार सुरक्षित  शैल सिंह 

" वक्त गुजरे न लौट के आएंगे कभी "

" वक्त गुजरे न लौट के आएंगे कभी " मुझे शिकवा है तेरी ख़ामोशियों से  बग़ावत न कर बैठे कहीं सब्र मेरा ऐसे तहज़ीब इख़्तियार कर पूछते   ढलकता क्यों है चश्म से अब्र मेरा , क्यों मेरी खुशियों से तुझे अदावत  कि करे मौन उपवास तक़रार ऐसे  तेरे हिस्से का लम्हा तनहा गुज़रता  किया बिसात से बहुत  प्यार तुझसे न दिखे दिल का दर्द न मेरी तड़प  अबोध शिशु सी मैं भरुं किलकारी बेंध शब्दों में भाव करूं वार्तालाप पढ़ ख़ामोशी तेरी भड़के चिन्गारी , होता नहीं बर्दाश्त चुप का सन्नाटा  मैं भी ओढ़ ली अग़र मौनी ओढ़नी फिर न कहना बात कभी क़द्र की   कह दूँगी मैं भी कहाँ फ़ुर्सत इतनी , तूफां आके चले जायेंगे ज़िन्दगी से वक़्त गुजरे न लौट के आएंगे कभी कभी अंतस की गहराई में ग़र डूबे  तो जज़्बात गिला  कर जायेंगे सभी । सर्वाधिकार सुरक्षित  शैल सिंह 

नव वर्ष पर कविता

नव वर्ष पर कविता बीते बरस की देहरी छोड़  नवल वर्ष आया है द्वार  नये उमंग से नई तरंग से नव वर्ष का करें सत्कार , मंगलमय हो जीवन सबका आओ बांटें खुशियों के उपहार  निष्ठा के मंगलदीप जलाएं  बीती बातों को हमसब बिसार , बारें नेह की बाती प्रीत दीप में  सभी के सपने हों साकार  नई उछाह का नये उत्साह का सबके जीवन में हो अवतार , शुभकामनाएं नव वर्ष की  मिले सभी को रोजी रोजगार भूखा,नंगा, ना बेघर हो कोई ना जुल्म किसी पे हो अत्याचार , बीते साल को अलविदा कह लेती अंगड़ाई पृथ्वी है ईक बार  हवाओं,दिशाओं,दिलों में सबके नूतन सौगात दे करती नव संचार , हो अमन शान्ति हो भाईचारा  हो भारत भूमि से सबको प्यार  तज ईर्ष्या,द्वेष,दुर्गुण सब अपने बस हो प्यार,प्यार और केवल प्यार । सर्वाधिकार सुरक्षित  शैल सिंह