शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

" नदी के तट सी मुझसे बना दूरियां "

ग़र दर्द सारे तुम अपने दे देते मुझे
पिरो ग़ज़लों में बज़्म में सुना देती मैं
पीर उर की जो कह ना सके खोलकर
हर कड़ी उसकी बज़्म में गुनगुना देती मैं ।

क्यों गम्भीर मुद्रा तुम अपना लिए
मन वीणा के तार कभी छेड़े तो होते
चाहा बहुत ढाल बन जाऊँ तेरे दर्द की 
दर्द अधरों के पट अनकहा उकेरे तो होते ।

ख़ामोशी का इक कवच ओढ़ कर
मौन के यज्ञ ग़म का हवन बस किये
तान वितान नजदीक तुमने तन्हाई का 
मेरे कौतूहल का हँसकर शमन बस किये ।

नदी के तट सी मुझसे बना दूरियां 
गीला मन क्यों पाषाण सा कर लिया
मन का मकरंद मैं तुम पर लुटाती रही
मुझे भी तुमने भींगे सामान सा कर लिया ।

क्यूँ मुख़ालिफ हवायें हुईं प्रीत की
काश निहारा तो होता कभी प्यार से
कभी चुप्पी की चादर हटाकर नैन भर
भींगे होते मेरे नयनों की भी कभी धार से ।

शमन---शान्त करना
सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह

10 टिप्‍पणियां:

  1. बड़ी पीड़ा छुपी होती है इस काश में!

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  2. धन्यवाद कविता जी सही कहा आपने

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  3. बहुत ही सुंदर हृदयस्पर्शी सृजन।
    सादर

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  4. नदी के तट सी मुझसे बना दूरियां
    गीला मन क्यों पाषाण सा कर लिया
    मन का मकरंद मैं तुम पर लुटाती रही
    मुझे भी तुमने भींगे सामान सा कर लिया ।
    बहुत ही सुन्दर सृजन
    लाजवाब।

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  5. सर सादर अभिवादन,आप मेरी पोस्ट जरूर पढ़ते हैं ये मेरे लिए बहुत बड़ी बात है

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  6. धन्यवाद रविन्द्र जी आपका जितना आभार व्यक्त करूं कम है

    जवाब देंहटाएं

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