मंगलवार, 14 जनवरी 2020

कविता " कितनी बार की श्रृंगार हृदय के ज्वार के लेकिन "

तुम आँखों से पढ़ लेते मेरे मानस की ग़र भाषा
स्वयं मौन निमंन्त्रण की समझ जाते अभिलाषा
मैं प्रेम का प्रतिमान समर्पण की ऋचा थी पगले
उम्र की बीति सदी आधी दिवंगत रह गई आशा,

उर्मि उर के सरोवर की ढकी छतनाई जलकुंभी
न तह का कभी कोलाहल उफनाई सतह पे भी
हृदय के उपनिषद का पृष्ठ कभी खोल पढ़ लेते
तो मन के मुक्तक को न लिखती मैं विरह में भी ,

मुलायम भावनायें थीं शोख़ हिरणी सी तरूणाई
आस जिस चाँदनी की थी कभी उगी न अंगनाई
कितनी बार की श्रृंगार हृदय के ज्वार के लेकिन 
वसंती मनुहार की कर्ण में कभी गूंजी न शहनाई ,

झंकारें लोम की तेरे उन्मादित होती ही नहीं जैसे
क्यों इस तरह शिराओं के रसों को विश्राम दे बैठे
छलकते यौवन की मदिरा के अभिप्राय ना समझे 
ऐश्वर्य रूप का कुम्हलाए तुम भरे मधुमास में ऐंठे ,

आद्र अरूण कपोलों को कभी तुम चूम भर लेते
हुलस भुजपाश में भर कर कभी यूँ झूम भर लेते
मृदुल मुस्कानों पर मेरे भ्रमर सा तुम मचलते ग़र
अनुष्ठान साधना का करती रसपान तुम कर लेते ।

उर्मि--लहर,     लोम--रोआँ   
सर्वाधिकार सुरक्षित 
शैल सिंह 

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