बुधवार, 7 अक्तूबर 2020

" सारी-सारी शब अपनी याद में जगाते रहे "

सारी-सारी शब अपनी याद में जगाते रहे


आती हर बात याद डंसती बैरिन सी रात
प्यासे रह गये जज़्बात ऐसी हुई हिमपात ।

मेरे आँसुओं का कतरा वो दरिया जानके   
प्यास बुझा चला गया  मुशाफिर की तरह
न परखा उदासी न समझा दर्द अश्क़ का
बेपरवाह दिल-ए-ग़म से राहग़ीर की तरह ।

सोचती क्यूं बहे देख उसे अश्रु ये फ़िज़ूल  
ढले अनमोल अश्क़ क्यूं इश्क़ में फ़िज़ूल
भान होता न था वो कभी मुझ पर निशार 
बहने ना देती सब्र तोड़ आँखों से फ़िज़ूल ।

वो आँखों को हसीं ख़्वाब बस दिखाते रहे
सारी-सारी शब अपनी याद में जगाते रहे
जो काजल लगाती आँखों में बड़े शौक से
वे चित्र आरिज़ों पे स्याह रंग के बनाते रहे ।

लब से छेड़ती तरन्नुम है भर आती आँख
लब पर खेलती तबस्सुम ढल जाती आँस
तरन्नुम और तबस्सुम करें  बज़्में गुलज़ार 
नादां ख़ुद को बेज़ार किये गातीं एहसास ।

आरिज़--गाल





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