सारी-सारी शब अपनी याद में जगाते रहे
आती हर बात याद डंसती बैरिन सी रात
प्यासे रह गये जज़्बात ऐसी हुई हिमपात ।
प्यास बुझा चला गया मुशाफिर की तरह
न परखा उदासी न समझा दर्द अश्क़ का
बेपरवाह दिल-ए-ग़म से राहग़ीर की तरह ।
सोचती क्यूं बहे देख उसे अश्रु ये फ़िज़ूल
ढले अनमोल अश्क़ क्यूं इश्क़ में फ़िज़ूल
भान होता न था वो कभी मुझ पर निशार
बहने ना देती सब्र तोड़ आँखों से फ़िज़ूल ।
वो आँखों को हसीं ख़्वाब बस दिखाते रहे
सारी-सारी शब अपनी याद में जगाते रहे
जो काजल लगाती आँखों में बड़े शौक से
वे चित्र आरिज़ों पे स्याह रंग के बनाते रहे ।
लब से छेड़ती तरन्नुम है भर आती आँख
लब पर खेलती तबस्सुम ढल जाती आँस
तरन्नुम और तबस्सुम करें बज़्में गुलज़ार
नादां ख़ुद को बेज़ार किये गातीं एहसास ।
आरिज़--गाल
वाह
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार ९ अक्टूबर २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
आपका बहुत-बहुत आभार आदरणीया
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आदरणिया
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