द्रव तेरी आँखों का क्यों सूखा है रे ज़ालिम
बर्बर आतंकों से दहला हुआ है विश्व भीख़ौफनाक सायों में गुजरे सहमी ज़िदगी
दहशतगर्दों के इरादों की अज़ीब दास्ताँ
इंसानियत को मार जी रहे कैसी ज़िदगी
बनके अमानुष गिराते रोज ही क्रूर ग़ाज
झुलसा रहे निर्दयता से दुनियावी ज़िदगी
मौत का बरपा क़हर पसरा हुआ मातम
सांसों के अहसानों पर जी रहे हैं ज़िदगी
देख यह मन्जर मेरा होता है दिल घायल
पी-पी के घूँट ज़हर का जी रहे हैं ज़िदगी ,
यह कैसी सनक है धुन,उपद्रव किसलिए
ऐसे खिलवाड़ से करोगे कबतक दरिंदगी
ग़र न ज़मीर जागा न फूटा सोता स्नेह का
ग़र न ज़मीर जागा न फूटा सोता स्नेह का
इक दिन तुम्हें भी लील लेगी तेरी दरिंदगी ,
हाय तुम्हारी हैवानियत को मैं क्या नाम दूँ
जन्नतेहूर की ख़ाहिश बनाई सस्ती ज़िदगी
द्रव तेरी आँखों का क्यों सूखा है रे ज़ालिम
तेरी बेरहमी बेगुनाहों की ले रही है ज़िदगी ,
तेरी बेरहमी बेगुनाहों की ले रही है ज़िदगी ,
जिस ख़ुदा वास्ते बरपाता बेख़ौफ़ तूं कहर
वही ख़ुदा देख सुन रहा है मेरी भी बन्दग़ी
कभी न कभी फूटेगा ये तेरे पापों का घड़ा
हज़म तुझे भी करेगी हर आहों की बन्दग़ी ।
शैल सिंह
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