कुछ उन्मुक्त छन्द

छलकता जब भी प्रेम के एहसास का पैमाना 
शब्दों के मोती से कर लेती दिल्लगी मनमाना
कविताएं बन जाती मेरे उक्तियों की संजीवनी 
शायरी में उतर आता उर के उद्गार का आईना ।

मेरी कविताओं की बुनियाद तुम हो प्रिये 
कविताएं अनकही बातों की संवाद प्रिये 
दर्द ने जब भी शरारत किया जज़्बातों से 
लेखनी ने शब्द-शब्द में अनुवाद कर दिए ।

मिलन के वो सुनहरे पल सांझ सुरमई 
तेरे भुजपाश में जब लाज से दुहरी हुई 
हया का पर्दा हटा जो चूमा कपोलों को 
मन कलिका खिली शर्म से हुई छुईमुई ।

क्यों बहार बन कर आये जीवन में मेरे 
लेना नहीं था जब सातों वचन संग फेरे 
क्यूं किये मन वीणा के तंत्रों को झंकृत 
दक्षता नहीं वाद्ययंत्र में तरन्नुम क्यूं छेड़े ।

क्यों उमड़-घुमड़ कर बादल के जैसे 
आषाढ़ सा मन का आँगन छू कर के
मन के मोर की बढ़ाकर के विह्वलता
लौट गये घहराकर तरसा बिना बरसे ।

धड़कन बनके धड़कते हो तुम हृदय में 
जी रही ऑंखों के सपने संजो सांसों में 
जब से देखी हैं तेरी सूरत इन ऑंखों ने 
दूसरी बसी ना कोई मूरत इन ऑंखों में ।

जब भी खटकता सांकल दहलीज़ का 
लगता आये मेरे महबूब पाहुना बनकर 
तोड़ सारी बेड़ियां,पहरे सांसों को साधे 
दो रूह मिलेंगे जाती दौड़ी दहलीज़ पर ।

शैल सिंह 
सर्वाधिकार सुरक्षित 






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