उगा के बंजर उर में प्रेम का अंकुर
इज़हार ना मुझको करने आया
तुम मन की भाषा पढ़ ना सके
चाहतें दिल में लेती रहीं हिलोरें
इक बार भी तुमसे कह ना सके ।
स्वयं तुझपे न्योछावर हो जाती
जरा तुम भी नजरों से जता देते
दिल का दरवाज़ा खोलकर तुम
कभी तुम्हें मुझसे प्यार बता देते
डरती हूं पास तेरे आने से पहले
झिझकती देख ना लें कहीं लोग
कुछ तो यों भी कयास लगा लेंगे
दास्तां अलग गढ़ लेंगे कुछ लोग ।
हो गई मेरी ऑंखों से ख़ता सही
तेरे मन में है क्या कुछ पता नहीं
मेरे एहसास,तड़प अनकहे शब्द
पढ़ कुछ तो बोलते,रहते निःशब्द
दृग से स्वीकृति का एहसास करा
बहा नद के उत्स सा प्रेम की धार
ख़यालों,सपनों,कल्पनाओं में मेरी
अनुरक्ति का किये रूपरेखा तैयार ।
पतझड़ सा विरान था जीवन मेरा
वसन्त सा मेरे मन का उपवन कर
पूरवा के झोंके सा उर में समा गये
मंडराते रहते भंवरे सा गुनगुन कर
रहे मूक अधर कर संवाद नयन से
छलका प्रीत का सागर मन में बैठे
उगा के बंजर उर में प्रेम का अंकुर
फिर क्यों सख्त पहाड़ सा बन बैठे ।
नद:-समुद्र
उत्स:-स्त्रोत ,झरना
शैल सिंह
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