प्रिय के नाम प्रेयसी की पाती

निर्झर-निर्झर बहते नैना विरह विकल हो बीते रैना 
प्रियतम आस के दीप जला थक गये कजरारे नैना 
कब आओगे पंथ निहारूं रोज गुलों से सेज संवारूं 
चहुं दिस देखूं हो अधीर बेमन से आंगन गेह बुहारूं ,

बनो ना इतने निष्ठुर तुम कलप रही तुमसे होकर दूर
हंसना,खाना,सोना भूल गई मुरझाया मुखड़े का नूर
अरमानों के कंपित अधरों पर कितने गीत सजाकर
रिमझिम बीत गया सावन मिलन की आस लगाकर ,

दग्ध हृदय है तेरे वियोग में शीतलता आ करो प्रदान 
आसरा में सुलगे अन्तर्मन धुआं कैसे दिखे आसमान 
इक पल चित को धीर नहीं भींगी पलकों से पूछो आ
व्याकुल रहता बावरा मन पीर अन्तहीन तो देखो आ

जोगन बनकर ताक रही मग पगली कहता मोहे जग
चंचल यौवन की मधुऋतु बेला में छोड़ गये मोहे ठग
कैसे व्यक्त करूं चन्द शब्दों में अकथ हृदय की पीर
पाती लिखती मसि बना नीर को निरख तेरी तस्वीर 

हम इक दूजे के पूरक,बिन तेरे क्या है अस्तित्व मेरा 
टीस उठे हिय रह-रह,रूद्ध कंठ,अश्रु करें श्रृंगार मेरा
अनुराग से सनी पढ़ मौन वेदना मेरी छवि बना लेना
नेह से ना करना निर्वासित इस मधुमास में आ जाना ।

गुलों----फूल , 
गेह---घर , 
मसि---स्याही,इंक

शैल सिंह 
सर्वाधिकार सुरक्षित 

टिप्पणियाँ

  1. मन भिगाती रचना।
    सादर।
    -------
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १९ सितंबर २०२५ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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