क्यों कलम निष्प्राण पड़ी तुम खोलो ना जिह्वा का द्वार
घुमड़ रहा जो तेरे अन्तर्मन में कर दो व्यक्त सारा उद्गार
भीतर जो तेरे छटपटाहट राष्ट्र,समाज और जगत लिए
इतनी अन्दर तेरे कलम है ताक़त उगल दो सारा अंगार ।
एक समय था कवियों की कलम से फूटती थी चिन्गारी
क्रान्ति लिए शीघ्र उतर विद्रोह पर बन जाती थी कटारी
ब़रछी,भाले,बाण,कृपाण कभी तेरे आगे शीश नवाते थे
ज्ञान, बुद्धि,विवेक का दीप जला हर लेती थी अंधियारी ।
शासन तन्त्र का बखिया उधेड़ झुका लेती थी चरणों में
आवाज शोषितों की बन तलवार बन जाती थी वर्णो में
कहाँ गई कलम वह पैनी धार तेरी,सुस्त पड़ी बेबस सी
कभी इतिहास बदलने का दम रख गरजती थी हर्फ़ों में ।
नहीं तुझे सत्ता का भय सत्ताधीशों की चूल हिलाती थी
बेजुबान होते भी बेबस गरीबों की जुबान बन जाती थी
थी विरह,वेदना की सखी तूं दुख-दर्द की सहचरी भी तूं
कहाँ गई वरासत छोड़ जो उर के भाव समझ जाती थी ।
जब भी बग़ावत पर उतरती तेरे पीछे दुनिया डोलती थी
हिल जाता था सिंहासन जब तूं निर्भीक मुँह खोलती थी
उठो भरो हुंकार,प्रतिकार कर शोषितों का निनाद लिखो
क्यों पड़ी नैराश्य तूं भीरू बन कभी तूती तेरी बोलती थी ।
वर्णों--शब्दों, नैराश्य—निराश, भीरू--डरपोक,
निनाद--आवाज
सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह
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