गुरुवार, 29 जून 2023

क्यूँ छेड़े मन का इकतारा

कितने दर्द से गुजरे होंगे शब्द  जज़्बात उकेरने से पहले 
कागज भी कितना तड़पे होंगे मनोभाव उमड़ने से पहले 
अनुबंध किये तुम साथ निभाने का क्यूँ इरादे बदल दिए 
मेरे साये से भी कतराने लगे तुम सैर के रास्ते बदल दिए ।

पास मेरे ऐसे अल्फ़ाज़ नहीं जिसमें व्यक्त करूं एहसास 
दर्द के पास भी जुबां नहीं जो कर सके अन्तस की बात 
कैसे जख़्म दिखाऊँ दहर को जो दिखते नहीं किसी को 
भीतर-भीतर होता उर गीला किससे करूँ बयां जज़्बात ।

कभी ना थकतीं बोझल हो पलकें पर थक जाती है रात 
तन्हाई में तसल्ली भी अक्सर तज देती तन्हाई का साथ 
मेरे अवसाद का कोई करे उपचार या कर दे दवा ईज़ाद 
कोई ना पूछता ख़ैरियत ग़म में, छोड़ देते अपने भी हाथ ।

जैसे शाख़ से सुमन जुदा हो कुम्हलाकर हो जाता तनहा 
वैसे ही थम गया है दिल का स्पंदन याद कर बीता लम्हा 
जब नहीं थे तुम मेरे लकीरों में क्यूँ छेड़े मन का इकतारा 
क्यों ख़ुद को मुझमें छोड़ा सजा आँखो में ख़्वाब सुनहरा ।

दर्द ने ली जब-जब अंगड़ाई  मैंने अश्क़ों से सहला लिया 
टूटे दिल की किरिचें जोड़ रफ़्ता-रफ़्ता दिल बहला लिया 
बेशुमार नज़राना दर्दे-दिल का रख दी दिल के तलघर में 
भर गया हृदय का आगार शायरी का शौक़ अपना लिया ।

सर्वाधिकार सुरक्षित 
शैल सिंह 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

ज़िन्दगी पर कविता

ज़िन्दगी पर कविता  दो पल की ज़िंदगी है दो पल जियें ख़ुशी से हंसकर मिलें ख़ुशी से  खुलकर हंसें सभी से। बचपन में खेले हम कभी चढ़के आई जवानी फि...