सोमवार, 6 फ़रवरी 2023

ढल रही है ज़िन्दगी की उमर धीरे-धीरे

                                                
अब तलक उस लमहे को रोके खडी हूँ 
जिसे छोड़ा अधूरा था उसने जिस हाल में
कई अरसे गुजर गये आयेगा वो इन्तज़ार में
कशमकश में जीती रही ज़िन्दगी भरी बहार में ।

मिट ना जाएं कहीं उसके पग के निशां
किसी बटोही को उस पथ ना जाने दिया 
खुला रख छोड़ा है दरीचे का पट आज तक
इक दीदार लिए ही कभी पर्दा ना गिराने दिया
राह शिद्दत से आज भी निहारतीं आँखें उसी का
आस में किसी ग़ैर का नाम अधरों पर ना आने दिया ।

नींद भी उसी की तरह बेवफ़ा हो गई है
सपने पलकों पर बिछाकर दगा दे रही है
मुद्दत से खड़ी हूँ उसी मोड़ पे मैं इन्तज़ार में
मुझको मेरी ही मोहब्बत कैसी सजा दे रही है
कैसे भूल जाऊँ धड़कता दिल ख़यालों में उसके
लगे रूह उसकी मेरे साये से प्रकट हो सदा दे रही है ।

ढल रही है ज़िन्दगी की उमर धीरे-धीरे 
रोज रेत की भाँति मुट्ठी से फिसलती हुई
चंद हसरतों की ख़ातिर चल रहीं साँसें मगर
जीना दूभर लगे चले साथ मौत भी छलती हुई 
कब तक बहलाती दिल दिलासों के खिलौनों से 
ख़्वाब देखती रह गई ज़िन्दगी मोम सी पिघलती हुई ।
सदा--आवाज 
सर्वाधिकार सुरक्षित 
शैल सिंह 

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