नींद पर कविता
शब शबाब पर होती अपनेनींद क्यूँ रहती ऐसे बेखबर ,
आती नहीं आँखों में पगली
बोझल पलकों को कर-कर
बावरी सी भटकती फिरती
जाने कहाँ-कहाँ इधर-उधर ,
जाने कहाँ-कहाँ इधर-उधर ,
बगल वाले का ख़र्राटा जब
चुग़ली करता इन कर्णों में
तब इक भभका सा उठता
जलन होती है मेरे वक्षों में ,
मन्त्रोच्चार करुं मन ही मन
या जपूं राम नाम की माला
निगोड़ी करे बेहयाई चाहे
जप,पड़ जाये जीभ में छाला ,
अकड़े करवट दुर्गति पे अपने
तड़पाती रात की तन्हाई हाय
तड़पाती रात की तन्हाई हाय
तल्ख़ हो कुढ़ते भोर के सपने ,
लिहाफ़ ओढ़ूँ या तानूं,खींचूं
कानों के छज्जे पे कर कब्ज़ा
कानों के छज्जे पे कर कब्ज़ा
भनभनाना मच्छरों का जारी
खूँ चूसते रहते हैं कूज़ा-कूज़ा ,
उपक्रम नींद का करती जब
टपक पड़ती भोर की लाली
विहंगों का चहकना गूंज उठे
बजा देती घण्टी काम वाली ,
फिर जुत जाती हल बैलों सी
रोज़मर्रा के तमाम कामों में
यही होती रोज की दिनचर्या
थक जाती इन समस्याओं में।
शब्--रात, शबाब--जवानी
कूज़ा-कूज़ा--कुल्हड़ या सकोरा भर-भर
सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह
टपक पड़ती भोर की लाली
विहंगों का चहकना गूंज उठे
बजा देती घण्टी काम वाली ,
फिर जुत जाती हल बैलों सी
रोज़मर्रा के तमाम कामों में
यही होती रोज की दिनचर्या
थक जाती इन समस्याओं में।
शब्--रात, शबाब--जवानी
कूज़ा-कूज़ा--कुल्हड़ या सकोरा भर-भर
सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह
नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों काआनन्द" में रविवार 15 दिसंबर 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
612...लिहाफ़ ओढ़ूँ,तानूं,खींचूं...
आभार आपका रविन्द्र जी
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