तकिया पर कविता
कितना बदनसीब दामन है तकिया तेरा
नि:शब्द करवटों से कभी उकताती नहीं
होती गलगल हो अश्रुओं की हमदर्द बन
दर्द ख़ुदके सिरहाने से कभी बताती नहीं ।
हिलकतीं सिसकियों से बेतरतीब बिस्तर
सिलवटों की एकमात्र तूं चश्मदीद गवाह
इत्मिनान,सुकून,निश्चिन्तता की तूं हितैषी
ईश्क़ के मारों से करती मुहब्बत बेपनाह ।
बसर ढूंढ़ते मन का समंदर हो तुम्हीं जैसे
बन जाती राजदार हमराज़ हो तुम्हीं जैसे ।
भर आग़ोश में तूं करती अद्भुत करिश्मा
दे थपकियां सुलाती सीने से लगा गा लोरियां
परिचारिका सी लवलीन जुती प्रेम रोगियों में
दर्द महसूसती खुदको कभी पुचकारती नहीं ।
शैल सिंह
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में मंगलवार 20 अगस्त 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआभार आपका रवीन्द्र जी
हटाएंबहुत खूबसूरत शहर है तकिया तन्हाई का
जवाब देंहटाएंदरके रिश्तों से निर्मित नाना किले हों जहाँ
दिल पर चोट खाये खरीदते हैं मरहम यहीं
कुछ सजा दरबार मनाते रोज उत्सव जहाँ ।
बहुत उम्दा सृजन सार्थक सुंदर।
बहुत बहुत आभार आपका
हटाएंवाह ... तकिये को अलग अलग अंदाज़ में देखना अच्छा लगा ...
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना ...
धन्यवाद सर
हटाएंतकिया !!!
जवाब देंहटाएंअद्भुत लाजवाब ....
वाह!!!
आभार आपका सुधार जी
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