कविता--शहीद की विधवा की होली

शहीद की विधवा की होली


देश लिए प्राण न्यौछावर कर 
पिया खून की होली खेल गये ,

घाव लगी गम्भीर हृदय पर 
कुदरत ने दी ऐसी पीर है
कैसे सजे तन रंग फागुन का 
हरे ताजे नयन के नीर हैं ,

चाव नहीं कोई भाव नहीं
ना कोई खुशी रंगोत्सव की
अभी सूखे नहीं आंचल गीले
फाग फीके होली महोत्सव की ,

कैसे भाये साज होरी का
बुझी नहीं राख अभी सजन की
सबकी शुभ-शुभ होली होगी 
मैं भई दुखिया जनम-जनम की ,

मांग हुई सूनी रोली बिन
किन संग खेलूं होली उन बिन
धूप अनुराग की चली गई
ख़ुशी जीवन की छली गईं ,

किनके गाल गुलाल मलूं मैं 
सुनसान लगे विरान घर
हँसि,ठिठोली वो संग ले गये  
दे वेदनाओं का दुःखान्त प्रहर। 

                       शैल सिंह

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

नई बहू का आगमन पर मेरी कविता

" विश्वव्यापी व्याधि पर कविता पर कविता "

बे-हिस लगे ज़िन्दगी --