गुरुवार, 25 जुलाई 2013

''भावना''

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जिसे महसूस कर समझना मुश्किल हो 
उसके लिए शब्द कैसे तलाशूँ ?
वारिश की बूंदों में जिसे तलाशती हूँ 
उसका पता किससे पाऊँ ....। 
वो तो खुद धरती से टकरा कर 
कतरों में बिखर जाती हैं
अपना ही मुकाम ना पहचानने वाली 
धड़कनों के भरोसे ,किस रस्ते चलूँ 
और मंजिल की उम्मीद कैसे बंधाऊँ । 
बस बेतरतीब सी जिंदगी की नाउम्मिदियों में 
वो हलकी सी चमक खोज रही हूँ …।
जिसकी पल भर की रोशनी में 
अगली गली में पड़ते पड़ाव को पहचान सकूँ .
कहानियां तो बेहिसाब हैं 
बस उनके अनंत ओर-छोर से हिस्सा काट लूँ 
तो सफेद पन्ने पर स्याही का दाग लगाऊं,
बिखरे ख्यालों को समेट भर लूँ 
किसी किस्से के बंधन में या भरने दूँ 
उन्हें उनकी साँसों में 
खुले आकाश की असीमित रंगीनियाँ ? 
बस उकेरती रहूँ यहाँ-वहां पन्नों पर 
कभी यूँ ही फिसल पड़े मन के उलझे भंवर ,
फिर इंतजार करूँ फुर्सत के लम्हों का
जब बैठ समेट सकूँ एक तान की लड़ी में सारा,सब । 
नए पुराने खतों पर लिख छोड़ा था धूल फांकने को ....
अब कैसे पहचानूँ कौन कतरन कहाँ 
जोड कहानी की तस्वीर पूरी होगी।
बादलों के शोर में कभी भूले से 
किसी गीत की गूंज आती है तो 
कहीं बिसरे अपने ही बुने किसी संगीत की लय 
मिल जाती है कौंध जाता है पिछला कोई राग 
खुद से सजाया हुआ। जैसे तान बना, 
बुन'ने वाले के पास कम पड़  गए थे धागे,
चुरा लिया मेरे अंतर्मन की धुनें 
बिखेर दिया प्रकृति की हर छटा में 
टुकड़ा-टुकड़ा कर, मुझमें पनपा 
और मुझसे उपजा है सृष्टि का रंग।
बस उस चोर को रंगे हाथों पकड़ने की 
उम्मीद में बैठी हूँ खुद से सब कुछ छिनता हुआ 
देख भी जिस रोज हाथ आएगा वो  
कर लुंगी सारा हिसाब और छीन लूंगी 
खोया भुलाया सपनों का घरौंदा।
वे टुकड़े हैं मेरी हस्ती का,
बरस दर बरस चढ़ती उम्र की चादर हैं वे संवेदनाएं ...
ढकती छिपाती तो कभी बेपरदा करती 
मेरी हकीकत को मेरे आज को 
मेरे बीते और आते हुए कल से ।
एक कहानी बुनी थी बरसों पहले,
फिर सिरे खुले,छूटे तो उधड़ने लगे 
आगे जाकर बांध पन्ने से पहले 
धागे ख़तम हो चले थे ख्यालों के ।    

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