बुधवार, 10 जुलाई 2019

" भीषण जलावृष्टि पर कविता "

         भीषण जलावृष्टि पर कविता 


अब तो लेले सन्यास कुढ़-कुढ़ इस क़दर बरस ना
हिलस गये बूढ़े वरगद भी कुछ तो खाले तरस ना ।

बड़ी मुंहजोर हुई बरखा तटबन्ध तोड़ कर अपना
जल आप्लावन चहुँओर विध्वंस हुआ सारा सपना
सभी जलाशय उफन रहे हैं दरिया में उठा सैलाब
बरबाद बुने ताने-बाने घटा अब तो छोड़ बिफरना ।

टूटे चौपायों के छप्पर घर हुए ज़र्जर ढहे धराशाई
कुपोषण को दे गई न्योता प्रलयंकारी बाढ़ कसाई
जिस मचान पे करते मस्ती उड़ाये सुग्गे औ बगुले
तेरे विनाश में उजड़े घरौंदे लाड़ तेरा बड़ दुखदाई ।

घुसा चौहद्दी में पानी दूभर कीं किच-किच दालानें
अनुष्ठान हुए थे वृष्टि लिए अब नभ से ओरहन ताने
औषधि खालो घटाओं अजीर्ण की बवाल ना काटो
कर दिया नगर-डगर जलमग्न छोड़ो कहर बरपाने ।

जाने किये कहाँ पंछी पलायन घुसा बसेरों में पानी
उखड़ गईं शाखें वृक्षों की खोई अमराई की रवानी
बाज आओ ना करो दुःखी ना करो ऐसी बदगुमानी
सुनो भला नहीं भौकाल तेरा ना अति की मनमानी ।

नेस्तनाबूद हुए पुस्तैनी घर मरघट सी लगती बस्ती
कहीं अतिवृष्टि कहीं अनावृष्टि शुष्क जमीं है परती
कहीं वर्षाती ओले कहीं इक बूंद को मोती तरसती
किसी दिन ऐ मेघा जरा तुम भी उपवास तो रखती ।


                    शैल सिंह

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