मंगलवार, 3 दिसंबर 2019

कविता '' हो गए तुम अपरिचित से प्रीति की लत लगा ''

'' हो गए तुम अपरिचित से प्रीति की लत लगा ''


हर रात स्वप्नों की गठरी मेरी पलकों पे रख,
सुबह रश्मियों का उपहार दे जगाते हो क्यूं
शहद मिश्रित परिन्दों के कलरव निनाद सा
गुनगुना,मुझे सुबोध परों से सहलाते हो क्यूँ ,

प्यास अधरों की जगा सरगम श्वसनों में भर  
छेड़ उन्मुक्त सिहरनें गुद-गुदा जाते हो क्यूँ
हौले स्पर्श से मन की कुमुदनी का शतदल
कर मधु सा मौन संवाद,खिला जाते हो क्यूँ ,

तेरी दक्ष दग़ाबाज़ी में जली हूँ मैं परवाने सी  
करूँ कोशिशें बहुत तुझे भूल जाने की रोज
मगर दृग में स्वप्नों का जलता दीया ढीठ सा
रख जाता लौ आश्वासनों का मुहाने पर रोज ,

माना कि होतीं हैं नब्ज़ें स्पन्दित तुम्हारे लिए
पर अब मौसम भी धैर्य के मानो ठूंठ हो गए
मेरी आवाज़ें भी लौट आतीं क्षुब्ध दर से तेरी        
हर आहटें,दस्तक़ें भी अब मानो झूठ हो गए ,

कितनी रातें काटीं पट झरोखों का थामे हुए 
नयन निरखते रहे राह जहाँ तक सामर्थ्य थी  
हो गए तुम अपरिचित से प्रीति की लत लगा
मैं स्वप्नों का की श्रृंगार जहाँ तक सामर्थ्य थी ,

पीर की ध्वनि को दी अँकवार जब शब्दों ने
भाव आकुल हो उमड़े भींगीं कोरें नयन की
भर अंक में चूम ली लिखी गीतों की श्रृंखला  
उर के गीले तट फूट गईं नई भोरें गगन की।

सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह 

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