रविवार, 1 मई 2016

आतंक की घृणित विभीषिका पर मेरा अंतर्द्वंद

आतंक की घृणित विभीषिका पर मेरा अंतर्द्वंद 


नित देख जगत का आहत दर्पण
पन्नों पर मन का दर्द उगलतीं हूँ
अब जाने कब होगा जग प्रफुल्ल 
सोच कविता में मर्म विलखती हूँ ,

काश करतीं व्यथित शोहदों को
आतंक की चरम घृणित क्रीड़ाएं
कोई मुक्तिदूत बनकर आ जाता
हर लेता जग की क्रन्दित पीड़ाएँ ,

कभी ग़र घोर निराशा के क्षण में
कहीं से छुप झांक पुरनिमा जाती
पुनः अगले पल कुछ घट जाता रे
जैसे ही सुख भर पलकें झपकाती ,

जब-जब हँस उषा की लाली देखा
कलह की सुख पर चल गई आरी
फिर काली निशा हो गई डरावनी
सुनकर कुत्सित षड्यंत्र की क्यारी ,

भाटे जैसी उठती हिलोर हृदय में
व्यूह तोड़  लहरों में बह जाने को
जग का दुर्दिन हश्र देख मचलता
विवश कंगन कटार बन जाने को ,

रुख रहेगा अलग-थलग भावों का 
ग़र आपस में ही लड़ते रह जायेंगे
जो भी आदि बची जी दीन दशा में
विष सुधा विद्वेष कलुष कर जायेंगे ,

सुरभित जीवन में मची कोलाहल
सर्वत्र चीत्कार रहीं गलियाँ-गलियाँ
भय से भूल गए खग,पक्षी कलरव
दहशत में उषा,ख़ौफ़ में है दुनिया 

ख़लल,शांति अमन को निगल गई
निर्जन नीड़ों में डोल रहे चमगादड़
नभ कण भी बरसा रहे हैं अश्रु बिंदु
मची हुई चहुँओर है भीषण भगदड़ ,

यदि होता बस में ग़र कुछ भी मेरे
भरती जग आँचल सुख का सागर
मिटा तमिस्रा उर-उर की,धर देती
हर अधरों पर  किसलय का गागर ,

सुख समरसता ठिठक गई मानो
पथभ्रष्टों की निर्भीक निर्दयता से
हो रही प्रकम्पित धरणी,अणु भी
मस्तिष्क की दुर्भिक्ष दानवता से ,

विक्षिप्त मानसिकता की ज़द में
जगत की दिनचर्या धधक रही है
लगता बहुत अनर्थ है होने वाला
निर्बाध आँख दाईं फड़क रही है ,

चैतन्य हो जाओ अरे सोने वालों
नव प्राण फूंकना मृत स्पन्दन में
समता की करनी है मुखर वाणी
शंखनाद गूंजे निस्सीम गगन में ,

बेवजह दहक रही सारी दुनिया
आतंकवाद की भीषण लपटों से
कहीं 'तू-तू ' 'मैं-मैं' के विलास में
मिट न जाएँ रे आपसी कलहों से ।

सुधा--अमृत

                               शैल सिंह 
















कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

बे-हिस लगे ज़िन्दगी --

बे-हिस लगे ज़िन्दगी -- ऐ ज़िन्दगी बता तेरा इरादा क्या है  बे-नाम सी उदासी में भटकाने से फायदा क्या है  क्यों पुराने दयार में ले जाकर उलझा रह...