गुरुवार, 28 जुलाई 2016

अपनों से ही ठोकर खाई

अपनों से ही ठोकर खाई

यह कविता उनके लिए जो परिश्रमी मेधावी होने के बावजूद भी लोगों के अन्याय का शिकार होते है ,फिर भी हारते टूटते नहीं ,गिर के फिर संभल जाते है अगली लड़ाई के लिये और पुनः संकल्प की टहनियों को संजीवनी दे पुनर्जीवित करते हैं मंजिल तक पहुँचने के हर प्रयास को ,बार-बार परास्त हो साहस को और शक्तिशाली बना विरोधियों को मजबूर कर देते हैं सत्य की ठोस जमीं पर उतरने को। संकटों में घिरकर भी लक्ष्य को सकारात्मक
बना लेते हैं सामर्थ्यवान की गलत नीति को धराशाई कर देते हैं और सत्य की जीत पर वो कभी-कभी छलांगे भी लगा लेते हैं,जो भी कुर्सी का गलत उपयोग करते हैं उनके लिए भी मेरी ये कविता है ,किसी के पक्षपात के लिए किसी योग्य का अहित नहीं करना चाहिए ।



तूं भी कश्ती पे सवार है कश्ती मेरी डूबाने वाला
तूं भी धरती पे इंसान है भगवान नहीं कहलाने वाला
डर तूफ़ां की मौन हलचल से ज्वार उफ़ान पे आने वाला
ईश्वर की लाठी बेआवाज़ सुन वही तुझे तेरी औक़ात बताने वाला ,

इतना गुरूर हस्ती पे हस्ती ही सबक सिखाएगी
जिस चाबुक से किया वार अक़्ल वही ठिकाने लाएगी
बरसा शब्दों के ज़हर बूझे कोड़े चैन क़रार है छीन लिया
पूर्वाग्रह से ग्रसित क्यूँ हिस्से का,दिन का उगता सूरज लील लिया ,

देर है अंधेर नहीं तुझपे भी वक़्त क़हर ढहायेगी
तड़पा-तड़पा कर करनी का,तुझे भी मज़ा चखाएगी
अपनों ने ही छला बहुत पग-पग अपनों से ही ठोकर खाई
धर्मपरायण हो भी भटक रही लड़नी पड़ी है हक़ के लिए लड़ाई ,

बहुत आँधियों ने तोला बहुत बवण्डरों संग खेला
बदनीयत बलायें दृढ़ इरादों की चट्टानें हिला ना पाईं
बुझा न पाईं दीये की लौ का अडिग मनोबल हठी हवाएं 
औंधे लौट गईं सनकी लहरें लक्ष्य के साहिल से जब आ टकराईं ।

                                                         शैल सिंह

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