मंगलवार, 13 अगस्त 2013

यादों का झरोखा

 यादों का झरोखा 

शामे ग़म करार हो,बहल जाये ज़िंदगी 
संवर जाये सफ़र तनहा  चहक जाईये ,

पीर पागल बनाये सताए बहुत याद 
बन के झोंका हवा का गमक जाइये 
कितनी मायूस है ज़िन्दगी आप बिन 
बन के जुगनू गली  में चमक  जाइये ,

इक तमन्ना है दीदार की बस सनम 
नूर आँखों का बन के झलक जाइये 
इक  बोसा  राहत का दिल को मिले 
रस मिले होंठ को बस छलक जाइये ,

भोर के स्वप्न जैसा देखे मंज़र नयन 
ख़्वाब  की बांह में आ चहक जाइये 
मन की सूनी हवेली है, अरसा हुआ 
मुस्कुरा उठे गुलिस्ताँ महक़  जाइये ,

ग़ैर महफ़िलों की रौनक बढ़ाते रहे 
बज़्म आकर मेरे भी  बहक जाइये 
ग़मे बीमार की सुन शाम-ए-ग़ज़ल 
चन्द लमहा ही सही ठमक जाइये ,

दर्द के हाथों बेच ख़ुशी तड़पी बहुत 
घटा बनके पलक पर अटक जाइये 
आज गुजरे ज़माने का वास्ता कसम 
बेताब बांहों का दायरा भटक जाइये ,

दर्दे ग़म लेते अंगड़ाई करवट बदल
बेज़ार पहलू लरजकर सहक जाईये
ख़ुद को रखा भुलावे में  अब तलक
दास्ताँ दिल की सुनके अहक जाईये ,

बेचैन आहों को ढाढ़स मिले कुछ घड़ी
दिल की गुमसुम गुफ़ा में लहक जाईये
जान ले ले ना ज़ालिम ये ख़ामोशी कहीं
शिकवा आँखों की कोरों ढलक जाईये ,

जवां ख़्यालों की महफ़िल सजी है प्रिये
हसीं आलम का लुत्फ़ ले सनक जाईये
ज़िन्दगी के सुमन हैं मुरझाने लगे अब
मन के उपवन बन भँवरा भनक जाईये ,

बेज़ार --विकल 




गुरुवार, 8 अगस्त 2013

मेरा साक्षात्कार

      संस्मरण                    

 मेरा साक्षात्कार 

    बात उस समय की है जब मैं शोध छात्र  के रूप में पढ़ाई के अंतिम सोपान पर था . मेरे समकालीन सभी छात्र कहीं ना कहीं किसी ना किसी विश्वविद्यालय में प्रवक्ता के पद पर आसीन हो चुके थे ,पर मैं अभी तक व्यवस्थित नहीं हो पाया था ,बहुत पहले एक जगह अप्लाई किया था ,जिसके तहत उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग में साक्षात्कार हेतु मुझे इलाहबाद बुलाया गया ,मैं वहाँ इस साक्षात्कार के लिए जाने को बिल्कुल ही तैयार नहीं था ,पर मेरे एक मित्र  ने जो मुझसे लगभग दो वर्ष बाद में शोध छात्र के लिए प्रवेश लिए थे ,उन्होंने मुझ पर बहुत दबाव डाला वो यही पूछते की आखिर क्यों नहीं जाना चाहते . मैं  कहता कि महाविद्यालयों में तो चयन सिफारिशों के आधार पर होता है मैं क्यों जाऊं पैसे और समय की बर्बादी करने ,फिर भी उनके बहुत आग्रह करने पर ,क्यों कि वह मेरे बहुत ही शुभ चिन्तक थे ,वहां गया .वहाँ साक्षात्कार कक्ष के बाहर लगभग सात,आठ कंडीडेट कानपुर से आये थे ,जब मैं चयन बोर्ड के अन्दर अपना साक्षात्कार देने गया तो मन में ऐसा विश्वास था की मेरा तो होना नहीं है इसलिए बहुत ही स्वतंत्र मस्तिष्क से अन्दर गया था लेकिन मेरा साक्षात्कार काफी देर तक चला था ,मैंने हर प्रश्न का यथोचित उत्तर बड़ी ही निर्भीकता से दिया था .साक्षात्कार कक्ष से बाहर निकलने पर कानपुर से आये अन्य उम्मीदवारों ने बताया कि उनके भी विश्व विद्यालय से दो एक्सपर्ट साक्षात्कार लेने हेतु आये हैं ,फिर तो मैं और भी निश्चिन्त होकर लौटा कि मेरा तो चयन नहीं होना है .फिर आकर अपने शोध कार्य में व्यस्त हो गया और इस विषय को बिल्कुल ही भूल गया .करीब एक माह के पश्चात एक रजिस्टर्ड लिफाफा मेरे नाम का छात्रावास में आया जो डाकिये ने मेरे एक मित्र को पकड़ा दिया ,शाम को कमरे पर आने पर वह लिफाफा मुझे हस्तगत हुआ ,खोलने के बाद क्या देखता हूँ कि अरे यह तो मेरा चयन पत्र है और मुझे शीघ्र ही स्नातकोत्तर कृषि महाविद्यालय राठ में योगदान देना है .
    यह पत्र मेरे जीवन का पहला चयन पत्र था जिसकी ख़ुशी की कोई सीमा नहीं थी इस ख़ुशी ने मुझे सारी रात  सोने नहीं दिया ,वह इसलिए भी कि मुझे नौकरी की सख्त आवश्यकता थी ,कारण मेरा विवाह हो चुका था और मेरी एक बेटी भी थी जो डेढ़ साल की हो चुकी थी ,परेशानियों को वयां नहीं कर सकता . अलग परिवेश से आई हुई पत्नी ने भरसक चार साल की अवधि में परिवार में अपने आप को सामंजस्य बिठाने की भरप़ूर कोशिश की थी , मुझपे उसने अपनी परेशानियों की आँच इन चार सालों में कभी नहीं आने दी थी ,पर मैं ही उसके अभाव और परेशानी को नजरअंदाज नहीं कर पाता था ,मैं  उसकी हर स्थिति से वाकिफ था कष्ट भी होता था ,पर मैं बेरोजगार था ,इसलिए परिवार का अवलम्बन ही एकमात्र सहारा था चाहकर भी पत्नी और बेटी को ज़माने की ख़ुशी नहीं दे सकता था .
    दूसरे दिन यह सोचकर कि अपना शोध कार्य शिघ्राति शीघ्र पूरा करूँ और राठ जाकर अपनी सेवाएं दूँ ,इसी परिप्रेक्ष्य में मैंने राठ महाविद्यालय में अपनी स्वीकृति हेतु पत्र भेज दिया ,तत्पश्चात महाविद्यालय से एक पत्र  प्राप्त हुआ जिसमें मुझे अगले एक माह में सेवा देने हेतु निर्देशित किया गया था ,अतः मैंने एक माह में अपनी पी.एच.डी . थीसिस पूरी करने की योजना बनाई ,और एक माह में थीसिस सबमिट भी कर दी ,अगले पड़ाव के लिए शुक्रवार के दिन विश्व विद्यालय से यह सोचकर निकला कि शनिवार को ज्वाईन कर लूंगा ,इस प्रकार शुक्रवार की रात्रि कानपुर कृषि विश्व विद्यालय के छात्रावास में एक मित्र  के कमरे में रात्रि व्यतीत किया ,मित्र ने अपने किसी अन्य मित्र  को, जो कि राठ महाविद्यालय के अध्यापक थे ,उनके नाम एक पत्र देकर कहा कि कोई बात होगी तो इनसे सम्पर्क करना . अगले दिन शनिवार को राठ के लिए कानपुर से प्रस्थान किया . सफर में भीषण ठण्ड का सामना करना पड़ा ,एक जर्जर स्वेटर के अतिरिक्त मेरे पास और कोई गर्म कपड़ा नहीं था ,मैं कंपकपाती ठंड में बस द्वारा राठ शाम को पंहुँचा . वहाँ पहुँचते पहुँचते शाम के पांच बज गए ,और उस दिन ज्वाईनिंग नहीं हो पाई . महाविद्यालय में एक प्राध्यापक वर्मा जी जो कि परिसर में ही रहते थे ,बोले यहाँ पर इधर उधर सुरक्षित नहीं है ,यदि कोई परिचित हो तो उसके यहाँ ठहर जाईये और सोमवार को ज्वाईन करिये . मैं उस रात उसी मित्र के यहाँ ठहरा जिसके नाम कानपुर वाले मित्र ने पत्र लिखा था ,इस प्रकार मेरी ज्वाईनिंग सोमवार को ही हो पाई .
  ज्वाईन करने पर मेरा वहां बिल्कुल मन नहीं लग रहा था कारण विश्व विद्यालय और छात्रावास जीवन से  निकल कर एकदम भिन्न परिवेश में अपने को समायोजित करने में कठिनाई महसूस हो रही थी। कुछ दिनों के पश्चात् जब दो दिन का वेतन मिला तो अपने लिए एक ऊनी चद्दर ख़रीदा ,जिसकी ठिठुरती हुयी ठण्ड में मुझे सख्त आवश्यकता थी इससे अधिक पैसा नहीं था कि कुछ और खरीद सकूँ,पास कुछ भी नहीं था,वेतन एक चद्दर में ही तमाम हो गया। एक महिना किसी तरह व्यतीत करने के बाद मन इतना ज्यादा उचटा कि एक दिन बिना किसी को कुछ बताये एक मित्र जो राजेन्द्र कृषि विश्व विद्यालय में सहायक प्राध्यापक के पद पर कुछ माह पूर्व ही ज्वाईन किये थे ,उनके यहाँ पूसा विहार चला गया। वहां जाने पर उसी दिन एक आश्चर्य जनक इत्तफाक हुआ ,और वह इत्तफाक था उसी विश्व विद्यालय में सहायक प्राध्यापक पद पर मेरे लिए नियुक्ति पत्र का लिफाफा। यह अचंभित करने वाला वाकया था ,क्योंकि इसका साक्षात्कार लगभग आठ माह पूर्व मैंने दिया था जिसकी उम्मीद सिरे से छोड़ चुका था। यह जादुई चमत्कार मेरी अपार प्रसन्नता का द्योतक था ,मेरे अभिलाषाओं की महान पूर्ति थी ,क्योंकि राठ में मेरा बिल्कुल भी मन नहीं रम रहा था ,इस प्रकार मैं बिना कुछ सोचे समझे वहां पर ज्वाईन कर लिया ,मेरी नियुक्ति विश्व विद्यालय के मूख्य परिसर में ही हुई थी मित्र मंडली कि अपेक्षा मेरा चयन देर से हुआ था पर दुरुस्त हुआ था ,कारण मुझसे पहले जिन मित्रों का चयन हुआ था वह सुदूर अंचलों में कठिनाई भरे वातावरण में हुआ था।
   ज्वाईन करने के दो चार दिन बाद मैं पूनः राठ गया अपना सामान वगैरह लाने के लिए ,सामानों की फेहरिस्त कुछ ज्यादा तो नहीं थी ,हाँ दूसरे महीने की सेलरी से पत्नी और बेटी को घर से लाने के लिए गृहस्थी का जो थोड़ा बहुत जरुरी सामान ख़रीदा था वही था ,क्योंकि अब इससे अधिक उन दोनों को तकलीफ में नहीं देखना चाहता था और राठ से यह सोचकर ही निकला विहार के लिए कि मित्र से मुलाकात कर सीधा घर चला जाऊंगा। वहां पहुँच कर मैंने अपने प्राचार्य को अपनी नयी ज्वाईनिंग के विषय में बताया ,प्राचार्य महोदय बहुत ही अच्छे इन्सान थे , मेरी इस अपरिपक्व हरकत पर उन्होंने मुझे नौकरी की बारीकियों के विषय में बताया और समझाया ,और मुझसे बोले बिना एक जगह विमुक्त हुए दूसरी जगह ज्वाईन नहीं करते हैं ,ऐसा करना अपराध है ,कहा ठीक है इस समय तो आपने ऐसा कर लिया पर जीवन में ऐसी नासमझ हरकत नहीं दुहराईयेगा ,उन्होंने मुझसे एक महीने पहले की तारीख में एक त्याग पत्र  लिखवाया और उसे प्रबन्ध समिति से स्वीकृत भी करवाया। इस तरह उन्होंने किसी भी तरह का मेरा फाईनेंशियल नुकसान नहीं होने दिया ,जबकि वह चाहते तो एक महीने का वेतन रुकवा सकते थे ,मेरी दोनों जगह की नौकरी खतरे में डाल सकते थे। खैर मैं वहाँ से अपना सामान लेकर वापस आया और ईश्वर को धन्यवाद दिया जिन्होंने ऐसे महान व्यक्तित्व वाले इन्सान के सानिध्य में रहने का अवसर प्रदान किया था ,अन्यथा मैं भारी विपत्ति का शिकार हो सकता था।
     राठ में प्रवास के दौरान ही एक रोचक घटना सुनने को मिली ,वहां पर एक इन्टर मीडिएट कालेज है जिसमें एक सिंह साहब जो कि वहां पर अध्यापक थे ,अपनी बहन की शादी समारोह में मुझे आमंत्रित किये थे ,मैं उसमें सम्मिलित भी हुआ था । अपरिचित होते हुए भी बाद में सिंह साहब मेरे काफी शुभ चिन्तक हो गए थे ,उन्होंने ही वह रोचक दास्ताँ सुनाई थी , बोले अरे आप जानते हैं ,आपके ज्वाईनिंग के समय हम लोग आपका अपहरण करने वाले थे ,अच्छा हुआ जो आप नहीं मिले ,अन्यथा आपका अपहरण कर आपको एक महीने के बाद छोड़ा जाता ,ताकि एक महीने की ज्वाईनिंग की अवधि ख़त्म हो जाये और आप ज्वाईन ना कर पाएं ,और उन्होंने पूरी कहानी बताई कि राठ के एक प्रतिष्ठित ब्राम्हण परिवार के एक व्यक्ति जो कि इसी पद के दावेदार थे ,पर चयन ना हो पाने के कारण आपके अपहरण का ताना-बाना बुना गया ,एक बात और ,उसी क्रम में मेरे बारे में यह अफवाह भी फैलाई गयी कि मैं पिछड़ा वर्ग से आता हूँ चूँकि महाविद्यालय का प्रबन्ध भी पिछड़े वर्ग के लोगों द्वारा ही संचालित होता है ,और इसी कारण महा विद्यालय के प्रबन्ध समिति ने मेरा चयन करवाया है।        मुझे उस वर्मा जी की बात याद हो आई जिन्होंने मुझे परिसर में मिलने के बाद शायद इन्हीं सब बातों के लिए आगाह किया था कि किसी से मिलिएगा नहीं और ना ही किसी के यहाँ जाईयेगा ,सीधे परसों यानि सोमवार को ज्वाईन करियेगा। मुझे ईश्वर हर कठिनाईयों से उबार लेते हैं। उस वैवाहिक समारोह से जब मैं वापस आया तो इस षड्यंत्र के विषय में सोच सोचकर सिहर उठता कि अनजाने में ना जाने मेरा क्या हश्र हो जाता। वह जगह भी तो काफी खतरनाक है ,यद्यपि राठ छोड़ते वक्त वही लोग हमारे परम शुभ चिन्तक हो गए थे। अपने जीवन की घटनाओं की दास्तान तो बहुत लम्बी है जिसको लिखने में कागज भी शायद कम पड़ जाये ,मुझे हर चीज मिली पर लम्बे संघर्ष के बाद और वह संघर्ष इतना असहनीय कि लगता अब अवसर हाथ से निकल गया ,लेकिन ईश्वर पर अपने भरोसे को कायम रखना नहीं छोड़ता ,मेरे धैर्य की परीक्षाओं के साथ-साथ भगवान ने मुझे एक अच्छी सौगात भी दी हैं अनमोल सुख की नींद। इस अमूल्य निधि के आगोश में जाकर क्षण भर में ही ऐसा निर्लिप्त हो सो जाता हूँ कि इससे पहले की सारी म्लानता भूल जाता हूँ। मैं प्रायः सुनता हूँ कि लोगों को कठिनाईयों में भरपूर नींद नहीं आती ,पर मेरे साथ इससे इतर कुछ और ही है मुझे प्रसन्नता में नींद नहीं आती। जीवन में दो वाकये ऐसे हुए जिसमें मुझे सारी-सारी रात नींद नहीं आई , और वे दोनों क्षण थे एक हाई स्कूल में पहले वर्ष की असफलता के बाद दूसरे वर्ष में अप्रत्याशित रूप से विद्यालय में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन होने पर तथा दूसरी जीवन की पहली नौकरी की नियुक्ति पत्र मिलने पर। ये दोनों ही खुशियाँ मेरे नैराश्य जीवन को गति और उर्जा प्रदान की हैं ,उत्साह और उमंग से तरोताजा की हैं ,परिश्रम करने की प्रेरणा दी हैं।
    जिनकी खुशियों के लिए मैं व्यग्र और चिंतित रहता था ,पुनः नयी नियुक्ति के कारण  बिलम्ब हुआ और उनकी कठिनाईयों में फिर से छः महिने की कठिनाईयाँ जुड़ गयीं। छः माह बितते-बिताते मकान मिलने पर घर से परिवार [पत्नी और बेटी ]लाया। उन चार सालों के अभाव को पाटने के लिए मैंने हर संभव प्रयास किया ,सुरुचि पूर्ण जीवन शैली को संवारने में पत्नी की सहभागिता ने भी मुख्य भूमिका निभाई । मेरा विहार प्रवास बहुत ही सूखमय और यादगार रहा है , वहां के परिवेश में स्वयं को काफी स्फूर्तिवान महसूस किया। आज भी कभी-कभी अपहरण वाली कहानी स्मरण हो आती है ,सोचता हूँ यदि कोई अनहोनी हो जाती तो मेरी उन जिम्मेदारियों का क्या होता जिनके जीवन में मेरे सिवा कोई मजबूत स्तम्भ या आसरा नहीं था। जिंदगी का इतना लम्बा अरसा गुजर जाने के बाद भी नियुक्ति का अनोखा उपहार, पहली नौकरी की सौगात ,ईश्वर की दी हुई विषम परिस्थितियों में बख्शीश नहीं भूलता। पत्नी,बेटी की पढ़ाई के दौरान ही जिम्मेदारियों के अहसास ने काफी बेचैन किया। अपनी अस्मर्थ सामर्थ्य के कारण ही परिवार वालों के आदेश और आग्रह की अवहेलना नहीं कर पाया था और विवाह की सहमति देनी पड़ी थी इसीलिए ऐसी परिस्थितियों का कारण बना ,हृदय के करीब रहने वाले चेहरे पर छाई हुई मलिनता का दंश सहन नहीं हो पाता था।
      यह कहानी किसी के लिए भी शिक्षा प्रद हो सकती है ,जब तक पैरों पर खड़े न हो जाओ किसी तरह के दबाव में ना आओ , वैवाहिक बंधन को दर्द ,तिरस्कार ,हीनभावना और उपेक्षाओं का शिकार ना होने दो। परिवार चाहे जितना सम्पन्न हो निजी सपनों को कोई संवार नहीं सकता।
   
                                                                                                      शैल सिंह
       

शनिवार, 27 जुलाई 2013

बेटियाँ घर की रौनक

       बेटियाँ घर की रौनक

जिस घर में सुता जैसी रत्ना ना हो
जिस घर में धिया जैसी गहना ना हो
उस चमन का कोई पुष्प पावन नहीं
जिसे अनमोल ऐसी नियामत मिली
उस सा भाग्यवान धनवान कोई नहीं …।

दहेज़ की सूली चढ़ती बहू बेटियाँ
मारी जातीं अजन्मीं केवल बेटियाँ
अंकुशों की हजार पांवों में बेड़ियाँ
जिस आँचल अनादर तेरा हो परी
कभी आँगन ना गूँजे उस किलकारियाँ …।
जिस घर …।

मानती हूँ कि धन तूं पराई सही
रौनकें भी तो तुझसे ही आईं परी
बजी दहलीज़ तुझसे शहनाई परी
अपने बाबुल के आँखों की पुतली है तूं
भैया के कलाई की रेशमी सुतली है तूं
जिस घर …।

मेरे जिस्म की अंश तूं मेरी जान
मेरे अंगने की तुलसी तूं मेरी जान
मेरे बगिया की बुलबुल तूं मेरी जान
तुझसे ही चहकता घर आँगन मेरा
तेरे अस्तित्व से घर की पावन धरा
जिस घर …।  

गुरुवार, 25 जुलाई 2013

''भावना''

                ,

जिसे महसूस कर समझना मुश्किल हो 
उसके लिए शब्द कैसे तलाशूँ ?
वारिश की बूंदों में जिसे तलाशती हूँ 
उसका पता किससे पाऊँ ....। 
वो तो खुद धरती से टकरा कर 
कतरों में बिखर जाती हैं
अपना ही मुकाम ना पहचानने वाली 
धड़कनों के भरोसे ,किस रस्ते चलूँ 
और मंजिल की उम्मीद कैसे बंधाऊँ । 
बस बेतरतीब सी जिंदगी की नाउम्मिदियों में 
वो हलकी सी चमक खोज रही हूँ …।
जिसकी पल भर की रोशनी में 
अगली गली में पड़ते पड़ाव को पहचान सकूँ .
कहानियां तो बेहिसाब हैं 
बस उनके अनंत ओर-छोर से हिस्सा काट लूँ 
तो सफेद पन्ने पर स्याही का दाग लगाऊं,
बिखरे ख्यालों को समेट भर लूँ 
किसी किस्से के बंधन में या भरने दूँ 
उन्हें उनकी साँसों में 
खुले आकाश की असीमित रंगीनियाँ ? 
बस उकेरती रहूँ यहाँ-वहां पन्नों पर 
कभी यूँ ही फिसल पड़े मन के उलझे भंवर ,
फिर इंतजार करूँ फुर्सत के लम्हों का
जब बैठ समेट सकूँ एक तान की लड़ी में सारा,सब । 
नए पुराने खतों पर लिख छोड़ा था धूल फांकने को ....
अब कैसे पहचानूँ कौन कतरन कहाँ 
जोड कहानी की तस्वीर पूरी होगी।
बादलों के शोर में कभी भूले से 
किसी गीत की गूंज आती है तो 
कहीं बिसरे अपने ही बुने किसी संगीत की लय 
मिल जाती है कौंध जाता है पिछला कोई राग 
खुद से सजाया हुआ। जैसे तान बना, 
बुन'ने वाले के पास कम पड़  गए थे धागे,
चुरा लिया मेरे अंतर्मन की धुनें 
बिखेर दिया प्रकृति की हर छटा में 
टुकड़ा-टुकड़ा कर, मुझमें पनपा 
और मुझसे उपजा है सृष्टि का रंग।
बस उस चोर को रंगे हाथों पकड़ने की 
उम्मीद में बैठी हूँ खुद से सब कुछ छिनता हुआ 
देख भी जिस रोज हाथ आएगा वो  
कर लुंगी सारा हिसाब और छीन लूंगी 
खोया भुलाया सपनों का घरौंदा।
वे टुकड़े हैं मेरी हस्ती का,
बरस दर बरस चढ़ती उम्र की चादर हैं वे संवेदनाएं ...
ढकती छिपाती तो कभी बेपरदा करती 
मेरी हकीकत को मेरे आज को 
मेरे बीते और आते हुए कल से ।
एक कहानी बुनी थी बरसों पहले,
फिर सिरे खुले,छूटे तो उधड़ने लगे 
आगे जाकर बांध पन्ने से पहले 
धागे ख़तम हो चले थे ख्यालों के ।    

मंगलवार, 23 जुलाई 2013

''उस हिस्से की एक कड़ी मैं भी''

        ''उस हिस्से की एक कड़ी मैं भी''


घर के सभी लोग गमगीन माहौल में छत पर धूप में बैठे थे सर्दियों का दिन था .दरवाजे की घंटी बजी तो भतीजे मनु से दीदी ने कहा जा देख कौन आया है . मनु दरवाजा खोलकर जब ऊपर आया ,साथ में आने वाला मेहमान भी ऊपर आ गया। देखा सामने विवेक भैया खड़े हैं .अम्मा के मरने की खबर सुनकर विवेक भैया मेरे घर आये थे। उस वक्त मैं भी वहां मौजूद थी। वह अकेले नहीं आये थे साथ में उनका बेटा भी था,मुझे देखकर उन्होंने बेटे से कहा था बेटा बुआ का पैर छूकर आशीर्वाद ले ये तेरी बुआ हैं। मैं विवेक भैया को बहुत लम्बे अंतराल के बाद देखी थी,वैसे मिले तो वो थे अपनी चिर परिचित अंदाज में ही पर मुझे ही कहीं से एक कोना खाली-खाली सा प्रतीत हुआ था, जिसमें अतीत की ना जाने कितनी झलकियाँ थीं। आज उन्हें इस रूप में देखकर मेरा पन्द्रह साल पीछे जाना लाजिमीं ही था।
    इन पंद्रह सालों में क्या हुआ मुझे नहीं मालूम,जब इतने बड़े बेटे के साथ उन्हें देखी तो यही अंदाज लगायी की जरुर इनका व्याह उसी दरम्यान हुआ होगा जब मैं अपने व्याह के चार साल बाद यह जगह छोड़ी थी। उड़ती-उड़ती खबरें कुछ जरुर सुनी थीं। विवेक भैया के व्याह के समय मैं उस शहर में नहीं थी इसीलिए क्या-क्या प्रतिक्रयायें हुईं अनभिज्ञ रही। उनके उस प्यार का क्या हश्र हुआ जिसके कारण चर्चा का विषय हुआ करते थे। यह सब जानने की इच्छा बलवती जरुर हुई,पर कुरेदना ठीक नहीं लगा,वैसे भी अपने अतीत को याद कर वर्तमान को कोई दुखी नहीं करना चाहता,चाहे वह रात की तन्हाईयों में जिंदगी भर अपने प्यार के लिए भटकता रहे । जिस अतीत का अस्तित्व तक मिटा दिया गया हो,अब उसकी क्या अहमियत, पर भैया को देखकर तरस बहुत आया था,क्योंकि उनके अटूट प्रेम प्रसंग के अन्तरंग पहलुओं से मैं भलीभांति वाकिफ थी। कहीं से लगता ही नहीं था कि ये दोनों कभी एक दुसरे से जुदा भी होंगें। जरुर कोई विस्फोटक वाकया हुआ होगा वरना यह असंभव था दोनों को एक बंधन से अलग करना। मैं क्या साथ का हर कोई जानता था कि वे दोनों एक जान दो शरीर थे। निम्मों की शादी के समय भैया के सीने पर कितना गहरा वज्रपात हुआ होगा,अनुमान लगाना कठिन है। कैसे सहा होगा घर के सामने से ही दुल्हे का घोड़ी पर चढ़ कर आना और निम्मो की विदाई की वह घड़ी .पर उस महरूम घड़ी को भी तो देखना उनके नसीब ने छीन लिया था , यह नहीं देखने के लिए ही तो उन्हें वहां से हटा दिया गया था दूसरे शहर .
    हाँ एक बार छुट्टियों में जब घर आई थी तो उनके घर अवश्य गयी थी आंटी अंकल  से मिलने। उस समय भैया घर पर नहीं थे,थे तो उनके छोटे-छोटे दो बेटे और आंटी अंकल,साथ में घर की उदासी। पहले सी वो वाली रौनक नहीं दिखी ,जिस रौनक के वशीभूत हम सभी उनके घर खींचे चले जाया करते थे। शायद मन को मारकर यह रिश्ता कायम किया गया था जिसको निबाहना अब जीवन की जरुरत बन गयी थी। जब हम सब सहेलियाँ विद्यार्थी जीवन में विवेक भैया के घर जाया करती थीं कितना आनंद आता था,जब भैया घर में होते थे उनके चटपटे कारनामों के बीच कब समय फुर्र हो जाता था शायद घड़ी की सूई ही घर जाने की याद दिलाती थी। आंटी ने ही बताया था ये दोनों विवेक के बच्चे हैं अंकल उन दोनों को पढ़ा रहे थे,भाव शून्य। विवेक भैया की प्रसन्नचित वाली गतिविधियाँ ना के बराबर थीं,इसीलिए वहाँ  के माहौल में पहले सी गर्मजोशी नहीं दिखी। बच्चों को देखकर कहीं से नहीं लगा की ये विवेक भैया के अपने बच्चे हैं कारण शक्ल सूरत काफी हद तक अपनी माँ पर गए थे। जब मैं उनके घर गयी थी भाभी अपने मायके बनारस गयी हुई थीं,देखा तो बस शादी का एलबम,जिसमें भाभी की तस्वीर देखकर अनायास ही तुलनाओं के कगार पर खड़ी हो गयी। कहाँ विवेक भैया कहाँ उनकी बेमेल जोड़ी। भैया जितने ही लम्बे,आकर्षक व्यक्तित्व वाले भाभी उतनी ही ठिगनी,बे डील डौल साधारण नैन नक्श वाली।घर के वातावरण को देखकर साफ जाहिर हो रहा था कि यह स्थिति समय के मारे हुए आघात का एक कोना है। खैर ......
   जिंदगी की गाड़ी किसी ना किसी रूप में तो खींचनी ही होती है सो ख़ुशी से ना सही मजबूरी में ही विवेक भैया का विवाह बन्धन में बंधना समय की मांग थी। आखिर कहाँ तक घिसटते हुए अतीत के सहारे जिंदगी का लम्बा सफर तय किया जा सकता है। मैं तो उनके बीते हुए खुशहाल और चहकते हुए लम्हों की गवाह थी .भैया को निम्मों से बेहद प्यार था .निम्मों उनकी बड़ी भाभी की छोटी बहन थी।निम्मो बहुत ही रईस खानदान से ताल्लुक रखती थी .बड़ी बहन की शादी बड़े भैया से उनका खर खानदान देखकर नहीं हुआ था बल्कि बड़े भाई की योग्यता पर हुआ था वह अमेरिका में किसी ऊँचे पद पर कार्यरत थे .विवेक भैया पढ़ाई में फिसड्डी थे सुबह शाम तफरी करना ,मौज मस्ती करना यही उनकी दिनचर्या थी .बड़ी भाभी उनकी कारगुजारियों से नाखुश रहती थीं .एक बार बड़ी भाभी के घर कोई फंक्शन था वह अमेरिका से आईं हुईं थीं ,उसी समय विवेक भैया का हाई स्कूल का परीक्षा परिणाम आया था ,वह भी थर्ड डिविजन से पास हुए थे,एक ही क्लास में तीन साल फेल होने के बाद ऐसा नतीजा आया था।ख़ुशी ख़ुशी दौड़कर अपनी भाभी के घर खुश खबरी सुनाने गए ,दोनों के घर आसपास ही थे .भाभी तो वैसे ही खार खाई हुई रहतीं थीं ,सो उन्होंने बधाई के दो शब्द ना बोल कर भरे मेहमानों के बीच उनकी बहुत ही खिंचाई और बेइज्जती कर दी थी .
    छाती पर साँप लोटने जैसा दंश उन्होंने महसूस किया था उस समय विवेक भैया ने निम्मो से प्यार का नाटक बड़ी भाभी द्वारा बेइज्जती का बदला लेने के मकसद से किया था .तब निम्मो आठवीं की छात्रा थी .उनकी आकर्षक सुगठित देह ईश्वर की देन थी उस पर से फैशन की पराकाष्ठा ,ऊपरी व्यक्तित्व खुद का बनाया हुआ ,कोई भी आकर्षण में बंध जाये .अपनी इसी पर्सनैलिटी को उन्होंने भुनाया था अपने अहं की तुष्टिकरण के लिए उन्होंने निम्मो के भोलेपन का फायदा उठाया था .उन्होंने ठान लिया था कि इनकी बहन को बर्बाद करके ही छोडूंगा ,पर हुआ उल्टा ,इस बदले की भावना में दिन पर दिन दुनिया से बेखबर प्यार इतना परवान चढ़ा कि दोनों का एक दूसरे के बिना रहना नामुमकिन सा हो गया .प्यार के इस गुपचुप खेल ने इतनी ऊँची पेंग बढ़ाईं कि पीछे लौटना बहुत बड़ी नाइंसाफी लगने लगी कारण रिश्ते की मर्यादाएं टूट चुकी थीं .निम्मो के घर वालों को तो इसकी भनक तक नहीं थी .रिश्तेदारी होने के नाते शक की कोई गुंजाईश जो नहीं थी .घर का पासपास होना अपने आप में सुविधा मुहैया कराती .छिप छिपाकर मिलने में कोई अड़चन नहीं आती थी .विवेक भैया ने अपना कमरा भी ऐसा चुना था कि कभी कोई उन दोनों को रंगे हाथ नहीं पकड़ सकता था  .घर के मूख्य द्वार वाला कमरा उन्होंने अपना बना लिया था .रात के अँधेरे में निम्मो चुपके से घर के सभी सदस्यों के सो जाने के बाद आ जाती और मुँह अँधेरे चली जाती .ना जाने कितनी ही रातें उन दोनों ने एक दूसरे की सहमति से एक साथ गुजारीं थीं . मीठी-मीठी  प्यारी-प्यारी बातों को विवेक भैया ने रिकार्ड भी किया था ताकि हम सब विश्वास कर सकें ,उन्होंने टेप रिकार्ड ऑन कर अपने अन्तरंग प्रीत से सराबोर पलों के खुश्बू से हम सबको परिचित भी कराया था .यह दर्द उन्होंने तब हम लोगों से बयां किया था जब निम्मो हवेली जैसी घर की चहारदीवारी में कैद कर दी गयी थी उस पर से नौकरों का सख्त पहरा . घर से निम्मो का निकलना बिल्कुल ही बंद कर दिया गया था .निम्मो इन्हें और ये निम्मो की एक झलक पाने के लिए इतने आतुर और बेक़रार हो गये थे कि उनकी बढ़ी हुई दाढ़ी ,अस्त व्यस्त कपड़ों से उनकी दीवानगी का हाल साफ पता चलता ,यहाँ तक कि किसी के द्वारा भी अपनी सूचनाओं का आदान प्रदान नहीं कर सकते थे .पाबंदियों की मजबूत दीवारों में ही दबकर रह गईं दिल की जज्बातें और अहसास .शायद निम्मो के नजरबन्द होने के बाद वो दोनों आपस में नहीं मिल पाए ,शायद कड़ी निगरानी से पहले वाली मुलाकात ही उनकी आखिरी मुलाकात थी .
     उमर के चढ़ते हुए पायदान की नासमझी ने सारी सीमाएं तोड़ डालीं थीं .ये दोनों हदों के इतने पार थे कि कोई भी पहलू अछूता नहीं बचा था ,बचा था तो बस वैवाहिक रस्में .ये सब बातें हम दोस्तों को तब पता चलीं थीं जब निम्मो को सख्त पहरों और सख्त हिदायतों के बीच एक दुसरे की नज़रों से दूर कर दिया गया था ,और विवेक भैया दीवानों की तरह बेहाल और बेचैनी का शिकार हो गए थे ,उस समय निम्मो जी .जी .आई .सी .इन्टर मीडिएट की छात्रा थी और हम लोग दयानंद स्नातकोत्तर महाविद्यालय में ग्रेजुएशन की सेकेण्ड ईयर की पढ़ाई आरम्भ किये थे .कहते हैं ना कि जब पानी सर से ऊपर हो जाता हैं तो रहस्य छुपाना मुश्किल हो जाता है .और घर की बुराई सबसे पहले मोहल्ले वालों को और दुनिया को पता चलती हैं तथा पूरी तरह छीछालेदर के बाद घर वालों को .इज्ज़त के सामने पढाई भी आड़े नहीं आई कारण स्कूल के बहाने आये दिन दोनों का साथ साथ गुलछर्रे उड़ाना दुनिया वालों की निगाहों का कुतूहल बन गया था ,आखिर कब तक राज पर पर्दा पड़ा रहता ,उन दोनों की अंतरंगता के ऐसे भी वाकये आंटी ने बताये जिसे सुनकर यही उचित लगा था कि शादी ही इस तरह के वारदात का अंतिम विकल्प है .आंटी कहती थीं कि बेटे की ख़ुशी के लिए हमें कुछ नहीं चाहिए बस व्याह के नाम पर एक चुनरी में भी निम्मो को उसके परिवार वाले विवेक को सौंप दें हम स्वीकार कर लेंगे .चुपके से ढंके हुए लहजे में यह भी बताया था कि अब तक तो हमारा पोता इतना [जमीं से थोड़ा हाथ ऊपर उठाकर] बड़ा हुआ होता ,शायद ऐसा कई बार हुआ था .उन लोगों को यह भी विश्वास था कि रिश्तेदारी के नाते कोई व्यवधान नहीं आएगा .पर निम्मो के घर वालों को यह कत्तई मंजूर नहीं था कि बन ठन कर सड़क की खाक छानने वाले निहायत निठल्ले विवेक भैया को अपनी बेटी सौंपे देंवें .आखिर नामीं गिरामीं हस्ती वाले जो ठहरे।
    विवेक भैया के जीवन में उस समय ऐसे बवंडर आये जिसमें प्यार की बुनियाद ही ढह गयी ,कई वर्षों का संजोया सपना तहस नहस हो गया .दोनों घरों में दुश्मनी की दीवार खड़ी हो गई कभी ना पट सकने वाली गहरी खाई, जिसका हश्र  दोनों को आजीवन जुदाई का गहरा सदमा देने वाला साबित हुआ .यह वृतांत सूनकर तब काफी दुःख हुआ था .वो कहते हैं ना ईश्वर जो भी करता है अच्छे के लिए ही करता है .हो सकता है रईस खानदान की बेटी जिंदगी भर दर्द देती दूसरी इकलौती अनाकर्षक नैन नक्श वाली बेटी धनदौलत के साथ साथ शांति से घर की गाड़ी खींच रही है .वही विवेक भैया आज भी बेरोजगार हैं ,ठेकेदारी करके घर की नैया किसी तरह खे रहे हैं ,उन्हें आज नए अवतरण में देखकर हर्ष भी हुआ विषाद भी।हमारे ज़माने वाली धमक और ठसक नहीं दिखी उनमें .उनका निठल्ला पन ही उनको उनके प्यार से वंचित कर दिया .काश उस समय वह अपने करियर के विषय में सीरियस रहे होते और अपने बड़े भाई के समकक्ष खड़े हुए होते .रिश्तेदारी भी बरक़रार रहती और निम्मो भी हासिल हो जाती .
        ये सारी बातें भैया ने खुद ही हम सबसे साझा कीं थीं .मुझे आज भी याद है वो और उनके चार और दोस्त शहर के नामचीन चर्चित चेहरों में शामिल हुआ करते थे .जिधर से गुजरते सड़कें गुलजार हो जातीं .उस समय हम लोग भी उम्र के उस दहलीज पर थे जहाँ ये सब अच्छा लगता था .छुट्टी के समय जब लड़कियों का झुण्ड स्कूल से बाहर निकलता ये सभी दोस्त फब्तियाँ  कसने से बाज नहीं आते थे .लेकिन एक बात जरुर थी कि मैं जब उस ग्रुप में होती भैया चुपके से खिसक लेते .ऐसा नहीं था कि उन्होंने मुझे कभी कमेन्ट पास नहीं किया था .तब वो मुझे जानते नहीं थे दरअसल मेरे अपने बड़े भैया के वह जूनियर थे .जान लेने के बाद बहन का दर्जा उन्होंने  तथा उनके दोस्तों ने भर पूर दिया ,क्या मजाल कोई मुझे कुछ कह दे .एक बार तो उन्होंने मेरे लिए कालेज में फसाद भी कर लिया था ,शायद लाइब्रेरी जाते समय किसी ने कुछ फिकरा कस दिया था मुझे तो नहीं पता चला था पर उन्होंने सुन लिया था और जमकर धुनाई किया था .उनकी पैनी निगाह मुझपर रहती और पीछा करने वालों पर भी .मुझे भी गर्व होता मैं कितनी खास हो गयी हूँ .
    उसी समय की बात है एक रोज मैं और मेरी सहेली पद्मा कालेज से घर जा रहे थे एकाएक विवेक भैया साईकिल रोककर गिड़गिडाते हुए सामने खड़े हो गए .कहने लगे श्यामला बहिनी मेरा एक छोटा सा काम कर दे तेरा यह एहसान जिंदगी भर नहीं भूलूंगा .वो मुझे बहिनी ही कहा करते थे .मैं हक्का बक्का उनका मुँह देखने लगी,कारण उस समय सड़क पर किसी लड़के से खुल्लम खुल्ला बात करना चर्चा का विषय बन जाता था ,फिर भी मैं उनकी याचना के आगे नत हो गई ,पूछी क्या बात है भैया आप इतनी हड़बड़ी में क्यों हैं ,उन्होंने पाकेट से एक कागज का पुलिंदा निकाला और मुझे पकड़ाते हुए कहा बहिनी किसी भी हांल में इसे निम्मो तक पहुंचा दे बहुत बड़ा उपकार होगा .हम दोनों सहेलियां घर का रुख ना कर निम्मो के घर पहुँच गयीं ,जहाँ पर परिंदे को भी शक की निगाह से देखा जा रहा हो सीधा तो मिलना दूर ,निम्मो का नाम ले लेने पर ही हजारों सवाल ,पहले तो नौकरानियों से सामना हुआ ,फिर उनने घर की औरतों को बुलाया ,एक साथ दो तीन औरतें पधारीं ,जैसे कोई बहुत बड़ा हादसा हो गया हो ,निम्मो की निगहबानी में बारीक़ से बारीक़ संशयों को भी खंगाला जाता .सामने पड़ते ही इतने सवाल इतनी जिरह कि कंपकपाहट छुट गई .जब कि निम्मो को हम लोगों ने करीब से कभी देखा नहीं था ,देखा भी था तो बस एलबम में विवेक भैया के साथ हर पोज में तस्वीरों में,और वो तस्वीरें भी क्या माशाल्लाह जैसे फ़िल्म के किसी हीरो हिरोइनों सरीखी लाजवाब ,सचमुच उन दोनों के बीच की इतनी गहरी नजदीकीयों को देखकर यही दिल से दुआ निकली थी की इनका एकाकार होना ही वाजिब करें भगवान .
    हाँ तो निम्मो से मिलने वाली बात की चर्चा को आगे बढाती हूँ ,उसकी माँ और चाची ने हमारा पूरा निरीक्षण किया ,फिर पूछा निम्मो से क्या काम है ,हाथ की मुट्ठी बँधी ,चेहरे पर हवाईयां ,बस इतना ही निकला वो निम्मो बहुत दिनों से कालेज नहीं जा रही ना इसीलिए हम मिलने आये हैं , उनकी उपस्थिति में ही निम्मो बुलाई गई ,पत्रवाहक अपना काम कैसे करे ,असमंजस की स्थिति ,निम्मो भी भौंचक्की हम सब कौन ,हलके से आँख का इशारा .पूरी तरह आश्वस्त होकर माँ चाची तो चली गयीं पर काम करती हुई दो तीन कामवालियों  की मौजूदगी ,काम को अंजाम देना बहुत दुरूह था ,पलक झपकते ही अपनी मुट्ठी खोल निम्मो की मुट्ठी बंद कर बनावटी बातों का लच्छा,आजकल कालेज क्यूँ नहीं जा रही हो ,सारा माजरा उसकी भी समझ में आ गया. इस प्रकार मैं भी विवेक भैया के प्यार के लिए मध्यस्थता का काम कर किसी ना किसी रूप में उनके इस अधूरे प्यार की कड़ी जरुर रही ,उसके बाद क्या हुआ नहीं मालूम .लेकिन लगता है यह आखिरी सन्देश था ,निम्मो की तरफ से तो असंभव ही लगता है , इसका जवाब तो नहीं ही आया होगा ,उसका डाकिया कौन बनता .
     वी .ए .की पढाई समाप्त फिर बी .एड .करने के लिए अलग संस्थान में प्रवेश .साथ साथ एम .ए .में भी एडमिशन ले लिया था पुराने संस्थान में ही ,क्यों कि सेशन लेट था इसलिए दोनों डिग्रियाँ तीन साल में पूरी हो जातीं .सुचारू रूप से एम .ए .की क्लासेज मैंने नहीं कीं,इसीलिए विवेक भैया से फिर कभी आमना सामना नहीं हुआ .दोनों ही संस्थान विपरीत दिशा में थे ,वैसे भी बी .एड .की पढ़ाई में व्यस्तता थोड़ी ज्यादा ही थी  शिक्षा के दौरान ही शादी फिर ससुराल का चक्कर और दूसरी दुनिया का कोना .बहुत दिनों बाद पता चला कि निम्मो की शादी किसी बहुत बड़े घराने में इन्जीनियर लड़के के साथ हुई है ,शादी भी सख्त पहरों के चाक चौबन्द में ,पुलिस वालों की चारों तरफ घेराबंदी ,इसलिए कि विवेक भैया कोई बखेड़ा ना खड़ा कर सकें .इन सब स्थितियों से बचने बचाने के लिए ही उन्हें जबरन किसी दूसरे शहर भेज दिया गया था ,निम्मो के घर वाले बहुत ही शक्तिशाली और ऊँची पहुँच वाले थे ,अंकल आंटी का सहम जाना लाज़िमी ही था .घर में बड़े भैया भाभी का रोल उत्तरदायित्वों के नाम पर नगण्य था .जब धन बल का अभाव होता है तो इन्सान असहाय हो जाता है दिन रात साथ घुमने वाले दोस्त भी क्या कर सकते थे ,बाहुबलियों से जंग छेड़ना हर किसी के बस की बात नहीं होती .फिर भी विवेक भैया ने निम्मो को जीवन संगिनी बनाने की हर सम्भव कोशिश की थी .निम्मो के हाथ पीले हो गए थे .विवेक भैया लड़ते लड़ते शायद थक गए थे .जीवन में उदासी और मायूसी के आलावा कुछ शेष नहीं बचा था .शहर लौटने पर उनकी दुनिया वीरान हो चुकी थी ,जिंदगी के नाम पर सबसे हसीन चीज ही लुट   .
     गयी थी .आशा की हर किरण धुंधला चुकी थी ,निम्मो के सम्बन्ध में तो कुछ नहीं जान पाई ,हाँ यह अवश्य महसूस किया कि लड़कियों के त्याग समर्पण के पीछे कितना दर्द छिपा होता है ये तो उनकी अंतरात्मा ही जानती होगी .विवेक भैया की बदहाली तो सब लोग देखते रहे होंगे पर निम्मो की तड़पन और कराह तो पहरों की सख्त दीवारों से ही टकराकर रह गयी होंगी .आज निम्मो के लिए उसका पति ही सब कुछ होगा और विवेक भैया के जीवन में बे डील डौल आकर्षण विहीन पत्नी और अपने दो बच्चे ही सब कुछ होंगे . अतीत के बीते हुए पन्नों पर,लम्हों पर धूल की एक मोटी पर्त चढ़ गयी होगी ,पर उन यादों का क्या होता होगा जब वक्त बेवक्त बिजली की तरह कौंधती होंगी .एक ही मोहल्ले में रहते हुए ससुराल से आने पर करीबी रिश्तेदार होने के नाते पारिवारिक समारोहों में क्या विवेक भैया और निम्मो का आमना सामना नहीं होता होगा ,और यदि तुक से होता भी होगा तो उस घड़ी का अहसास कैसा होता होगा .इस तरह के प्रेम प्रकरण का किस्सा हमारे समय का ,मेरे जानने में शायद यह पहला था की प्रेम डगर पर कोई इतना आगे निकल गया हो जिसमें पीछे मुड़ कर देखना जिंदगी भर के लिए बे आवाज नासूर ही बचा रह गया हो .आज के जमाने के लिए यह कोई विशेष बात नहीं है ,आज का तो परिदृश्य ही पूरा का पूरा बदल गया है .कहीं-कहीं तो सख्तियों का आचरण भी चौंकाने वाला लगता है ,किसी को भी आज फूर्सत नहीं किसी के विषय में गहन छान बीन करने की ,मोबाईल ने सारी गोपनीयता हजम कर ली है , तभी तो आज मान सम्मान और प्रतिष्ठा के कुछ  मायने ही नहीं रह गए हैं।  हमारे समय में तो किसी मनचली का मामूली ख़त भी हंगामा और बवाल बरपा देता था ,इसीलिए विवेक भैया के आलावा इस तरह का प्रकरण संज्ञान में कभी नहीं आया था।
    विवेक भैया तो हंस बोलकर चाय पानी पीकर चले गए ,बेटा आशीर्वाद लेकर चला गया ,छोड़ गए तो मुझे उन सुनहरे पलों के गोतों पर जहाँ खुद उनके द्वारा साझा किये गए स्मृतियों के तमाम अम्बार थे .जिंदगी कैसे कैसे खेल खिलाती है ,क्या सारी सीमाएं लांघने के बाद भी पीछे मुड़ना आसान होता होगा ,ऐसा नहीं है कि निम्मो के घर वाले इन सब बातों से अनभिज्ञ थे ,सब कुछ जानने के बाद ही तो पाँव में जंजीरें डाल दी गयी थीं ,पर सुना तो था की विवेक भैया बिल्कुल ही टूट गए थे ,शायद उन्होंने खुद से तथा समय से समझौता किया होगा तभी तो भाभी मेरी नज़रों पर नहीं चढ़ीं थीं .और घर का वातावरण उलाहना दे रहा था।

                                                                                                                                            शैल सिंह
   

सोमवार, 15 जुलाई 2013

जिंदगी का अनछुआ कोना

                     कहानी 

                                      जिंदगी का अनछुआ कोना 


 जिंदगी के इस मुकाम पर आकर पीछे मुड़कर देखता हूँ तो जीवन के सारे घटनाक्रम जीवंत हो उठते हैं। बात वहीँ से शुरू करता हूँ जहाँ से मेरी जिंदगी ने इस कहानी का शक्ल अख्तियार किया है बात सुनने में भले ही विशेष ना लगे पर मेरे जीवन पर उस वक्त ने जो ख़ास छाप छोड़ी उन्हीं  लम्हों का तराशा हुआ एक हिस्सा हूँ । वर्तमान के व्यक्तित्व को देखकर कोई भी अंदाजा नहीं लगा सकता कि मैं भी कभी ऐसा उद्यंड रहा होऊंगा। मेरी प्राम्भिक आधारशिला को किन इंट गारों ने अपनी परवरिश में खड़ा किया उनके विषय में यदि चर्चा नहीं करूँगा तो समझिये उन योगदानों की तौहीनी होगी।
   मेरे अपने पिताजी का ऐसा विश्वास था कि जीवन में आगे बढ़ने के लिए शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम है ,शिक्षा ही एक ऐसा हथियार है जिससे जीवन में सब कुछ पाया जा सकता है ,और उन्होंने परिवार में शिक्षा के उन्नयन के लिए सामर्थ्य अनुसार जीतनी उनकी क्षमता थी ,कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ी।यूँ तो हमारा परिवार बहुत ही बड़ा तथा निम्न मध्यमवर्गीय संयुक्त परिवार था जहाँ पैसे का उपयोग उचित रूप से बहुत ही आवश्यक आवश्यकता के लिए ही हो पाता था। हमारे पिताजी चार भाई थे। बड़े पिताजी के बड़े पुत्र जो उम्र में मुझसे लगभग पाँच वर्ष बड़े थे। उनकी प्राम्भिक शिक्षा मेरे पिताजी जो कि प्राम्भिक विद्यालय में अध्यापक थे,उनके ही देख-रेख में हुई। मेरे पिताजी दूसरे नम्बर पर थे ,उनके अथक परिश्रम का असर मेरे बड़े भाई साहब के जीवन पर पड़ा या नहीं यह तो वही जानें,वैसे वह आज भारत सरकार में उच्च पद पर आसीन हैं, पर मैं तो यह अवश्य कहूँगा कि मेरी प्राथमिक शिक्षा पिताजी के सख्त अनुशासन से ही संभव हो पायी। पिताजी शिक्षा के प्रति बहुत ही गंभीर थे। लेकिन मेरी पढ़ाई लिखाई में बिल्कुल ही रूचि नहीं थी,इसके लिए मैं प्रायः रोज ही पिताजी के गुस्से का शिकार होता था और यह क्रम लगभग कक्षा पांचवीं तक चला। उस बाल मन की बात क्या बताऊँ तब यही सोचता था कि बड़ा होऊँगा तो मैं भी इनकी अच्छी खातिरदारी करूँगा। उसके बाद तो कक्षा छः में प्रवेश मिला और पिताजी के चंगुल से थोड़ा आजाद हुआ। इस आजादी में तो मैं पढ़ाई से बिल्कुल ही विमुख होने लगा कारण मेरा स्वभाव ही पढ़ने वाला नहीं था।मन उड़ा-उड़ा सा रहता ,पढ़ाई को गंभीरता से कभी लेता ही नहीं था।
   पिताजी की अत्यंत सख्ती कहें या बेमन से ही सही उनके द्वारा डाली गयी प्राम्भिक शिक्षा की मजबूत नींव,ने तो किसी तरह कक्षा आठ की गाड़ी खींच लिया,तत्पश्चात माध्यमिक शिक्षा हेतु लगभग चार किलोमीटर दूर स्थानीय बाजार में स्थित माध्यमिक विद्यालय में प्रवेश लिया,फिर तो पिताजी के कोपभाजन से बिल्कुल ही मुक्त हो गया तथा इस बीच उद्दंडता की सारी हदें पार करता रहा। यहाँ तक कि भूत प्रेतों का भय भी मुझे डरा नहीं सका। भयहीन होकर मैं रात-रात भर कभी-कभी आस-पास के गाँव में नौटंकी देखने जाया करता,पर हाँ पिताजी की मार का भय इतना था कि घर के सभी सदस्यों के सो जाने के बाद ही जाता और उन लोगों के प्रातः उठने से पहले ही आ जाता था और वो भी अकेला,कारण यदि किसी का साथ पकडूँगा तो भेद खुल जाएगा। पांव में जूता,चप्पल नहीं,साँप-बिच्छू का डर नहीं। आज जहाँ हूँ कभी-कभी सोचता हूँ क्या दादी के सूझबूझ के बिना यह सुनहरा अवसर सम्भव हो पाता,क्योंकि गाँव के वातावरण में मैं अपने को पढ़ने की ओर बिल्कुल ही उन्मुख नहीं कर पाता,चाहे पिताजी का डंडा कितना भी ऊपर बरसता। ये सब हरकतें दादी और पिताजी से छुपी नहीं थीं,बस पिताजी को इंतजार था तो दसवीं की परीक्षा फल का , कुढ़-कुढ़ कर पिताजी कोसते और धमकियां देते रहते थे,कहते आने दो रिजल्ट फिर हजामत बनाता हूँ। शायद उनको पहले से ही यह आभास था मेरा हव-भाव देखकर कि आगे जो भी होगा उनकी कल्पनाओं पर तुषारापात करेगा। वह शिक्षा के प्रति इतने दृढ़संकल्प थे कि इसके आगे उन्हें कुछ सुझता ही नहीं था घर के सभी बच्चों को शिक्षित करने के लिए स्वयं से ही इतने प्रतिबद्ध रहते थे कि शाम होते ही लालटेन और छड़ी लेकर बैठ जाते थे पढ़ाने ।
       मेरी दादी जी यद्यपि जो कि स्कूल के कभी दर्शन नहीं की थीं,शिक्षा के नाम पर ककहरा तक नहीं जानतीं थीं फिर भी वह अपने पोतों को पढ़ने लिखने के लिए बहुत प्रेरित करतीं थीं वह अपने पोतों के लिए बहुत ही समर्पित थीं और चाहतीं थीं कि मेरा घर गाँव,समाज में आगे बढ़े। घर की आर्थिक स्थिति बिल्कुल ही डांवाडोल थी। पिताजी की पीढ़ी ने अभावों में ही आँखें खोली थीं और इस स्थिति का दंश गाँव के रईस लोगों के मध्य उन्होंने कदम-कदम पर महसूस भी किया। इन लोगों के बचपन में ही दादाजी स्वर्ग सिधार गए थे। इस लड़खड़ाती हुई नैया का सारा बोझ बड़े पिताजी के कंधे पर आ पड़ा,तब उनकी आयु मात्र बीस,बाईस साल की रही होगी। उन्होंने अपने छोटे भाई-बहनों का भी उत्तरदायित्व बखूबी निभाया। बड़े पिताजी दादी को किसी देवी के समान पूजते थे,यदि दादी ने कुछ कह दिया तो समझिये वह उनके लिए ब्रम्हवाक्य हो जाता और दादी के उसी आदेश का मैं भी एक नमूना हूँ। मैंने अपने जीवन में कोई ऐसा वृतान्त नहीं देखा जहाँ बड़े पिताजी ने दादी की किसी बात की अवहेलना की हो। और यह माँ-बेटे के बीच का क्रम दोनों के जीवन पर्यन्त तक चला । दादी की मृत्यु के बाद बड़े पिताजी ने कहा भी था कि हम सबके जीवन में पिता का रोल भी माँ ने ही निभाया था।
   जो बात मैं कहना चाहता हूँ वो यहाँ से आरम्भ होती है। मेरे एक चाचा जो दिल्ली पुलिस में नौकरी करते थे औए गर्मीं की छुट्टियों में घर आये हुए थे। वह जब भी गाँव आते थे तो ससुराल अवश्य जाते थे उनकी ससुराल आजमगढ़ कस्बे के बगल में ही स्थित एक गाँव में थी और सौभाग्य से बड़े पिताजी की नियुक्ति भी आजमगढ़ कस्बे में ही थी।
    अब मैं असली मुद्दे पर आता हूँ। यहीं से मेरी जिंदगी का नया अध्याय शुरू होता है। मेरी दादी जो कि पिताजी के अतिशय कोपभाजन से मुझे बचाना चाहती थीं क्योंकि उन्हें भी मेरे लक्षण रंग-ढंग साफ दिखाई दे गए थे। चाचाजी घर से जब ससुराल के लिए निकले तो दादी ने उन्हें रोककर कहा कि इस नालायक शैतान [मैं] को भी लेते जाओ और बाबु [बड़े पिताजी] के पास छोड़ देना नहीं तो मास्टर,मेरे पिताजी को मास्टर नाम से ही लोग जानते थे, इसकी हड्डी-पसली एक कर देंगे।
  इस प्रकार एक जून उन्नीस सौ चौहत्तर को मुझसे मेरा घर दादी ने छुड़ा दिया।वहां जाकर भी मैं जीवन के प्रति गंभीर नहीं था।दादी की दूरदर्शिता से तो मैं बड़े पिताजी की सानिध्य में पहुँच गया। और वहां पहुँचने के बाद वह दिन आ ही गया जिसका मेरे पिताजी को बड़ी बेसब्री से इंतजार था,लेकिन मुझे तो दादी ने पिताजी की पहुँच से दूर कर दिया था,अंत में वही हुआ जिसका आंकलन पिताजी ने और सभी लोगों ने किया था। मुझे आज भी याद है नौ जून उन्नीस सौ चौहत्तर का वह दिन,जिस दिन हाई स्कूल का परीक्षा परिणाम आया था और मेरा प्रदर्शन बेहद ही ख़राब और निराशाजनक था। मैं तो अपनी करतूतों का गवाह था, पर बड़े भैया भी बेहद दुखी हुए थे। लेकिन यह क्या जैसे मुझसे कोई अदृश्य शक्ति कह रही हो उठो और भविष्य के प्रति सचेत हो जाओ। एकाएक उद्दंडता से शालीनता और पढ़ाई के प्रति गंभीरता कैसे आई ये तो ईश्वर ही जानें,पर मैंने उसी दिन से जी तोड़ मेहनत करने और आगे बढ़ने का वीणा उठा लिया और वहीँ रहकर पुनः लगभग एक महीने बाद आठ जुलाई उन्नीस सौ चौहत्तर को दसवीं में प्रवेश लिया।पढाई शुरू होने के साथ ही मैं पूरी लगन शीलता से स्वयं के प्रति तथा शिक्षा और शिक्षकों के प्रति पूर्ण समर्पित हो गया। मैं क्या से क्या हो गया,मुझे आज भी याद है कि शिक्षक सभी से कहते फिरते कि यह आश्चर्य जनक लगता हैं कि कैसे यह परीक्षा में असफल हुआ था,और यह आवाज मात्र एक महीने के परिश्रम का फल थी।पर मैं जानता हूँ कि पिताजी की डाली हुयी मजबूत नींव तथा बचपन में रोज ही पढ़ाई के लिए मार खाई गयी जबरदस्ती की थोपी हुयी,घुट्टी पिलाई हुयी शिक्षा का यह असर था।ठीक पांच महीने बाद अर्धवार्षिक परीक्षा हुई और मेरे अथक परिश्रम का परिणाम आँखों के सामने था । विद्यालय में प्रथम स्थान पाने का गौरव प्राप्त हुआ। परीक्षाफल की उत्तर पुस्तिकाएं घर ले जाने को मिलीं।बड़े पिताजी जो कि हर शनिवार को गाँव जाया करते थे दादी से मिलने एवं परिवार की देख-रेख के लिए,सो मेरी परीक्षाफल की कापी भी साथ लेते गए मेरे पिताजी को दिखाने के लिए।
   कुछ दिन के बाद मैं भी डरते-डरते गाँव गया,लेकिन पिताजी का बदला हुआ स्वरूप देखकर बहुत अच्छा लगा उन्होंने कुछ नहीं कहा ,बल्कि दादी भी बहुत प्रसन्न हुईं। मेरा पूरा व्यक्तित्व ही बदल चुका था,शायद मैं अब अपने लिए पढ़ने लगा था। इस प्रकार पुरे लगन और परिश्रम से मैंने पूरे विद्यालय में दसवीं में प्रथम श्रेणी में एवं प्रथम स्थान प्राप्त किया। जबकि प्रारम्भ में उस विद्यालय में प्रवेश के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़े थे। अब ये नौबत आ गयी थी कि शिक्षक अगली शिक्षा के लिए किसी दूसरे विद्यालय में प्रवेश के लिए जाने से रोकने लगे, कारण उस स्कूल के मेधावी छात्रों में मैं शूमार हो गया था। अंत में पुनः मैंने उसी विद्यालय में प्रवेश लिया।आगे चलकर इन्टर मिडिएट में भी मैं सर्वश्रेठ अंकों से उत्तीर्ण हुआ और पूरे स्कूल में अव्वल रहा। यद्यपि थोड़ी बहुत जो भी कामयाबी मिली उसमें परिवार के सभी सदस्यों का किसी ना किसी रूप में योगदान रहा। परन्तु दादी की दूरदर्शिता का आज भी मैं कायल हूँ कारण जिनके एकमात्र निर्णय से [मेरे पिताजी की मार से बचाने के लिए] मेरे जीवन की दिशा एवं दशा ही बदल गयी। ना वो  मुझे बड़े पिताजी के पास भेजतीं और ना ही मेरे दिमाग का कपाट खुलता। हालांकि सुधरने के बाद मैं कुछ और ही बनना चाहता था पर बन गया कुछ और। फिर भी अपने इस कर्म क्षेत्र से काफी संतुष्ट हूँ। ईश्वर ने जो भी किया वह अच्छा ही किया। जब मैं जीवन का विश्लेषण करता हूँ तो पाता हूँ कि आज जिस जगह पर खड़ा हूँ शायद यही जगह मेरे लिए उपयुक्त है,मेरे स्वभाव के अनुरूप है। मेरा पूरा जीवन ही संघर्षों भरा रहा है,मुझे आसानी से कोई भी चीज हासिल नहीं हुई। पर जो कुछ भी चाहा देर से सही वह मिला तो अवश्य।
    अपने जीवन के सेवा क्रम में विभिन्न पदों पर सेवा देते हुए तीन विश्वविद्यालयों में एवं वर्तमान में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के दूसरे संस्थान में विभागाध्यक्ष पद पर कार्यरत हूँ। एक गाँव के निहायत बिगड़ैल बालक से उठकर उत्थान के इस मोड़ पर आकर प्रायः दादी की तस्वीर के सामने अहर्निश खड़ा हो जाता हूँ और अश्रुपूरित नेत्रों से नमन करता हुआ निहारता हूँ। दादी अब इस दुनियां में नहीं हैं लेकिन उनकी लगायी हुई बाग़ हरी-भरी एवं लहलहा रही है। जिसे देखकर शायद वह स्वर्ग में भी खुश हो रही होंगीं। जर्जर और मेरुदंड विहीन स्थिति से उबरकर आज हमारा परिवार प्रतिष्ठा के जिस डगर पर अग्रसर हो रहा है उसका सारा श्रेय बड़े पिताजी एवं दादी को दूंगा,क्यों कि उन्हीं लोगों के त्याग और संरक्षण में इस घर की मान-मर्यादा को उचित आयाम मिला।परिवार के और लोगों के विषय में तो मैं नहीं जानता,लेकिन बड़े पिताजी मेरे आदर्श थे,हैं और आजीवन रहेंगे। मैं आज भी उन्हीं के आदर्शों का अनुपालन करता हूँ और करता रहूँगा। उनका स्मरण कर लेने मात्र से ही मुझे स्फूर्ति और उर्जा मिलती है। बड़े पिताजी ने अपने जीवन को शीशे की तरह पारदर्शी रखा। उनके पूरे जीवन की कार्यशैली ही प्रभावित करने वाली थी।उनकी बेदाग छवि और उनका कर्मठी व्यक्तित्व ही अपने आप में एक पहचान थी। वह कभी किसी की कृपा के मोहताज नहीं रहे।उनका अपना जीवन जीने का एक तरीका था। बहुत ही रिजर्व रहते थे,उनकी संगत का ही असर था कि हम लोगों पर किसी बाहरी अराजकता का कोई बुरा असर नहीं पड़ा।उनके अति सख्त अनुशासन में ही हम लोग आज निखर कर इस दहलीज पर पहुंचे हैं। दादी और बड़े पिताजी के विषय में बात करने पर बहुत गर्व महसूस होता है। बड़े पिताजी के पदचिन्हों पर चलना ही उनके प्रति मेरी सच्ची श्रद्धांजलि होगी । मुझे संतोष है कि उनके जीवन के अंतिम क्षणों में मैं उनके पास था। पता नहीं क्यों मुझे यह आभास होता है कि मैं उन्हें जितना चाहता था शायद वह भी मुझे उतना ही चाहते थे,तभी तो मरणासन्न अवस्था में भी उनके प्राण मेरे लिए अटके हुए थे। वैसे तो बीच-बीच में मैं कई बार उन्हें देखने गया था। अंतिम क्षणों में जब मैं उनके पास पहुंचा उन्होंने अबोले मूक ,मुझे जी भरकर देखा,तत्पश्चात उनके प्राण पखेरू उड़ गए। वहां मौजूद सभी लोगों ने यही कहा शायद मौत के करीब आकर भी तुम्हारा ही उन्हें इंतजार था। मैं आज जो भी हूँ उन्हीं की बदौलत हूँ यदि वह दादी का मान ना रखकर मुझे अपने पास रखने से इन्कार कर देते तो,अपनी अनुशासन की कठोर छत्र छाया से दूर कर देते तो,मैं गाँव का वही निठल्ला गया गुजरा इंसान ही हुआ होता।
   मैंने जितना करीब से उन्हें और उनके जीवन को देखा और जाना है शायद उनकी अपनी औलादें भी उतनी गहराई से उनके जीवन के मर्म को नहीं जानती और समझती होंगीं,कारण निज के माँ-पिताजी तथा घर के और सदस्यों के स्नेह एवं वात्सल्य से दूर मैं बड़े पिताजी के ही संसर्ग का आदी हो गया था। जीवन के एक पहलू से विमुख होकर [खेलना कूदना शरारतें कोई संगी साथी नहीं इत्यादि ] बस घर से स्कूल,स्कूल से घर।घर की चारदीवारी के आलावा बड़े पिताजी का सानिध्य और जी लगा कर एकाग्र होकर पढ़ना ,यही मेरी दिनचर्या थी। बहुत हुआ तो पास में स्थित एक मंदिर में चला जाया करता था और वहां के पुजारी के पास बैठकर भगवान को स्मरण करता। कहीं और ना जाकर यही एक ठिकाना था जहाँ मुझे असीम शांति मिलती थी। मैं घर परिवार की प्रतिष्ठा को बरकरार रखने का प्रयास जीवन पर्यन्त करता रहूँगा। दादी और बड़े पिताजी की स्मृतियाँ मुझे जीने की प्रेरणा देतीं हैं। मैं अपने बड़े पिताजी और दादी के मार्गदर्शन की चर्चा अपने दोनों बच्चों से भी करता हूँ,ताकि वह भी इससे प्रेरणा ले सकें। और बड़े पिताजी द्वारा मुझमें डाले गए आदर्श और संस्कार का अनुशरण कर सकें।
       मेरे अपने पिताजी ने भी हम घर के बच्चों को शिक्षित दीक्षित करने के लिए काफी त्याग किया। कभी अच्छा खाना पहनना उनके जीवन का शगल नहीं रहा था,था तो घर परिवार का स्तर ऊँचा करने की अकूत लालसा । वह कहा भी करते थे कि हम जीने के लिए खाते हैं,खाने के लिए नहीं जी रहे। आज वह भी हम सबकी तरक्की देखने के लिए इस दुनिया में नहीं हैं। मैं अपनी नौकरी के कारण हमेशा माँ पिताजी से दूर रहा। माँ जो कभी-कभी हम लोगों के दूर रहने के कारण अशांत हो जाती थीं तो पिताजी उन्हें सांत्वना देते,कि हम लोग तो पके आम हैं बच्चे सुखी रहें यही हम लोगों की कामना रहे।उनकी दी हुई प्राम्भिक शिक्षा ने पौधे की जड़ में खाद पानी का वह काम किया है कि इतने बड़े परिवार में आज कोई भी अशिक्षित और बेरोजगार नहीं हैं। गाँव के जिन बाबू साहब लोगों में हम लोगो की गिनती नगण्य थी आज वही लोग हमारे परिवार को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। अच्छी हैसियत और रसूख रखने वाले लोगों की स्थिति अब दयनीय और बदतर हो चली है।घर की दयनीय स्थिति होते हुए भी बड़े पिताजी और चाचाजी लोगों में कभी हीन भावना नहीं पनपी और ना ही हम सभी भाईयों में पनपने दीं। स्वाभिमान को किसी भी हालत में आड़े नहीं आने दिया। खुद निम्न श्रेणी का खा पहन कर हम लोगों को उच्च शिक्षा के लिए बाहर भेजा,हम लोगों को कभी कोई कमीं नहीं आने दी। दुःख है तो इस बात का कि विपन्नता में आँखें खोलने वाले आज हमारी सम्पन्नता और वर्तमान को देखने और भोगने वाली आँखें पञ्चतत्व में विलीन हो चुकीं हैं। रह-रह कर उन लोगों के दुःख भरे दिन मानस को कचोटते हैं। काश आज दादी जिन्दा होतीं,मैं उन्हें पलकों पर बिठाता ,आँखें भर आयीं। दादी अपना आशीर्वाद आने वाली पीढ़ियों पर भी बरकरार रखना।
        
                                                                             शैल सिंह
     

शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

पारदर्शी हो जीवन का हर रास्ता



करले पावन हृदय की गली ओ रे मानव
भाव निःस्वार्थ हो कर्म करते चलो ,श्रम करते चलो
मानवमात्र के कल्याण के लिए
लोक मंगल के भाव तिरोहित करो
पारदर्शी हो जीवन का हर रास्ता
सदाचारी बनो महानता के लिए
खुद का महिमा मंडन करो ना महानता के लिए
अत्याचार,अनाचार,अन्याय वास्ते
दांव जीवन का दे तम रौशन करो
खुद करेगी वरण महानता अमरता के लिए
सम्पदा के संग्रह से आसां है बनना महान
ओ रे मानव ऐसी महानता घड़ी दो घड़ी के लिए ।

ऐ कविता

ना जाने है क्यों सुस्त धार मेरे कलम की जो लहराते उर के समंदर की सरदार थी छटपटाता है अन्तस उमड़ते कितने भाव  उदास मन को है कविता आज तेरी तलाश...