कालखंड की बातें
सब कुछ आज है पास मेरे
नहीं जो साथ रहा करते थे
हम बाबूजी की पर्णकुटी में
आनन्द विहार किया करते थे ,
थोडा ही सुख था तो भी क्या
दुःख थोड़ा ही किया करते थे
बैठ कुटुम्ब कबीला संग ,नव
प्रेरक सद्दभाव बहा करते थे ,
अभावग्रस्त था जीवन फिर भी
लघु दीप जला करते आदर्शों के
अनुकम्पा असीम देवों की बरसती
लक्ष्य होते बस घर,रोटी,वस्त्रों के ,
नत शीश हृदय से आंजुरियां
प्रभु का आह्वान किया करते थे
देवत्व,साधना,तप,स्तुति में नयना
शाश्वत सुख अभिराम किया करते थे ,
तृप्ति थी संतुष्टि अपार भी
अवसाद नहीं दबाव था कोई
नेह,दया,अनुराग अलख भाव
मन आंगन करूणा पूंजी बोई ,
नहीं ईर्ष्या,द्वेष,क्लेश किसी से
नहीं भय,दंभ,लोभ था कोई
पाट की खाट पे सारी रतिया
सबने सुख की निंदिया सोई ,
साधन,संपत्ति,समृधि सब कुछ
हृदय घट ही क्यों है रीत गया
जिस पनघट पर सब मिलते थे
अलमस्त आलम कहाँ मीत गया ,
मनवांछित वैभव के रस में पग
प्रशांत नगर ही बह गया कहीं
तनावग्रस्त,दुःख,घोर,यातना में
संसार निराला ही ढह गया कहीं ,
विश्वास,आस्था,नेह,आनन्द
निर्वासित हो गए जीवन से
शांति ने ली वनवास सदा की
हुए संग्रह प्रत्याशा में निर्धन से ,
अंतर्मुखी लोक का बुर्ज़ ढह गया
बहिर्मुखी दुनियाँ का वरण कर
फिर क्यों घोर निराशा,नीरस मन
मिला जो सुख तज,निज तर्पण कर ,
उपलब्धियाँ थीं जीरो जब तक
अनगिनत विभूति के मालिक थे
आकंठ मिठास थी रिश्तों में भी
पूर्व की निधियाँ दीर्घकालिक थे ,
बिखरी संस्कारों की सब कड़ियाँ
बैरी अहंकार नरेश के शासन में
मूल्यों का चीरहरण प्रत्यक्ष हो रहा
निर्लज्य होती असभ्यता के हाथों में ,
व्यर्थ लालसा,कामना,तुलना में
मानवता भंवरजाल फंस खोई
अंतहीन सम्पदा की ख़्वाहिश
बुनता खुद मंकड़जाल हर कोई ,
ना लेकर जग में आया कुछ कोई
ना लेकर ऊपर कोई कुछ जाना है
गया सिकंदर भी खाली हाथों बंधु
मूलमंत्र निहित जग जाना-माना है ,
पद का मद समृधि की सत्ता
सामर्थ्य शक्ति और भौतिकता में
बेमानी हो गए नाते बातें सारी
कर्ता बोध,लोप अकर्मण्यता में ,
छोड़ प्रलोभन संग्रह का साथी
सीखो जीवन खुशहाल बनाना रे
बस अभिरक्षक,संरक्षक बनकर
साथी न्यासी का फ़र्ज़ निभाना रे ,
अवसाद नहीं दबाव था कोई
नेह,दया,अनुराग अलख भाव
मन आंगन करूणा पूंजी बोई ,
नहीं ईर्ष्या,द्वेष,क्लेश किसी से
नहीं भय,दंभ,लोभ था कोई
पाट की खाट पे सारी रतिया
सबने सुख की निंदिया सोई ,
साधन,संपत्ति,समृधि सब कुछ
हृदय घट ही क्यों है रीत गया
जिस पनघट पर सब मिलते थे
अलमस्त आलम कहाँ मीत गया ,
मनवांछित वैभव के रस में पग
प्रशांत नगर ही बह गया कहीं
तनावग्रस्त,दुःख,घोर,यातना में
संसार निराला ही ढह गया कहीं ,
विश्वास,आस्था,नेह,आनन्द
निर्वासित हो गए जीवन से
शांति ने ली वनवास सदा की
हुए संग्रह प्रत्याशा में निर्धन से ,
अंतर्मुखी लोक का बुर्ज़ ढह गया
बहिर्मुखी दुनियाँ का वरण कर
फिर क्यों घोर निराशा,नीरस मन
मिला जो सुख तज,निज तर्पण कर ,
उपलब्धियाँ थीं जीरो जब तक
अनगिनत विभूति के मालिक थे
आकंठ मिठास थी रिश्तों में भी
पूर्व की निधियाँ दीर्घकालिक थे ,
बिखरी संस्कारों की सब कड़ियाँ
बैरी अहंकार नरेश के शासन में
मूल्यों का चीरहरण प्रत्यक्ष हो रहा
निर्लज्य होती असभ्यता के हाथों में ,
व्यर्थ लालसा,कामना,तुलना में
मानवता भंवरजाल फंस खोई
अंतहीन सम्पदा की ख़्वाहिश
बुनता खुद मंकड़जाल हर कोई ,
ना लेकर जग में आया कुछ कोई
ना लेकर ऊपर कोई कुछ जाना है
गया सिकंदर भी खाली हाथों बंधु
मूलमंत्र निहित जग जाना-माना है ,
पद का मद समृधि की सत्ता
सामर्थ्य शक्ति और भौतिकता में
बेमानी हो गए नाते बातें सारी
कर्ता बोध,लोप अकर्मण्यता में ,
छोड़ प्रलोभन संग्रह का साथी
सीखो जीवन खुशहाल बनाना रे
बस अभिरक्षक,संरक्षक बनकर
साथी न्यासी का फ़र्ज़ निभाना रे ,
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