बेमौसम तब घन बरसेगा
गुज़र गए जो लम्हें पल
लौट कहाँ अब आने वाले
उम्र की दरिया बहती जाये
वक्त कहाँ थम जाने वाले ,
मासूम बड़ा समझाऊँ कैसे
इस उन्मत्त पखेरु मन को
तर को प्यासा सूखा सावन
जल के दो बूंद बस धन को ,
मौसम ने तो दगा दिया ही
पूरवा ने भी मुँह मोड़ लिया
चढ़ते सूरज की धूप सेंककर
संग गोधूलि में छोड़ दिया ,
हरी-भरी बाग़ों में हंसा भी
तब कैसा जाल बिछाता था
टहनी की हर कली-कली पर
तब भँवरा कैसा मँडराता था
खुदगर्ज़ बड़ा आवारा बादल
उसे क्या लेना बंजर धरती से
आसें कछार सी हुई जा रही
उसे क्या लेना धरती,परती से ,
शबनम की बूँदों से ढाढंस पा
तरू अर्धमूर्च्छित सा जीवित है
कोई ना जाने मौनव्यथा क्या
कब से मन विरहा यह तृषित है ,
हर आहट पर कातर उम्मीदें
चौखट तक जा फिर लौट आतीं
अंक निशा के करवट ले लेकर
रेशम सी चादर भींगा सुखातीं ,
किस घड़ी न जाने कब डोरी ये
टूट जाये साँसों की आहिस्ता
बेमौसम तब यह घन बरसेगा
जब जायेगी अर्थी अपने रस्ता ।
शैल सिंह
लौट कहाँ अब आने वाले
उम्र की दरिया बहती जाये
वक्त कहाँ थम जाने वाले ,
मासूम बड़ा समझाऊँ कैसे
इस उन्मत्त पखेरु मन को
तर को प्यासा सूखा सावन
जल के दो बूंद बस धन को ,
मौसम ने तो दगा दिया ही
पूरवा ने भी मुँह मोड़ लिया
चढ़ते सूरज की धूप सेंककर
संग गोधूलि में छोड़ दिया ,
हरी-भरी बाग़ों में हंसा भी
तब कैसा जाल बिछाता था
टहनी की हर कली-कली पर
तब भँवरा कैसा मँडराता था
खुदगर्ज़ बड़ा आवारा बादल
उसे क्या लेना बंजर धरती से
आसें कछार सी हुई जा रही
उसे क्या लेना धरती,परती से ,
शबनम की बूँदों से ढाढंस पा
तरू अर्धमूर्च्छित सा जीवित है
कोई ना जाने मौनव्यथा क्या
कब से मन विरहा यह तृषित है ,
हर आहट पर कातर उम्मीदें
चौखट तक जा फिर लौट आतीं
अंक निशा के करवट ले लेकर
रेशम सी चादर भींगा सुखातीं ,
किस घड़ी न जाने कब डोरी ये
टूट जाये साँसों की आहिस्ता
बेमौसम तब यह घन बरसेगा
जब जायेगी अर्थी अपने रस्ता ।
शैल सिंह
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