मंगलवार, 5 दिसंबर 2017

कविता ''आख़िर वो है कौन '

कविता  आख़िर वो है कौन

खो न जाएँ भाव कहीं
कलम हाथ ने गह ली 
दर्द, खुशी, गम ,तन्हाई,
उदासी शब्दों ने पढ़ ली
उमड़े-घुमड़े उद्गारों की
लेखनी नब्ज़ पकड़ ली
अनकही अभिव्यक्ति मेरी
काव्य कड़ी में गढ़ दी
मन की मौन कथा व्यथा
पन्नों पे उसने ने जड़ दी ।


तुम  हो मेरी आत्मबोध  
तुमसे करके आत्म विलाप 
मैं सहज हो लेती हूँ।
आत्मलोचना तुम हो मेरी,
आत्मवृतान्त तुझे सुना 
मैं सहज हो लेती हूँ। 
अस्मिता का बोध कराती 
हँसि,खुशी,दुःख तुझसे बाँट 
मैं सहज हो लेती हूँ। 
तुम मेरे हर रंगों की पहचान 
तेरा स्वागत कर 
निजी ज़िन्दगी के दरवाजों से 
मैं सहज हो लेती हूँ। 
तूं मेरी चुलबुली सखि 
बेझिझक अक्सर कर 
तन्हाई में तुझसे बातें  
मैं सहज हो लेती हूँ। 
आत्मविस्मृति की परिचायक
तेरी पनाहगाह में आकर 
मैं सहज हो लेती हूँ।
अन्तर के छटपटाहट को भाँप 
मुझे सहज कर देती हो। 
कभी वजूद को ढंक लेती हो 
कभी उजागर कर देती हो। 
कभी तो भटकाती हो 
शब्दों के अभयारण्य में 
कभी शब्दों के लच्छों के 
सुन्दर,विराट वितान में 
मेरी अवधारणाओं को 
अपने सम्बल का देकर पनाह 
मुझे सहज कर देती हो।
सपनों के उदास कैनवास पर  
उम्मीदों के बहुविध रंग बिखेर 
मुझे सहज कर देती हो 
विचलित जब भी मन होता 
तुम स्वच्छंद,मुक़्त,मुखर हो 
मेरे स्वभावानुकूल शब्दों में 
कविता की लड़ियाँ गूंथकर 
मुझे सहज कर देती हो। 
मेरे जीवन संघर्ष की
परिचारिका या सेविका 
आख़िर वो है कौन,
मेरी रचना मेरी कविता, 
मेरी सुर साधना 
मेरी क्रिया,प्रतिक्रिया 
मेरी विश्वशनीय सहचरी
मेरी रचनाधर्मिता कविता। 

                       शैल सिंह 

सोमवार, 6 नवंबर 2017

वजह दिलक़श शह से तेरा मुझे बेज़ार कर देना

 वजह दिलक़श शह से तेरा मुझे बेज़ार कर देना 


पहलू से महकती चलती संदल सी मतवाला कर
निगाहों के निमंत्रण से मदिरालय में दीवाना कर ,

तेरी आँखों के भी सागर में देखा इश्क़ की लहरें
कश्ती मेरे इश्क़ की उतराये सागर में उस गहरे
देखे मिज़ाज आशिक़ाना इन उफनाती लहरों के 
चलो मिलें साहिल पर तोड़ ज़माने के सभी पहरे ,

ग़र अल्फाज़ मुकर जाएं हृदय का हाल बताने से
पलकें झुका बता देना अन्तर का राज निग़ाहों से
अंतर की नदी का कलकल नाद हृदय सुन लेगा
हटा घूँघट हया का चाँद निकल आना घटाओं से ,

गेसुओं के झुरमट में बसा दिल आबाद कर देना
आरजू को मेरी नज़राना दिल में उतार कर देना
मदहोश अदायें कीं आजकल गुम नींद रातों की  
वजह दिलक़श शह से तेरा मुझे बेज़ार कर देना ,

हमदर्द बनकर मुक़म्मल नब्ज़ टटोल लिये होतीं
मौन हसरतों,अहसासों का कुछ मोल दिये होतीं
छोड़ निकम्में लफ़्जों को बंदिशें तोड़ संशयों की
दिल बोझिल ना यूँ रहता फ़ख्र से बोल दिये होतीं ।

                                             शैल सिंह



बुधवार, 18 अक्तूबर 2017

दीवाली पर कविता '' आना हंसा पे सवार मेरे घर आँगना ''

      दीवाली पर कविता 


शत-शत अभिनन्दन माँ लक्ष्मी तेरा
आना हंसा पे सवार मेरे घर आँगना

हर्ष और उल्लास का पर्व दीवाली 
रिश्तों में खूब गर्माहट लाना
अंधेरा दूर भगा स्नेह लूटाना 
नभ तारे शरमायें हो पावन तेरा आना
शत-शत अभिनन्दन माँ लक्ष्मी तेरा
आना हंसा पे सवार मेरे घर आँगना

धवल ज्योति से उजियारा कर
नफ़रत की दीवार ढहाना
ईर्ष्या,द्वेष मिटा प्रेम,सौहार्द्र बरसाना 
रौनकता से शान्ति का साम्राज्य बिछाना
शत-शत अभिनन्दन माँ लक्ष्मी तेरा
आना हंसा पे सवार मेरे घर आँगना

काली रात अमावस की
कर आसुरी वृत्तियों का प्रतिकार
कण-कण प्रकाश बिखराना
अनन्त काल तक जग रहे तेरा दीवाना
शत-शत अभिनन्दन माँ लक्ष्मी तेरा
आना हंसा पे सवार मेरे घर आँगना

मन का भाव बतासे सा मीठा 
अन्तस्तल खील सा खिलाना  
खुशियों की सौगात लुटाकर
शुभागमन से पर्व ये परमानन्द बनाना 
शत-शत अभिनन्दन माँ लक्ष्मी तेरा
आना हंसा पे सवार मेरे घर आँगना ।

                             शैल सिंह 

शुक्रवार, 13 अक्तूबर 2017

गांव पर कविता '' भोजपुरी की मिठास में गांव बसता जहाँ है ''

            गांव पर कविता 


बासी-बासी  सी लगती  शहर की  फिज़ां है
मेरे गांव सी कहाँ मिलती यहाँ ताज़ी हवा है ,

सर्दी,गर्मी,वर्षा,वसंत भी अनूठे मेरे गांव के 
शहर के कोलाहल में दिन गुजरता कहाँ है
खुले आसमान के पटल तले दूर-सुदूर तक
लहलहाते खेतों में हरियाली दिखती जहाँ है ,

वो गाँव की रुखी रोटी का स्वादिष्ट निवाला
तृप्ति का बोध पिज्जा,बर्गर में होता कहाँ है
देख गांवों की रौनक़ लगता रोज इतवार है
इतवार का शिद्दत से इन्तज़ार होता यहाँ है ,

कुनबे-कुटुम्ब संग गूँजता हँसी का ठहाका
चौपाल जगत पर इनारों की लगता जहाँ है
सड़कें,बिजली,मकां,पार्क फिर भी वीरानी 
दीयों के रौशनी में मेरा गांव हँसता जहाँ है ,

जहाँ चहचहा अगवानी पाँखी करें भोर की
महकते पुष्पों से वन-उपवन हर्षता जहाँ है
जहाँ रिश्तों की रेशमी डोरियाँ है भाईचारा 
भोजपुरी की मिठास में गांव बसता जहाँ है ,

नीम,बरगद,पीपल की जहाँ छाँव का मज़ा  
शहरी प्रदूषण में दम हरदम घुटता जहाँ है
चौबारे,सहन ना अंगन यहाँ की इमारतों में
प्रकृति की मुग्धता में गांव विहंसता जहाँ है ,

नशीला फागुन,रसीला सावन मेरे गांव का 
गांव मज़हबी द्वेषों से बेख़बर रहता जहाँ है
त्यौहारों का उल्लास शुद्ध,स्वच्छ पर्यावरण
करुणा का विपत्ति में सिन्धु बरसता जहाँ है ।

इनारों --कुआं
                                         शैल सिंह


सोमवार, 18 सितंबर 2017

क्षणिका

क्षणिकाएं 

क्यूँ इतना वक़्त ली ज़िन्दगी
खुद को समझने औ समझाने में
समझ के इतने फ़लक पे ला
छोड़ दी किस मोड़ पे ला विराने में
बोलो अब उम्र कहाँ है वक़्त लिए
वक़्त बचा जो खर्च कर रही तुझे बहलाने में।

कुछ लोगों ने महफ़िलों में 
ये आभास कराया
जैसे पहचानते नहीं , 
मैंने भी जता दिया 
जैसे मै उन्हें जानती नहीं , 

शिद्दत से तराशें ग़र हम हौसलों को
कद आसमां का खुद-बख़ुद झुक जायेगा
राह कोसों हों दूर मंज़िल की चाहे मगर
खुद मंजिलों पे सफर जाकर रुक जायेगा।                    

तन्हाई पर कविता गुजरे मौसम की याद दिलाती

तन्हाई पर कविता  
गुजरे मौसम की याद दिलाती


यादों के शुष्क बिछौने पर
भीगीं-भीगीं सिमसिम रात
तन्हाई से करती बातें
नैनों की रिमझिम बरसात 
जाने कहाँ-कहांँ भटकाती रात ,

पलकों की सरहद तक आ-आ 
नींद काफूर हो जाती है
बेचैन रात की आलम का
सिलवट दस्तूर बताती है
उन्नीदी आंँखों में बीति सारी रात ,

हठ करती बचपन की क्रिड़ायें
अबोध अल्ह़ड़पन यौनापन का 
काश कि मुट्ठी में बंद कर रखती
कुछ हसीं पलों के छितरेपन का
कभी ना होती इतनी बेवफ़ा रात ,

हर पहर,रैन की क़ातिल होकर 
गुजरे मौसम की याद दिलाती 
बेदर्द वीरानी बन मेरी हमदर्द   
रख पहलू में हँसाती और रुलाती
तन्हा और बनाती तन्हाई की रात ,

ना जाने क्यूँ तन्हाई में यादें
ज़िक्र करती हैं पुराने मंजर का
तल्ख़ी और उदासी भर देतीं
काम करती हैं जादू-मंतर का
ख़्यालों में डूबी,उतराई सारी रात
                                 शैल सिंह







रविवार, 17 सितंबर 2017

'' तिरंगा तन सजा सोचा न था तेरा मन दुखा दूं माँ ''

एक शहीद की अन्तर्व्यथा माँ के लिए 


ऐ मेरे मित्रों मेरे गांव तुझसे मेरे हिन्द ये कहना है
शहीदों के मज़ारों पर नित्य दीप जलाये रखना है ,

याद आए मेरी दिल को जरा समझा लिया करना
लगा सीने से तस्वीरों को मन बहला लिया करना
हर्गिज़ कोसना मत देश को ऐ त्यागमयी माताओं
लाल था देश का तेरा मन को बतला दिया करना ,

समझना गहरी नींद सोया हूँ तेरी लोरी सुन के माँ
जां कुर्बान वतन पर की कि तेरा कर्ज़ चुका दूँ माँ
आँसू अच्छे नहीं लगते योद्धा की माँ की आँखों में
तिरंगा तन सजा सोचा ना था तेरा मन दुखा दूं माँ ,

माँ तेरे कोंख का मैं ऋण चुका पाया नहीं तो क्या
प्रिये का साथ जीवन भर निभा पाया नहीं तो क्या
भारत माँ के चरणों में थी चाहत वीरगति हो प्राप्त 
अमर बलिदान की गाथा लिख सोया नहीं तो क्या ,

राष्ट्र के ग़ौरव लिए माँ लाड़ल़ा तेरा प्राण गंवाया है
नमन कर लो उन्हें जिनने तुझे आजादी दिलाया है
कायर आँसुओं से क्यों भिगोती दामन धरा का माँ
जंगे-मैदां ने रण-बांकुरों को तेरे फौलादी बनाया है ,

राजगुरु,सुखदेव,भगत भी किसी के लाल थे न माँ
जिनके शौर्य की गाथायें सुन हम बेहाल हुए थे माँ
वतन की गोद में सोने का गौरव जो आज है मिला
वही आशीष दो जो फ़ौज़ में जाते वक़्त दिए थे माँ।

                                             शैल सिंह




गुरुवार, 14 सितंबर 2017

मंच पर कविता आरम्भ करने से पहले,समां बांधने के लिए

मंच पर कविता आरम्भ करने से पहले,समां बांधने के लिए


मेरी आँखों का पीके मय
सभी मदहोश बैठे हैं
नशा नस-नस तरल कर दी
सभी ख़ामोश बैठे हैं,

पलकें हो गईं शोहदा
झपकना भूल बैठी हैं
जब से आई हूँ महफ़िल में
सभी खो होश बैठे हैं,

ग़र हो तालियों की गूँज
तो भंग तन्द्रा सभी की हो
महफ़िल हो उठे जीवन्त
करतल ध्वनि सभी की हो,

बंधन खोल हथेली का
सुर साजों से नवाज़ें ग़र
हो अन्दाजे-बयां माहौल
वाह-वाह धुन सुना दें ग़र,

शब्दों से करूं सराबोर
महफ़िल हो जाए गदगद 
गर दें हौसला रंच भी
मन के तार छेड़ूं अनहद,

गणमान्य अतिथियों का
करूं भरपूर मनोरंजन
दर्शक दीर्घा में बैठे सज्जनों
करुं शत-शत नमन वन्दन ‌।
                     शैल सिंह

हिंदी पर कविता , हिंदी का हो राज्याभिषेक

हिंदी का हो राज्याभिषेक 


हिंदी की ख़्याति बढ़ाने को
इसे हमें सशक्त,समृद्ध करना है
सहर्ष अपना कर इसे प्रतिष्ठित कर
विश्वपटल पर भी प्रसिद्द करना है ,

हिंदी हमारे भारत का गौरव
हिंदी सुशासन,सुराज की धार है
भाल सजा बिंदिया हिंदी
करती हिंदुस्तान का श्रृंगार है ,

गंगाजल सी पावन हिंदी
उर्दू,संस्कृत से भी मिलनसार है ,
कितनी सीधी,सहज,सरल,मधुर
हिंदी हृदय का उद्गार है

रिश्तों की डोरी,ऊष्मा प्राणों की
हिंदी मौसमी गीतों की फुहार है
हिंदी का विस्तार करें हम
ये ऋषि,मुनियों के वाणी की टंकार है ,

मन से मन के तार जोड़ती 
हिंदी मधुर,मनोहर रसधार है
कण-कण में है घुली हुई
हिंदी कल-कल बहती जलधार है ,

देश,दुनिया में भी गूंज रही
आज़ हिंदी की ललकार है
बांधती सुर में गीत,ग़ज़ल को
हिंदी मीठी कर्णप्रिय झंकार है ,

भावों में करुणा,पीर पिरोने वाली 
हिंदी एकमात्र आधार है
सब भाषाओँ पर भारी पड़ती
हिंदी जब भरती हुंकार है ,

स्वतः उतरती मन के आँगन
कवि मन के कृतियों का संसार है
हिंदी का हो राज्याभिषेक
हम हिन्दुस्तानियों की पुकार है ,

भावों की प्रेयसी,प्रखर वक़्ता भी 
हिंदी तेरा जय-जयकार है 
परचम हिंदी का लहर रहा
बह रही दिशा-दिशा बयार है ,

हिंदी मणि है हिंदुस्तान की 
परिष्कृत सम्प्रेषणीय उदार है
जन मानस को करती जागरूक
हिंदी हृदय से तेरा सत्कार है।

                     शैल सिंह 




मंगलवार, 12 सितंबर 2017

'' देश लिए शहीद हुए एक सैनिक की भावना ''

देश लिए शहीद हुए एक सैनिक की भावना 


तेरी आन लिए प्रान किया क़ुरबान प्यारे देश मेरे
मेरे प्रति तेरा भी तो देश कुछ फ़र्ज होना चाहिए ,

किस हाल में महतारी,हाल क्या है प्राण प्यारी की
किस हाल में दुलारा,हाल क्या लाड़ली दुलारी की 
जो सहारा बूढ़े पिता ने देश तेरी आन लिए वारा है
उस घर का भी तुझपे देश कुछ क़र्ज़ होना चाहिए ,

तेरे सम्मान,आन,बान लिए माता ने उजाड़ी कोख़
ज़िन्दगी भर लिए जिसने आँचल रखी समेट शोक 
जिसने राखी की कलाई भेंट दी देश की भलाई पे    
दुख के पहाड़ का भी देश कुछ अर्ज़ होना चाहिए ,

जिसके गाँव का चराग़ बुझा मुरझाये फूल बाग़ के
जिस द्वारे पर अर्थी आई ध्वजा में लपेटी संवार के  
जिन आँसुओं की धार नहीं टूटे भाई को निहार के
दर्द,बलिदानी गांव का,देश कुछ दर्ज़ होना चाहिए। 


 देश भक्ति पर कुछ पंक्तियां

थोड़ा शर्म करो सियासत करने वालों
नमन तो करो देख जवानों का जज़्बा
सेना तुम्हारी ही  हिफ़ाज़त में ऐ मूर्खों 
करती सरहदों पर देश लिए जां क़ुर्बां ।

वतन से की मोहब्बत पर  क़फ़न का बांध कर सेहरा
एक दिन तो है मरना क्यूं ना मरें तिरंगा तन पर लहरा
ग़र आबाद रहे हिन्दोस्तान हम जवानों की शहादत से
तो क़ुर्बांन होने को देना जनम माँ बार-बार ईबादत से ।

वतन से मोह हमें इतना कि महक़ भरमा ना पाई गज़रे की
जुनून देशभक्ति का इतना चितवन रोक ना पाई कजरे की  
उन्माद वतनपरस्ती का भाल रुधिर का तिलक लगा निकले  
क़दम रणबांकुरों के न पाई रोक ममता भी माँ के अँचरे की ।
                             
दौलत,जागीर,तख़्तो-ताज़ हम परवानों का प्रिय तिरंगा है
वतन के गौरव लिए मर मिटना हम दीवानों का फण्डा है
सीने से लगाये रखना शहादत को हमारी न्यारी धरती माँ
शौक हो गया पूरा तन पर लपेट तिरंगा लहराया झण्डा है ।
                              
                                                

रविवार, 10 सितंबर 2017

किसी की शायरी, कविता का जवाब मेरे भाव में

 किसी की शायरी, कविता का जवाब मेरे भाव में

                  ( १ )

यहाँ धरती की सारी वस्तु सारे मकान मेरे हैं
ये हिन्दूस्तान मेरा है बता दे जा कोई उसको
वोे किरायेदार हैं तो रहें किरायेदार की तरह 
रास्ता बाहर का भी बता दे जा कोई उसको ,   

हमारे बाप तक न पहुँचें हम तक रहें अच्छा  
भलमनसाहत यही कि इन्हें बर्दाश्त करते हैं
जो असुरक्षित यहाँ पर जिनकी सांसें है बन्दी
वो कहीं जा ठिकाना ढूंढ लें आगाह करते हैं ,

ज़ुबां कैंची सी चलती एहसानफ़रामोशों की
अरे जान हथेली पर तो हम लोगों की ग़द्दारों 
अलग-अलग वस्तियां हमारी और तुम्हारी हैं
न ज़द में हैं न रहते हैं विश्वासघातों के ग़द्दारों 

सब मिल बांट रहें ग़र समझें देश को अपना
ना कोई दुश्मन यहाँ उनका न जान खतरे में
हमारी घर-गली में रहके,जमाते धौंस हमी पे 
बोलें तोल शब्दों को मत घोलें झाल मिसरे में ।
                                      
           ‌             ( २ )

उँगलियाँ झूठी नहीं ऊठतीं,न हवा में तीर छूटता है
खिलाफ़त क्यों तेरे दुनिया,जरा पड़ताल तो कर ले ,

ग़र होती खूँ की बूँदें मिट्टी में,जुबां कड़वी नहीं होती
घाती कौन,किसका ख़ौफ़ ,पता घड़ियाल तो कर ले ,

बासिन्दे कहाँ के तुम,क़लमें किस मुल्क़ के हो गढ़ते 
रहते क्यों शक़ के दायरे में,ज़िरह ज़ल्लाद  तो कर ले ,

पोंछो गर्द चश्मों की,औ देखो बिरादरी का वहशीपन
आँखें अंँधी हैं कि बहरे कान,तस्दीक़  हाल तो कर ले ,

ग़र बन्दिशें हैं तेरी सांसों पे,यहाँ महफूज नहीं ग़र तूं
जमीं ज़ल्दी छोड़ देने का फ़ैसला,तत्काल तो कर ले ,

इक भूल का ख़ामियाज़ा भुगत रहा देश आज तक
चला जा पाक नमक हराम वहाँ खुशहाल तो रह ले ,

जिसका दिल हिन्दूस्तानी स्वागत दिल से हम करते
ग़द्दारों  कैसा हो सुलूक बिचार फिलहाल तो कर ले ।

                                                    शैल सिंह
               

रविवार, 3 सितंबर 2017

कविता '' सच्चाई ने जीती बाज़ी ''

        '' सच्चाई ने जीती बाज़ी ''


दिन भर आग उगल सूरज जला नहीं निढाल हो गया
सारी रात जला एक दीप जल कर भी निहाल हो गया ,

ग़म सहना सीखा मैंने नीरव रजनी के गहन अंधेरों से
नीरस ज़िंदगी करने वाला भी खुद ही कंगाल हो गया ,

कभी रंगा नहीं किसी भी रंग में मैंने अपने अंदाज़ को
जब छोड़ी नहीं ख़ुद्दारी मैंने क़ुदरत भी बेहाल हो गया ,

देखो अपना ढलता सूरज मेरे किस्मत से खेलने वालों  
सच्चाई ने जीती बाज़ी कहने लगे लोग कमाल हो गया ,

नमन करने वालों उगते सूरज को मेरा भोर भूला दिए  
देखो बुरे लम्हों का साया खुद छूमंतर पाताल हो गया।  

                                                    शैल सिंह

                                         



गुरुवार, 31 अगस्त 2017

बेटियों पर कविता,अँधेरों को कर ना दें बेपरदा ख़ामोशियाँ मेरी

बेटियों पर कविता

अँधेरों को कर ना दें बेपरदा ख़ामोशियाँ मेरी 


हमें अम्बर को छूना जी खोलो बेड़ियाँ मेरी
जोश के पर पे उड़ने को बेचैन परियां मेरी 
लहरों का नज़ारा बैठ साहिल पर देखें क्यों 
भंवरों से करें अठखेलियाँ दो कश्तियाँ मेरी ,  

दे दो हक़ हमें भी,आजादी हमें भी मर्दों सी
ग़र मज़लूम ना होतीं न लगतीं बोलियां मेरी 
उड़ना हमें भी हवाओं में उन्मुक्त पाँखी सा 
अस्मत की ना खायें नोंच दरिंदे बोटियाँ मेरी ,

हमें खुल कर सांसों को लेने की इजाज़त दो
करतब खूब दिखाएंगी हुनरमंद बेटियाँ मेरी 
नहीं होना उत्सर्ग कनक पिंजरों के वैभवों में
बग़ावत पे उतर ना जायें कहीं दुश्वारियां मेरी ,

ख़ुद को जला घर के अँथेरों को किया रौशन 
किरण बाहर भी बिखरानी फैलें रश्मियाँ मेरी 
अबला और ना बन देनी हमें हैं अग्निपरीक्षाएँ 
अँधेरों को कर ना दें बेपरदा ख़ामोशियाँ मेरी , 

ख़ुद चमकूँ जुगुनू सा मैं दे दूँ चाँद को भी मात
बातें करें गगन के तारों से मुख़र हस्तियाँ मेरी 
खोलूं मन के परत का पुर्ज़ा आवाज उठाने दो 
घायल मन के हंसा की दिखाऊँ झांँकियां मेरी ,

क़तर के डैनों को रखा है रस्मों की तिज़ोरी में
बंधन तोड़ें रस्मों-रिवाज़ के दे दो कुँजियाँ मेरी 
परवश सृजन की कलियाँ हृदय में मचलती हैं 
सुलग ज़िद्दी ना उफ़नायें दबी चिनगारियाँ मेरी । 

                                         शैल सिंह 

                                   


सोमवार, 28 अगस्त 2017

कविता -ढोंगी बाबाओं पर व्यंग्य

ढोंगी बाबाओं पर व्यंग्य

आओ बच्चों तुम्हें सिखाएं,
सम्पत्ति अर्जित करने के नायाब तरीके,

झऊवा जैसे बाल बढ़ा लेना ,
छुट्टे बकरे के पूंछ सी झबरी दाढ़ी
राम-रहीम का तमग़ा लटका
लीला करना बनकर खूब मदारी,

जर,जोरू,जमींदारी अनुयायी तेरे
देखना सारी ज़ागीर लुटा देंगे
बहन,बेटियों के अस्मत की भी
देखना अंधभक्त बन्दे बाट लगा देंगे,
 
साध्वियों,सन्यासिनियों पर डोरे डालना
लेना पड़े भले ही दो चार दस पंगे
ग़र कोई करेगा बुलंद ख़िलाफ़ आवाज़ 
तो मुर्ख अशिक्षित लेकर लाठी डन्डे,

विरोधियों,प्रशासन पर पिल पड़ेंगे
वानर सेना सा तेरे पाले पागल ये गुंडे
नागिन डांस करेंगे तेरे लिए अंधभक्त ये ,
डाल कर खुली आँखों पर पर्दे,

राष्ट्रीय सम्पत्तियों को तहस-नहस कर
प्रशासन के विरुद्ध रोष जताएंगे
भक्ति के मद में डूबे ओ नकली ढोंगी 
तेरे लिए ये मौत को भी गले लगाएंगे,

नपुंसक तो सबसे पहले बनाना  
अपने सेवकों और सेवादारों को
हैसियत और रुतबे की धौंस दिखा
धमकाकर रखना भक्त परिवारों को,

खुद को ईश्वर का साक्षात् अवतार बता
कुकर्मों से मस्त बनाना अंधियारों को   
धर्म की आड़ में अधम,निशाचर,पापी बन
भक्तों में भरना कुत्सित बिचारों को,

आओ बच्चों तुम्हें सिखाएं,
सम्पत्ति अर्जित करने के नायाब तरीके

मन में मक्कारी बगल कटारी वाला
बन जाना नकली बाबा कारोबारी
रंगीन बनाना हर रात ऐशगाह की
द्वारे बैठा इक स्वामिभक्त दरबारी,

तन जोकर,बहुरुपिये सा लिबास धार 
बिछा लेना भड़ुवाई का मायाजाल
लम्पट प्रवचनों की कर बौछार भक्तों पर
धुऑंधार,मचाना खूब धमाल,

ब्रह्मचारी का चोला पेन्हकर
भक्तों को मुर्ख बना धूल झोंकना आँखों में
उल्लू सीधा करना जो होगा देखा जायेगा 
उलझाए रखना मूर्खों को बातों में,

जादू से जल में पूड़ी तलना आदि 
अपनाना जितने भी हों ढोंगी हथकण्डे
लाखों करोड़ों भींड़ को खूब भरमाना
कि हो जायें फेल असली पूजारी पण्डे,

ईश्वर सज़ा मुक़र्रर तभी करेगा
जब पाप का घड़ा आकण्ठ भर जायेगा
फिर तबतक जेल में चक्की पिसना जब-तक 
उम्र,ऐश का रसिक मिजाज नहीं ढल जाएगा,

होगी दादागिरी फुस्स,फिसड्डी बनकर
मौत के दिन गिनना सलाखों के पीछे
गवाहों के बयानात खुलेंगी पोल पट्टियाँ
कैसे-कैसे खूब चलाते थे काले धन्धे,

साथ चेले चपाटी भीड़ ना होगी
बूरे वक़्त में जपना हर-हर गंगे
होगी प्रायश्चित की भी नहीं आग नसीब 
नकली बाबा क्योंकि हो गए अब तुम नंगे। 
 

                                     शैल सिंह

रविवार, 20 अगस्त 2017

ग्राम्य जीवन पर कविता

                     

            ग्राम्य जीवन पर कविता 

किन शब्दों में बयां करुं बदरंग हुए मेरे ग्राम्य जीवन के यथार्थ दर्शन को ,


जिस माटी में बचपन बीता आँगन की ओरी तले वर्षा का लुत्फ़ उठाये थे 
चींटे को पतवार बना खेले कागज की नाव में कीचड़ में सने घर आये थे ,

भूला नहीं रस ऊख का,होरहा चने,मटर का,गाय-बैल,खेतों का टूटा मेढ़
झूला नीम डाल का,गाँव का मेला,घनी लटें लटकाये बरगद का बूढ़ा पेड़ ,

पहचान खोते गांव,टूटते-बिखरते रिश्ते,आधुनिकता में संलिप्त अपनापन 
ना पूर्व सा परिदृश्य दिखा ना माई,काकी भौजी नामों वाला तृप्त सम्बोधन ,

जिस माटी के परिवेश में दांव-पेंच,छल-छद्म,धोखेबाजी,मक्कारी नहीं थी
जहाँ ईर्ष्या,द्वेष,क्लेश,शोषण,बलात्कार,असामाजिक तत्व,गद्दारी नहीं थी ,

आज भौतिकवादी युग ने गुमराह कर मानवीय मूल्यों का ह्रास कर दिया
वैमनस्यता,धूर्तता,चालबाजियों ने आदर्शवादी ढांचे को है ग्रास कर लिया ,

मेल-मिलाप,वार्तालाप की कंजुस प्रवृत्ति शहर से बढ़कर गांव की हो गई
त्यौहारों की चहल-पहल,विनोद प्रियता शहर से बढ़कर गांव की खो गई ,

ना पनघट पर कोई सखी,ना कजरी,फगुवा गीत रससिक्त मल्हार गूंजता   
ना पीपरा की छाँव का लहरन ना पहले सी कोइलर की मृदु तान कूंकती ,

रंग-रंगीला प्यारे बचपन का गांव मेरा,विहंसता नहीं सूनसान विरान मिला
ना कोल्हू कोल्हूवाड़ा,कुंएं की जगत,खलिहान,ना हापुड़ का मैदान मिला ,

अपना गांव मशीनीकरण हुआ,ना कोई रिश्ता सौहार्दपूर्ण व्यवहार मिला
ना हाथ के हुनर का कारीगर,मोची,बढ़ई,नाऊ,धोबी,लुहार,कुम्हार मिला ,

फीके हुए पर्व सभी,मंदिर के क्रिया-कलाप से भजन-कीर्तन भी लोप हुए
मिला न बचपन का कुछ नामो-निशां मेरे प्यारे गांव कहाँ तुम अलोप हुए। 

                                                                             शैल सिंह 

गुरुवार, 17 अगस्त 2017

देश पर कविता कहीं दुर्गन्ध नाक में दम ना कर दे

 देश पर कविता  कहीं दुर्गन्ध नाक में दम ना कर दे


उर्दू है तहज़ीब वतन की
हिन्दुस्तान का हिन्दी है श्रृंगार
सांस्कृतिक सभ्यता संस्कृति है
बाईबल,गीता,ग्रन्थ,कुरान हैं हार,    

हिंदुस्तान की न्यारी धरती हमारी 
जहाँ भाई-चारा आपस में सौहार्द्र 
जहाँ भिन्न बोलियां,वेश भूषा भाषाएं
विभिन्न धर्मों के समावेश का प्यार  ,

जहाँ इबादत,प्रार्थनायें गुरु ईसा के साथ   
जहाँ भोर अजान की,गूंजे चालीसा का पाठ 
जिस सभ्यता ने विश्व को दिखाया आईना 
उस मुल्क़ को सेंध लगा दुश्मन रहा है बाँट  ,

भारत माँ के विस्तृत आँचल को आज 
सियासत की गन्दगी ने दूषित कर डाला
छल,छद्म का बिछाकर जाल चौमुखी
जनमानस की आत्मायें कुत्सित कर डाला ,

भारतीय मूल्यों को ताक़ पर रखकर       
कुछ लोग देख रहे मुल्क़ का चीरहरण 
करते किस आजादी की मांग ये देशद्रोही 
ज़मीर बेंच देश का चाह रहे हैं विध्वंसकरण,  

जागरुक होना है दुष्परिणाम से पहले
भटके लोगों का हृदय परिष्कार करना है
कहीं दुर्गन्ध नाक में दम ना कर दे
देश के गन्दे कीड़ों का बहिष्कार करना है ,

                                       शैल सिंह

शनिवार, 12 अगस्त 2017

पन्द्रह अगस्त पर्व मनायें हम प्रण प्यार से

बोली-भाषा से इतर,जाति-धर्म से ऊपर
दिल में राष्ट्रभक्ति अभिमान देश की भू पर
भले शीश कट जाये कभी शीश नहीं झुकायेंगे
चाहे जो देनी क़ुरबानी मातृभूमि पर प्राण लुटायेंगे 
देश की अस्मिता लिए हम आपसी भेदभाव मिटायेंगे  
अखंडता,एकता की जला मशालें विकसित राष्ट्र बनायेंगे  
भारत के उज्जवल भविष्य हेतु नौनिहालों को हमें जगाना है    
हिन्दवासियों को बाँध एक सूत्र में हिन्दुस्तान को स्वर्ग बनाना है
सकुशल जन-जन,अमन,चैन हो भारत माँ पर सर्वस्व लूटायेंगे हम 
वीर शहीदों के शौर्य की गाथायें गाकर उरों-उरों में क्रांति लायेंगे हम 
नमन तुम्हें वतन पे मिटने वालों सरहदों पे रहने वालों तुझे मेरा सलाम 
वतन महबूब मेरा,करते जी-जान से मोहब्बत माँ भारती तुझे मेरा सलाम 

                                                               शैल सिंह

बुधवार, 2 अगस्त 2017

सावन पर कविता

           सावन पर कविता 


है सावन के महीने की अजी बात निराली
मन्त्रमुग्ध कर देता क्षिति बिखेर हरियाली ,

तोड़ संयम बूँद-बूँद सावन बरसे झमाझम
उसर,बंजर,परती पृथ्वी का करे सीना नम ,

बाढ़,आपदा,भूकम्प से छलनी करता मन
रंग धानी रंग में जग को भी बनाता दुल्हन ,

इन्द्रदेव हर्षित हो करते सावन में जल वर्षा
गाते दादुर,मोर,पपिहे नाचती शिखिनी हर्षा ,

गरज नभ से कारी घटायें गिरातीं बिजलियां 
उत्तेज क्षुद्र नाले,नौले उफ़ान मारतीं नदियां

कजरी,तीज,झूला,मेघ,मल्हारों भरा मौसम
नज़ारा देख हरा-भरा लगे चित्त को मनोरम ,

तन विरहन का जलाता विरह की अगन में
सावन प्रेम का अंकुर उगाता युवा जहन में ,

धूप बदली की मस्तानी,सुहानी लगती भोर
सोंधी महक माटी की शोख़ पवन करे शोर ,

नागपंचमी,जन्माष्टमी,रक्षाबंधन का त्योहार
सब मौसमों में सावन लगे सबसे ख़ुशग़वार ।

क्षिति---धरती  
 
शैल सिंह                     






शुक्रवार, 28 जुलाई 2017

मैं नेह की शीतल समीर हूँ

मैं नेह की शीतल समीर हूँ


मैं नदी हूँ मन की नदी, 
बहुत कुछ अपने अतल अंतर में समेटे हुए, 
मुझमें भी समुद्र सी लहरें हैं उफान और तरंगें हैं,
मैं समन्दर की तरह भीतर के अबोध रेत को ,
किनारों पर उगल ऊंची-ऊंची छलांगें नहीं लगाती। 
मैं नदी हूँ मन की नदी शान्त,चिर स्निग्ध ,
अपने विस्तार को, मन के परिसर में ,
चुप्पी की चादर में ओढ़ाकर ,
बाह्य जगत से दूर रखती हूँ।
जब कोई शरारती कंकड़ ,
मेरी सतह से छेड़खानी करता है ,
मैं एक बुलबुला छोड़ उस परिदृश्य को ,
जज्ब कर लेती हूँ ,अपने मन के भूगर्भ में ,
पर उस शरारती तत्व को पथरी के रुप में,
वही पथरी जब अतिशय बड़ी हो ,
असहनीय दर्द का आकार लेती है ,
तब कहीं मैं फूटकर टेढ़ा-मेढ़ा राह बनाती हूँ ,
और कर देती हूँ नदी को छिछला ,
मैं नदी हूँ ,मुझमें रहस्य है ,मर्म है,संयम है ,
एक सीमा तक स्थिरता और सहनशीलता भी
मैं बावड़ी हूँ, बावली नहीं, उतावली नहीं
प्रात में मेरे मन के विशाल प्रांगण में
सूर्य किरणों संग अठखेलियां करता है
सांध्य में चाँद मेरी गहराई में समां
तारे सितारों संग रंगरेलियां करता है
मैं नेह की शीतल समीर हूँ
मैं खारी नहीं, मैं सूखी कछार भी नहीं,
मैं समंदर की तरह उफनाती चिंघाड़ती भी नहीं
बस बिचलित होती हूँ ,जब आहत होती हूँ ,
मैं नदी हूँ, मन की मौन नदी ,मुझे नदी रहने दो 
मुझमें समा समझने की कोशिश करो या ना करो ,
मैं नदी हूंँ , स्थिरता मेरी परिपाटी मेरी विरासत ।

                                शैल सिंह

मंगलवार, 25 जुलाई 2017

घूँघट जरा उलटने दो

       जितने भाव उमड़ते उर में

जितने भाव उमड़ते उर में
शब्द  ज़ुबां बन  जाते  हैं
जहाँ अधर नहीं खुल पाते
झट सहगामी बन जाते हैं 
खुद में ढाल जज़्बातों को 
मन का सब कह जाते हैं | 

'' घूँघट जरा उलटने दो ''


आयेंगे मेरे प्रियतम आज आँखों में अंजन भरने दो
संग प्रतिक्षित मेरे संगी-साथी आज मुझे संवरने दो ,

घर की ड्योढ़ी साजन को पल भर जरा ठहरने दो
दिवस काटे दर्पण सम्मुख नयन में उनके बसने दो ,

जी भर किया सिंगार उन्हें जी भर जरा निरखने दो
हों थोड़ा बेज़ार वो उर उनका भी जरा करकने दो ,

देखें चांदनी का शरमाना वो घूँघट जरा उलटने दो
संग खेलूं सावनी कजरी बांहें डाल गले लिपटने दो ,

अपलक देखें इक दूजे को थोड़ा आज बहकने दो
देखूं चन्दा की भाव-भंगिमा थोड़ा आज परखने दो।

        '' कोई याद आ रहा है ''


रुमानियत भरा ये मौसम शायरी सुना रहा है
गा रहीं ग़ज़ल फ़िज़ाएं अम्बर गुनगुना रहा है ,

मुँह छिपाये घटा में बादल खिलखिला रहा है
इन्द्रधनुष भरे मृदुल आह्लाद मेघ लुभा रहा है ,

प्रफुल्ल पात-पात गले लग ताली बजा रहा है
महक रहीं दिशाएं वातावरण मुस्कुरा रहा है ,

मन्जर सुहाना सावन का बांसुरी बजा रहा है
अलमस्त अलौकिक छटा माज़ी जगा रहा है ,

बीते मधुर पलों को समां चित्रित करा रहा है
पुराने हसीं यादगारों का जख़ीरा गिरा रहा है ,

आँगन उतर चाँद आहिस्ता,दिल जला रहा है
इतना ख़ुशगवार लमहा कोई याद आ रहा है ।

        एक क़तरा तो देखें 


दर्द का लावा फूटता जब जख्में-ज़िगर से
आंखों से दरिया बन बहता है बरसात सी ,

इस बरसात में तुम भी कभी भींगो अगर
तो जानोगे होती मजा क्या है बरसात की ,

घड़ियाली आंसू जो कहते हैं इस नीर को
एक क़तरा तो देखें क्या इसमें बरसात सी ,

घटा के ख़ामोश रौब का तो अन्दाज़ होगा
प्रलय मचा देता जब फटता है बरसात सी ,

जिस दिन अना मेरी मुझको ललकार देगी
फिर ना कहना कैसी बला की बरसात थी।
                       

   कैसे खड़ा ख़िज़ाँ में शज़र


ऐ हवा ला कभी उनके घर की ख़बर
जबसे मिलकर गए न मुड़के देखा इधर
जा पता पूछ कर आ बता कुछ इधर
क्यों बदल सी गई हमसफ़र की नज़र |

ऐ बहारों कभी जाओ मेरे दर से गुजर
देख जाओ कैसे खड़ा ख़िज़ाँ में शज़र
जिसकी हर शाख़ पे थे वो मचाये ग़दर
हो गए बेखबर क्यूँ आजकल इस क़दर ।
                                                 



सम्पूर्ण जगत में बस एक ही भगवान हैं

सम्पूर्ण जगत में बस एक ही भगवान हैं



एक ही हैं भगवान मगर हैं नाम अनेकों गढ़े गए
नाम के चलते ही हृदय बहुत हैं विष भी भरे गए,

अरे प्रकट हो त्रिशूलधारी भटकों को समझाओ
परब्रम्हपरमेश्वर,एकाकार एक ही हैं बतलाओ,

स्वार्थ लिए लोग तुझे बाँटते विभिन्न धर्म-पंन्थों में
दहशत फैला अशांति मचा रखे मुल्क़ों-मुल्क़ों में,

ग़र ना समझें ये अपना रौद्र तांडव रूप दिखाओ
जिनके उत्पात से त्रस्त सभी गह के वज्र गिराओ,

बड़ा लिया तूने इम्तिहान और देखा खून खराबा
मची नाम पे तेरे मारकाट तूं बैठा है कौन दुवाबा,

हम तेरी श्रद्धा के साधक बस राम मंदिर बनवा दो
जो मांगें जन्नत का प्यार उनका प्राण हूरों पे वार दो 

                                                 शैल सिंह

रविवार, 23 जुलाई 2017

कई दिनों की बारिश से आजिज होने पर

कई दिनों की बारिश से आजिज़ होने पर,

बन्द करो रोना अब बरखा रानी
बहुत हो गया जल बरसानी
भर गया कोना-कोना पानी ,

नाला उफन घर घुसने को आतुर,
जल भरे खेत लगें भयातुर,
रोमांचित बस मोर,पपिहा,दादुर ,

कितने दिन हो गए घर से निकले
पथ जम गई काई पग हैं फिसले
बन्द करो प्रलाप क्या दूं इसके बदले ,

कितने दिन हो गए सूरज दर्शन
तरसे धूप लिए मन मधुवन
कपड़े ओदे,चहुँओर सीलन

रस्ता दलदल किचकिच कर दी
मक्खी,मच्छर से घर भर दी
गुमसाईन सी दुर्गंध हद कर दी ,

बिलें वर्षा जल से भरीं यकायक
घूम रहे जीव खुलेआम भयानक
जाने कब क्या हो जाए अचानक ,

बहुत हो गई तेरे अति वृष्टि की
जा कहीं और बरस कई जगहें सृष्टि की
क़ाबिलियत दिखा अपने क्रूर कृति की ।

                          शैल सिंह

सोमवार, 17 जुलाई 2017

मेघ से उलाहना

  मेघ से उलाहना

उमड़-घुमड़ घनघोर घटाएं 
नख़रे दिखा-दिखा लौट जाती हैं 
चाहतों का घोर उल्लंघन कर
जी भर-भर मन को जलाती हैं  ,

देखें कब बूंदों के सोंधेपन से
भरेंगे नथुने,घटा बोध कराती है
कब रिमझिम बारिश की फुहारों से
सुखी धरती की कोख भींगाती है ,

ना जाने कब अँधेरों में टिप-टुप
कहीं-कहीं बूंदा-बांदी कर जाती है
दूसरे ही पल तैश में आकर
ऊष्मा पुनः अपना रौब दिखाती है ,

लगे हण्टर सी तपन सूर्य की
रेत सी वसुंधरा तड़फड़ाती है
नभ पर लगी सबकी है टकटकी
जाने ये किस ऐंठन में भाव खाती है ,

बेहाल हैं जीव-जंतु,वन्य प्राणी
देखें कब ताज़पोशी वर्षा की कराती है
जरूरत के मुताबिक कभी भी ये 
नहीं नाशपीटी रंग में आती है ,

कहीं बाढ़ का क़हर कहीं मार सूखे की
कभी-कभी बेढब ये व्यवहार दिखाती है
कभी अनहद बरस-बरस सब कुछ 
मनबढ़ सैलाबों में बहा ले जाती है ,

बरस सरसा जाओ सीना धरती का 
मिटाओ पल में ऊष्मा क्यों सताती हो
बनती क्यों कोपभाजन हर जुबान की  
कड़क-कड़क कर अवसाद भर जाती हो ,

सुनो गुहार मनहर मेघराज जी 
घटा दिग्भ्रमित कर चक्र्व्यूह रचाती है 
छलकाओ ना जरा गागर वृष्टि की
सूखे कंठ से मेंढकी टर्रटराती  है। 

                               शैल सिंह 










रविवार, 16 जुलाई 2017

ग़ज़ल " "कभी तो ढहेंगी दरो दीवार गलतफहमियों की

कभी तो ढहेंगी दरो दीवार गलतफहमियों की 


ये कैसा नशा प्यार का के बेवफाई के शहर में
टूटी उम्मीदें हैं बरकरार आज भी
भले बदल गए वो आते-जाते मौसम की तरह
इन आँखों में है इंतजार आज भी
कभी तो ढहेंगी दरो दीवार गलतफहमियों की
आस में दिल है बेक़रार आज भी 
दरमियां रिश्तों के खिले फूल से अल्फ़ाज़ जो
कानों में ताज़ी है झंकार आज भी
बहा ना ले आँखों की दरिया का सैलाब कहीं
फ़िक्र यादों का है अम्बार आज भी
कैसे समझाऊँ ख़्वाबों,साज़िशों के बाजार में
दिल हो रहा है शिकार आज भी
ये कैसा फलसफ़ा ज़िंदगी,मोहब्बत-दोस्ती में  
दर्द का मिले है गुब्बार आज भी | 

                                   शैल सिंह

मंगलवार, 11 जुलाई 2017

कविता '' हो रहे पृथक मैं-मैं से सभी ''

            कविता
 हो रहे पृथक मैं-मैं से सभी 


इक दिन जाना सबको पास उसी के 
जो तीनों लोकों का स्वामी है
भले-बुरे कर्मों का लेखा-जोखा
रखता ऊपर वाला अन्तर्यामी है ,

मत कहा करो जी तेरा-मेरा 
सब यहीं धरा रहा जायेगा
माटी का तन माटी में मिल
इक दिन ब्रह्मलीन हो जायेगा ,

बस ऐसे तत्वों को संग्रह करना 
जिससे मिले सुख,आनन्द भरपूर
हँसी तेरी बन जाये दवा रुग्ण की
जो निःशुल्क जिसमें प्रचुर मात्रा में गुर ,

विवेक की सम्पत्ति बाँट सभी में
संग धैर्य का रखना हथियार सदा
रक्षा कर विश्वास,संस्कार की रखना
रिश्तों में प्रीत की घोल सम्पदा ,

मुख पर ऐसी मुस्कान बिखेरो कि
पराये भी शामिल होकर हँसे
आँसू तेरी आँखों के होकर भी
बहते ही पराया होकर ख़ूब विहँसे ,

हो रहे पृथक मैं-मैं से सभी
चलो हम-हम का रिस्ता जोड़ें
इंसानियत,मानवता सबपर भारी
दम्भ हैसियत का सस्ता छोड़ें ,

ज्ञान,सम्मान,श्रद्धा,नम्रता,दया
जीवन तन के,शृंगार आभूषण हैं
प्रार्थना,विश्वास अदृश्य भले हों पर
कर देते असम्भव को भी धूसर हैं ,

वसीयत,भोग-विलास,विरासत में 
कभी ना भूलें कर्मों की प्रधानता
परमपिता रखते हिसाब-किताब सब 
जिनके कर्मों में होती सदा महानता। 

गुर---गुण

                   शैल सिंह

शनिवार, 1 जुलाई 2017

कविता एक शहीद की पत्नी की दारून व्यथा

एक शहीद की पत्नी की दारून व्यथा

डाल ओहार ताबूत तिरंगे की
अर्थी आई पिया की मैं सन्न रह गई
जन सैलाब का उमड़ा हुज़ूम दर
देख शव संग पिया की मैं सन्न रह गई ,

ख़त का मजमून पूरा पढ़ा भी न था
शहादत की खबर यूँ बता दी गई
थे जिनके लिए बेसबर दो नयन
झट चंन्दन की चिता सजा दी गईं ,

राह तकती महावर लगी एड़ियां
सुर्ख हीना हथेली रची रह गई
गजरे की लड़ियों गूंथीं वेणियां
सेज फूलों सजी की सजी रह गई ,

तोड़ बिखरा गईं कांच की चूड़ियां
झट माथे की बिंदिया मिटा दी गई
मेरे सिंगार के सारे असवाब भी
धू-धू करती चिता में जला दी गईं ,

श्वेत वस्त्रों का अभरण पेन्हाया गया
स्वर्णाभूषण वदन से हटा दी गईं
चाँद से मुखड़े पर थी भरी माँग जो
टार घूँघट झट लाली उठा दी गईं ,

टूटा कैसा क़हर मुझपे हा जिन्दगी
ज़िन्दगी भर को बिधवा बना दी गई
ओढ़ जाऊँ कहाँ लिबास वैधव्य का
शोक संग जब सगाई करा दी गई ।

मिली कैसी सजा मेरे जाबांज़ को
जवां ज़िन्दगी वतन पर लूटा दी गई
देशभक्त सीमा प्रहरी की ये दुर्दशा
मेरी हसीं देखो दुनिया मिटा दी गई ,

एक क़तरा गिरा देश की आँख से
दो बूँद श्रद्धांजलि की बस चढ़ा दी गईं
लुटा संसार मेरा सदा के लिए
सैनिक पिया की कृतियां भूला दी गई ।

ओहार--परदा , वेणियां--चोटी ,
असवाब--सामग्री ,

शैल सिंह

रविवार, 4 जून 2017

गर्मी पर कविता '' हे सूरजदेव तरस खाओ ''

हे सूरजदेव तरस खाओ


अकड़ इतनी नहीं अच्छी
जरा तेवर को वश में रखो
भीषण ताप से झुलसाना
दिनकर कलेवर पास में रखो ,

भाती भोर की शीतलता
उजाला दिन का,सूरज जी
बनकर अग्निपिण्ड का गोला 
मचाते क्यूँ हड़कम्प लपट से जी,

कड़कड़ाती धूप का क़हर
वदन है आग सी झुलसे
हे सूरजदेव तरस खाओ
घटा अम्बर से अवनि बरसे ,

इस मनमौजी प्रकोप से कब 
बताओ निज़ात दिलाओगे
कब बारिस की फुहारों से
दहक तन की मिटाओगे

पौधों को मार गया लकवा
खड़े निर्जीव क्यारी में
पांखी उन्मुक्त पड़े दुबके
नीड़ों की चारदीवारी में ,

लगता जान ले लेगी
असहनीय ऊफ्फ़ ये गर्मी
बताओ लाओगे कब मानसून
चिलचिलाती धूप में नरमी

जीना हो गया दूभर
लिसलिसाता तन पसीने से
मिले चन्दन सी शीतलता  
चढ़े तन वस्त्र झीने से ,

तेरे लू के थपेड़ों की
तीखी मार से बेहाल
तमतमाना छोड़ बिछाओ ना
घुमड़ते घन का महाजाल

तेरी ऊष्मा से सैर-सपाटे
चौपट अवकाश गर्मी की
सुबह अलसाई बड़ी होती
कड़ी दोपहरी गर्मी की ,

हे इन्द्रदेव निमन्त्रण देते
तुझे बाग़,तड़ाग,पशु,पक्षी
सूखे ताल,तलैया,पोखर
प्यासी मीन दरकती धरती |

                      शैल सिंह

सोमवार, 29 मई 2017

'' माँ पर कविता ''

'' माँ पर कविता ''


सबसे प्यारी सबसे न्यारी
पूज्यनीया है माँ
माँ से बढ़कर दुनिया में
नहीं कोई बड़ा इन्सान
माँ के आगे सब कुछ बौना
बौना लगे भगवान
माँ दुनिया की पहली अवतरण
जिसे कहते हैं माँ
कि तेरे जैसा कोई नहीं माँ
न तेरे जैसा सुन्दर नाम ,

माँ शब्द शहद से मीठा
आत्मीयता सोम सी माँ की
माँ सृष्टि सृजन की रचईता
सारे अनुष्ठान चरण में माँ की
सबसे बड़ा तीरथ माँ का दर्शन
चारों धाम परिधि में माँ की
माँ त्याग,तपस्या करुणा की देवी
पूजा,मन्त्र है जाप जहाँ की
कि तेरे जैसा कोई नहीं माँ
न तेरे जैसा सुन्दर नाम ,

तेरे गर्भ के गहन प्रेम की
उपलब्धि मैं माँ
तेरे बिना कहाँ सम्भव था
दुनिया में मेरा आना
कितनी पीड़ा दर्द सहा के  
मैं दीदार करूँ दुनिया का 
सारी दुनिया तुझमें समाई
कभी कर्ज़ चुके ना माँ का
कि तेरे जैसा कोई नहीं माँ
न तेरे जैसा सुन्दर नाम ,

तूं ममता की पावन मूरत
तेरा आँचल सुख का सागर
रात-रात भर जाग सुलाई
मुझको लोरी गाकर
तेरे आँचल की छाँव में छलका
निस दिन स्नेह का गागर
भींच सीने में सिर सहलाई
खिली अंक में मुझे लिटाकर
कि तेरे जैसा कोई नहीं माँ
न तेरे जैसा सुन्दर नाम ,

अतुलनीय तेरी ममता,मुझपे
जीवन सहर्ष न्यौछार दिया
कर्तव्य निर्वहन की बेदी पर
वैविध्य प्यार,दुलार किया
तुझ सा नहीं बलिदानी कोई
न तुझ सा माँ कोई उदार,
रक्तकणों से निर्मित कर दी
इतना बड़ा संसार 
कि तेरे जैसा कोई नहीं माँ
न तेरे जैसा सुन्दर नाम ,

सबसे अमूल्य तोहफ़ा ईश्वर की
कैसे शब्दों में बाँधूँ माँ को
सहा ना जाने कितनी मुसीबत
कभी आंच न आने दी मुझको
सबसे सुन्दर​ माँ की रचना 
माँ से सुवासित ये संसार
सर्वस्व लूटाकर बरसाई बस
आशीषों की तरल फुहार
कि तेरे जैसा कोई नहीं माँ
न तेरे जैसा सुन्दर नाम ,

कहाँ मिले तरुवर तले रे माँ
तेरे आँचल सी मीठी छाया
बहुत से रिश्ते दुनिया में पर
निःस्वार्थ न तुझ सी माया
गीली शैय्या सोकर तूने
दिया आँचल का नरम बिछौना
तेरे अंश को नज़र लगे ना
दिया काजल का चाँद ढिठौना
कि तेरे जैसा कोई नहीं माँ
न तेरे जैसा सुन्दर नाम ,

दुनिया में लाई श्रेय तुझे माँ
तेरी उँगली पकड़ सीखा चलना
तूं ही मेरी पहली प्रशिक्षक
तुझी से सीखा बोलना हँसना
हर मुश्किल में तूं संग मेरे
हर जिद पूरी तुझसे
गलत सही का फ़र्क भी जाना
तेरी बतलाई सीख से
कि तेरे जैसा कोई नहीं माँ
न तेरे जैसा सुन्दर नाम ,

भले तूं ओझल दृग से
तेरे एहसास की ख़ुश्बू तन में  
हर पल महसूसती आज भी
तेरी मौजूदगी माँ कण-कण में
तेरे स्पर्श को तरसें बांहें
अँकवार में भरकर रोने को
ढूंढ़ रहे तुझे नैन विक्षिप्त हो
घर के कोने-कोने को
कि तेरे जैसा कोई नहीं माँ
न तेरे जैसा सुन्दर नाम |

ढिठौना --नजर न लगे इसलिए काजल का टीका

                      शैल सिंह

मंगलवार, 23 मई 2017

राम मन्दिर पर कविता

मुख़्यमंत्री आदित्यनाथ योगी जी से राम भक्तों की गुज़ारिश 

   राम मन्दिर पर कविता 

भज-भज के सब राम के नाम
साध रहे बस अपने काम
राम के दिन कट रहे छतरी में
बैठे तिरपाल की बखरी में ,

भिंगो रहीं बारिश की बूँदें
तपा रहा तन घाम
हवा का निर्मम सह आघात
ठिठुर रहे सर्दी में मेरे राम,
सहा ना जाये राज में तेरे
योगी जी राम का ये अपमान
जल्दी से करवाओ बाबा जी
राम मन्दिर का आलीशान निर्माण ,

भौंकने वाले भौंकेंगे
उन्हें भौंकने दीजिये योगी जी
इस बात पे जल्दी अमल कीजिये
साथ में लेकर मोदी जी,
कहीं लक्ष्य अधूरा रह ना जाये
जल्दी खोजिये हल समाधान
असली गर्भ गृह पर ही मंशा,हो 
 राम मन्दिर का आलीशान निर्माण ,

अत्याचारी बाबर की निर्मम बर्बरता 
विध्वंस थी की रघुवंशी भव्यता
करोड़ों हिन्दुओं की आस्था का सवाल
इसपर क्यों मचा विवाद,बवाल ,
इसी स्थल पर कौशिल्या माँ की कोख़ से 
थे लिए राम जी अद्द्भुत अवतार
अयोध्या नगरी हिन्दू धर्म का धाम,हो 
राम मन्दिर का आलीशान निर्माण ,

कुछ से तो मोर्चा लेना होगा
कुछ से वार्ता का प्रावधान
दरकिनार कर देशद्रोहियों को
करना है तर्ज़ पर सोमनाथ के काम
यही सुनहरा अवसर योगी जी
क्यों देना किसी को कोई तथ्य प्रमाण
थे मर्यादा पुरुषोत्तम राम महान,हो 
राम मन्दिर का आलीशान निर्माण ,

जिद छोड़ बाबरी मस्ज़िद का
छोड़ आक्रांता बाबर का गुणगान
सहभागिता निभाएं उदार हृदय कर
हिन्दुस्तान के सारे भाई मुसलमान,
इक अत्याचारी की कारगुजारी पर 
हो बंद अब तो बखेड़ा,क़त्लेआम
राम भक्तों का सुनें आह्वान योगी जी,हो  
राम मन्दिर का आलीशान निर्माण |

                           शैल सिंह



शनिवार, 6 मई 2017

योगी जी पर कविता

         योगी जी पर कविता 


महर्षि रूपी मोती लाये मोदी जी खंगाल के
ये कीमती नगीना रखना पलकों बिठाल के ,
पारखी नज़रों से लाये खोज,हीरा तराश के
यू.पी.वालों कद्र करना योगी जी कमाल के ,

गरजता जो सिंह सा औ दहाड़ता है शेर सा
खुद के लिए न जिसका कुछ क्षुद्र स्वार्थ सा
वह ऐसा कर्मयोगी करता हिन्दुत्व की पैरवी
जिसपे जनता हुई न्यौछावर मुग्ध राग भैरवी ,

ऐसा कोहिनूर जाँच-परख़ ला सौंपा जौहरी
यू.पी.के तख़्त पे बैठा दिया दमदार चौधरी
जो निष्पक्ष द्वेषरहित करता निःस्वार्थ सेवाएं
स्वधर्म का हिमायती फ़िदा जिसपे फ़िज़ाएं ,

विरोधी तत्व ठप्पा लगाते सम्प्रदायवाद का 
इनका भाव राष्ट्र चिंतन अलख राष्ट्रवाद का 
भगवा रंग आत्मरुप हुंकार हिन्दुत्ववाद की
काट फेंक दिया जनता ने जड़ वंशवाद की ,

सर्वोपरि है राष्ट्र निर्माण हो उन्नत समाज का
निज की न कोई चाहत संकल्प कल्याण​ का
जिसने सुख,विलास तज धरा पथ निर्वाण का
वह संत बन गया है चहेता विस्तृत अवाम का।  

                                     शैल सिंह 

बुधवार, 3 मई 2017

'' कविता '' , '' वीर शहीदों के खूँ का बदला ''

        पाक की बार-बार नापाक हरकतों से आजिज़ एक सैनिक की मोदी सरकार से याचना ,हाल ही में सीमा पर हुए वीभत्स कांड से सारा देश आहत है और मोदी जी से सैनिकों के बंधे हाथ को खुली छूट देने की गुज़ारिश तथा कवायद में लगा है ,इसी परिप्रेक्ष्य में मेरी ये सामायिक रचना जो शायद अवलोकन करने वाले का भी दिल खौला दे और शहीदों के प्रति तथा देश के प्रति उन्माद जगा दे | 

    वीर शहीदों के खूँ का बदला


अब सही न जाये हानि जी
थोड़ा करने दो मनमानी जी  
जल्द खुली छूट दो मोदी जी
सर ऊपर हो गया पानी जी
सेनाओं का बढ़ा मनोबल
करने दो उत्पात तूफानी जी ,

कड़ी धूप के भीषण ताप में भी
डटा रहूँगा असह बरसात में भी
चाहे सर्दी की हो जैसी ठिठुरन
तूफांन,बवंडर की रात में भी
डिगा रहूँगा सीमा पर सीना ताने
दुश्मन बैठा हो चाहे घात में भी ,

डर नहीं बम,गोली बौछारों से
वतन की ख़ातिर मक्कारों से
चाहे भूख बिलबिला दे आहारों से
दर्द सह लैस रहूँगा औज़ारों से
जब तक तन आख़िरी सांस रहेगी
दहलाऊँगा खंग की टंकारों से ,

कभी पग पीछे नहीं हटाऊँगा
चाहे कितनी भी हों दुर्गम राहें
चप्पा-चप्पा आखों की गिरफ़्त में
रखूँगा दुश्मनों पर पैनी निगाहें
वीर शहीदों के खूँ का बदला
लूंगा आस्तीन चढ़ाकर दोनों बाँहें ,

हद कर दी पाक ने बर्बरता की
हमने मानवता की सजा ये पाई है
हमारे निर्दोष प्रहरियों की मोदी जी
देखो सिर कटी लाश घर आई है
हमें भी सर काट शत्रु के गेंद खेलना
जिद से भारत माँ की कसम खाई है ,

खौल रहा ख़ून बेसब्र धमनियों में
गर इक बार ईशारा मिल जाये
तबाही का ऐसा दिखलाऊँगा तांडव
कि पाकिस्तान की धरती थर्रा जाये
फिर पिशाच का पिल्ला तरेरकर
मजाल आँख उठाने की जुर्रत कर जाये  |

                                   शैल सिंह





गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

'' हम प्रेम का वृक्ष लगाएं ''

                     कविता 


विनम्रता और सहजता लाएं हम सब अपने जीवन में
क्यों तोड़ते जा रहे नित हम मानवता की परिपाटी को
अभिव्यक्ति की आज़ादी का प्रहार संवेदना के ढाँचे पर
उष्ण होती हृदय की तरलता,सामंजस्य का होता ह्रास
उदारता,सहिष्णुता,त्याग,दया का ,उर मरुस्थल होता आज
प्रेम स्वरूपा प्रकृति से कुछ नहीं सीखा हम सबने
निःस्वार्थ भाव से वृक्ष सदा हमें फल-फूल दिया करते हैं
फलों से लदी डालियाँ सदा झुकी शालीन क्यों रहती हैं
बिना शुल्क नदियां हमें सदा जल देती रहती हैं
फिर भी नहीं कभी कोई उलाहनें देती हैं
इनकी मौन प्रवृति से प्रेरित हो हम प्रेम का वृक्ष लगाएं
नदी की देख दानशीलता हम प्रेम की नदी बहायें
सबसे कठिन है प्रेम सभी से कर पाना और निभाना
पर प्रेम जरुरी जीवन में,हम समरसता की पौध उगाएं
अभिमान,घमंड,अहंकार से जीवन नरक बन जाता है
करुणा,संवेदना,परमार्थ,सौहार्द्र से हम जीवन स्वर्ग बनायें |

                                                   शैल सिंह


शनिवार, 15 अप्रैल 2017

अन्तर्चेतना की दृष्टि तो खोलो

अन्तर्चेतना की दृष्टि तो खोलो


सुख-दुःख किससे बाँटे प्राणी
हर हाल में दोनों ही देते संत्रास
सुख में ईर्ष्या दुःख में उपहास,

ऐसी हुई अवधारणा आज की
सम्बन्धों में आ रही ख़टास
अन्तर्चेतना की दृष्टि तो खोलो
जग वालों ना यूँ रहो उदास ,

निश्छल मन से सम्बन्धों को
जोड़-जोड़ करो हास-परिहास
समानता के पथ पर चल कर
मानवीय उदारता का दो आभाष  ,

सर्वमंगल की करो कामना
रखो परोपकार का मन में वास
स्वहित से तुम ऊपर उठकर
स्वार्थ,संकीर्णता को दो वनवास,

इसी में सबका सुख निहित है
व्यापक भावनाओं से भरें उजास
जीवन दो दिन का ना विषम बनाएं
जाना सभी को परमात्मा के पास ।

                                 शैल सिंह


मंगलवार, 11 अप्रैल 2017

'' हर शब स्याही चांद की भी रोशनाई में ''. एक मधुर गीत


कैसे कटे दिन-रैन तेरी जुदाई में
नैना भरे बरसात झरें तन्हाई में,

जबसे गये तुम छोड़ नगर
लगे वीरां-वीरां मुझे शहर
हवा गुलिस्तां से भी रूठ गयी
अजनवी लगे हर गली डगर
फब़े न जिस्म लिबास भरी तरूनाई में
अब वो आबोहवा रूवाब नहीं अरूनाई में,

कैसे कटे दिन-रैन तेरी जुदाई में
नैना भरे बरसात झरें तन्हाई में,

तुझे जबसे नज़र में कैद किया
कभी ख्वाब ना देखा और कोई
तेरी याद में गुजरी शामों-सहर
दूजा शौक ना पाला और कोई
खनखन बोले ना चूडी़ सूनी कलाई में
रूनझुन पैंजनी भी ना झनकी अंगनाई में,

कैसे कटे दिन-रैन तेरी जुदाई में
नैना भरे बरसात झरें तन्हाई में,

इस कदर हुआ बदनाम इश्क
हमें दर्द का तोहफा मुफ्त मिला
ख्वाहिशों पे पहरे लगे दहर के
मौसम भी रंग बदला यही गिला
हर शब स्याही चांद की भी रोशनाई में
जहर लगे है कूक कोईल की अमराई में,

कैसे कटे दिन-रैन तेरी जुदाई में
नैना भरे बरसात झरें तन्हाई में,

इक दिन खिले थे हम गुंचोंं की तरह
किरनों की तरह बिखरा जलवा
तेरे शुष्क मिजाज से हैरां दिल 
गुजरी क्या इस दौरां तूं बेपरवा
आनंद नहीं महफिलों की रंगों रूबाई में
थिरकन में भी लोच न जो धुन हो शहनाई में ,

कैसे कटे दिन-रैन तेरी जुदाई में
नैना भरे बरसात झरें तन्हाई में ।
                                               शैल सिंह

गुरुवार, 6 अप्रैल 2017

भजन

   '' भजन ''   


भगवन तुम तो बसे हो मन-मन्दिर
ईंट-पत्थरों के शिवाले क्यूँ जाऊँ
जब मन के नगर में तेरा महल
क्यूँ चौखट-चौखट सर टकराऊँ ,

तेरा रूप धार ली काया मेरी
प्रतिदिन अंग भभूत लगाऊँ
रच-बस गए हो प्रभु तुम मुझमें
नख-शिख रोम-रोम सुख पाऊँ ,

याचनाओं का अर्ध्य भेंट दी
दु:ख का मृगछाल बिछाऊं
निशि-वासर हूँ लीन भजन में
दीन-दशा का भोग चढ़ाऊँ ,

तेरे पांव पखारें नीर नयन के
दुःख की गागर छलकाऊँ
कहीं छवि ओझल ना जाये
डर से पलकें ना झपकाऊँ ,

तुम ध्यान मग्न मेरे उर गह्वर में
क्यूँ गुफ़ा कंदरा मन भटकाऊँ
जब मुझमें समाहित तुम प्रभुवर
क्यूँ दर-दर की जा ठोकर खाऊँ ,

एक बार नज़र तूं फेरे इधर
क्यूँ मन्दिरों की घण्टी खटकाऊँ
जब नज़रबन्द कर लिया तुझे
दिन रात दरश तेरा पाऊँ ,

                      शैल सिंह



गुरुवार, 16 मार्च 2017

होली अबकी बार

मोदी जी की जीत पर 

होली अबकी बार

मोदी लहर लील गई सबके सियासी चाल
बेदाग छवि पे मेहरबान जनता हुई निहाल

उन्मत्त उमंगों की होली होगी अबकी बार
क्योंकि बनेगी यूपी में बीजेपी की सरकार

नाना नवरंगों के गुलाल,उड़ेंगे अबकी बार
दिल से किया सभी ने है मोदी को स्वीकार

शेर,हुंकार भरेगा दुबकेंगे रंगे सभी सियार
क्योंकि धरती,नदिया,हुए अम्बर एकाकार

नमो-नमो जयकार में चित हैं सब भौकाल
किसी की बम्पर हार तो कोई हुआ बीमार

रंग अबीर पिचकारी ख़ुशी से गाल हैं लाल
कितने वर्षों बाद देश में आया ऐसा भूचाल

सात समंदर पार चर्चा,मोदी नाम बेमिसाल
विरोधी सुरों की अटकलें कैसे हुआ कमाल ।

                                           शैल सिंह 

बुधवार, 8 मार्च 2017

नारी दिवस पर

नारी दिवस पर 

मैं शक्तिस्वरूपा नारी जननी सम्पूर्ण जगत की
त्याग,दया,ममता की मूरत गौरव निज संस्कृति की
मैं लक्ष्मी,दुर्गा,सरस्वती हूँ अवतार अनवरत शक्ति की
युग निर्मात्री लिए सीमाएं,लक्ष्मण रेखाएं क्यूँ बनीं प्रकृति की
सीता,द्रौपदी,गंगा,कुन्ती को कीं कलुषित मानसिकता कुत्सित की
वही सबल बन अबला निष्ठुर जग की निर्मम अवरोधों को खंडित की
सह समाज के विषम थपेड़े नियति से लड़ खुद लिए उसने नव राह सृजित की
उड़ रही गगन में,हर क्षेत्र में बढ़-चढ़ हिस्सा स्वयं स्वरूपा ख़ुद को महिमामंडित की ।

                                                                                 शैल सिंह   

शनिवार, 4 मार्च 2017

वसंत ऋतु पर कविता

   वसंत ऋतु पर कविता 


बड़ा सुहावन मन भावन
लगे वसंत तेरा आना
थोड़ी सर्दी थोड़ी गर्मी
मौसम बड़ा सुहाना ,

इंद्रधनुष ने खींची रंगोली
सज गई मधुऋतु की डोली
बिखरा दी अम्बर ने रोली
धरती मांग सजा खुश हो ली
छितरी न्यारी सुषमा चहुँदिश
कलियाँ घूँघट के पट खोलीं
आई ठूँठों पे तरुणाई
भर गई उपहारों से झोली,

बड़ा सुहावन मन भावन
लगे वसंत तेरा आना।,

देख हरित धरणी का विजन
हुआ मन मयूर मस्ताना
पीली चूनर सरसों लहराई
उसपे तितली का मंडराना
पी मकरंद मस्त भये मधुकर
मद में मगन दीवाना
गूंजे विहंगों की किलकारी
कुञ्ज-कुटीर मलय भर जाना ,

बड़ा सुहावन मन भावन
लगे वसंत तेरा आना ,

अमराई महके बौराई
मधुकंठी तान सुनाये
देख वासन्ती मादकता नाचे
वन,वीथिक मयूरा बौराये
पछुआ-पुरवा की शीतल सुरभि
नशीला गन्ध जिया भरमाये
पापी पपीहरा पिउ-पिउ बोले
सुध विरहन को पी की सताये ,

बड़ा सुहावन मन भावन
लगे वसंत तेरा आना ,

चित चकोर तिरछी चितवन से
अपने सजन से करे निहोरा
मूक अधर और दृग से चुगली
करे दम-दम सिंगार-पटोरा
प्रकृति नटी भरे उमंग अंग औ
वाचाल कंगना हुआ छिछोरा
बूझे ना अनुभाव बलम अनाड़ी
कंचन देह अंगार दहकावे मोरा ,

बड़ा सुहावन मन भावन
लगे वसंत तेरा आना ,
`
वासन्ती दुपहरिया में गर
संग प्रियतम मेरे होते
प्रीत रंग में नहा सराबोर
हम सारा अंग भिगोते ,
धारे पीत-हरा रंग धरा वसन
चिरयौवन दिखलाये
बहे उन्मादी फागुनी हवाऐं
चाँदनी उर पे बरछी चलाये ,

बड़ा सुहावन मन भावन
लगे वसंत तेरा आना ,

लगे नववधू सी वसुधा
सूरज प्रणय निवेदन करता
अवनि हुलास से इठलाये
होंठों पे शतदल खिलता ,
टेसू,गुलाब,हरसिंगार,पलाश
मौली,कचनार पे पवन है रीझता
मनमोहक बिछा है इन्द्रजाल
दिग-दिगन्त सौन्दर्य दमकता ,

बड़ा सुहावन मन भावन
लगे वसंत तेरा आना ।

                            शैल सिंह

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2017

चुनावों की बेला में ,मेरी ये कविता

 एक विनम्र निवेदन देश की जनता से 

हमें विश्व गुरु है बनना हर मन सपना ये बुनवाना होगा
अराजकता,अत्याचार,अनाचार का कोढ़ दूर भागना होगा
राष्ट्रीय पुष्प का कर अभिनन्दन बहुमत का अर्ध्य चढ़ाना होगा
ईमानदारी,नैतिकता,जनसेवा हित कमल का फूल खिलाना होगा ,

हिंदुस्तान के हिन्दुओं को अकल तभी अब आएगी
जब उसकी ही सरजमीं पर फसल दूजी क़ौम उगायेगी
सपा,बसपा,काँग्रेस को तो नफ़रत अयोध्या नगरी के राम से
ग़र नहीं चेता हिन्दू अब भी मिट जायेंगे हम अपने ही चारों धाम से ,

गढ़-गढ़ में कमल खिला दे जनता ग़र यूपी के कीचड़ में
चोर,उचक्के सारे माफ़िया बंद हो जायेंगे जेलों के सीकड़ में
ना गुंडागर्दी हत्या,बलात्कार ना होगा कैराना,दादरी जैसा काण्ड
ना एक मंच पर सांठ-गांठ कर खड़े होंगे साथ फिर सारे भड़ुवे भांड़ ,

हाथी,पंजा,साईकिल ने बना दिया जैसे यूपी को चम्बल
मज़हब की दीवार खड़ी कर करवाते रहे आपस में दंगल
इक थैली के चट्टे-बट्टे बन गए सियासत कर इक दूजे के संबल
मेधावों को कर दरक़िनार सदा वर्ग विशेष का ये करते रहे सुमंगल ,

कितना जाति,धर्म के दाँवपेंच का देना होगा प्रमाण
सर्वधर्म,समभाव,सर्वांगीण विकास का तभी होगा निर्माण
जब हर तबके के लोग होंगे मोदीमय,धर्मों,वर्णों का होगा कल्याण
भगवा धारियों से द्वेष रखने वाले भी करेंगे दिल से मोदी का गुणगान ,

लोकतंत्र के इस महापर्व को विवेक के रंग से रंगना होगा
राष्ट्रहित के लिए जन-मन को यूपी का भविष्य नया रचना होगा
हर मज़हब के हिंदुस्तानी बाशिन्दों तुम्हें भारत माता कहना होगा
कश्मीर से कन्याकुमारी के दुर्ग को केसरिया भगवा रंग से भरना होगा ,

सोने की चिड़िया गुमसुम बैठी राजनीति की शाख़ पर
धधक रही धरा हिन्द की ज़हरीली जाति,मज़हब की आँच पर
तिलमिला उगलते विष सदा विरोधी आग क्यों लग जाती साँच पर
सिरफिरे बेंच खायेंगे देश की आबरू जश्न मनाएंगे वतन की ख़ाक पर ,

देशद्रोहियों,गद्दारों के मनसूबों के महल गिराने होंगे
जाति,धर्म का ज़हर उतार गुमराहों को सिरे से समझाने होंगे
लाना अमन-चैन ग़र रामराज्य हम सबको सारे मतभेद मिटाने होंगे
मनभेद कराने वाले चालबाजों को इस चुनावी संग्राम में धूल चटाने होंगे।

जय हिन्द ,जय भारत
    

शनिवार, 21 जनवरी 2017

तुम कहाँ हो बोलते

सर्प दंश से भी बढ़ कर
घातक तुम्हारा मौन है ,

तुम कहाँ हो बोलते
बोलती तुम्हारी चुप्पियाँ हैं
मौन की भाषा अबोली
कह देतीं मन की सूक्तियां हैं ,

इतनी विधा के भाव समेटे
अधर विराम चिन्ह क्यों हैं
शब्दों को रखते मापकर
स्वभाव इतना भिन्न क्यों है,

क्या-क्या उधेड़ बुनकर
दिन रात तुम हो जी रहे
कौन सा ऐसा गरल जो
मौन घोंट कर हो पी रहे,

मौन तो हो तुम मगर
बोलती देह की भित्तियां हैं
किस खता पे सौगंध तुमको
बन रही कड़वी पित्तियाँ हैं,

किताब भर ब्यौरा समेटे
क्यूँ रखते अधर के बंद पट
अंदाज की चंठ झाँकियाँ
झाँकतीं नैन के पनघट,

जब कभी गर खोलते हो
भानुमति का बंद पिटारा
बस गोल मोल बोल करते
चन्द सा अस्फुट निपटारा,

जीने लिए इस किरदार को
मजबूर क्यों हो बोल दो
चुपचाप की इन खिड़कियों को
भड़भड़ाकर खोल दो,

मूल्यवान मेरे हजारों शब्द से
मौन की कुपित दृष्टियां  हैं
आत्मज्ञान की तुम खोज में
मगर रहतीं तनी भृकुटियां हैं ,

वास्ता मुझसे अगर है
मैं वजह हूँ मौन की
तो ओ विरागी पूछती हूँ
ढीठ बन मैं कौन हूँ,

तुम बंद सीपी की तरह
मैं प्रश्नों का बादल हूँ बस
ग्रीवा के हाँ,ना उत्तरों से
छीज-खीझ घायल हूँ बस,

कभी मौन कड़के बिजलियों सी
अन्तर्द्वन्द की कुण्डी तोड़कर
जलजला इक छोड़ मौन
फिर चुप की चुन्नी ओढ़कर,

देख नयन की घन घटा भी
फर्क नहीं पड़ता कोई
गुम रहते तुम अपनी घुन में
इस ढंग पे मैं कितना हूँ रोई,

जिंदगी के लघु मंच पर
मन में कितनी गुत्थियाँ हैं
मन के तल का शोर झंकृत
कर देतीं भाव वृत्तियाँ हैं,

अब नहीं मोहताज हूँ मैं
कि हँस के जरा तुम बोल दो
कर ली ख़ुशी के औज़ार ईज़ाद
मत कहना कि इसकी पोल दो,

इस मौन से भली कविता मेरी
इस चुप से सुन्दर लेखनी
कोरे कागज़ों से मेल कर
फूंक-फाँक ली मन की धौंकनी ,

चंठ --बदमाश
मेल -- दोस्ती
                         शैल सिंह


सोमवार, 16 जनवरी 2017

देशभक्ति गीत

       एक देशभक्त सिपाही के उद्वेग का वर्णन गीत वद्ध कविता में ,

बाँधा सर पे कफ़न हम वतन के लिए
जांनिसार करना मादरे चमन के लिए ,

मत प्रिये राह रोको कर दो ख़ुशी से विदा  
भाल पर मातृ भूमि का रज-कण दो सजा
दिल पे खंजर चलातीं हरकतें दुश्मनों की
लेना सरहद पे बदला हर बलिदानियों का ,

है पिता का आशीष गर दुआ साथ माँ की
प्रिये होगी विजय मुश्किले हर हालात की
रखना इंतजार का दीया दिल में जलाकर
सलामत रहा होगी बरसात मुलाक़ात की ,

अश्कों के बाल दीप ना बुज़दिल बनाओ 
ना कजरे की धार की ये बिजली गिराओ  
पिघल न जाये कहीं मोम सा दिल ये मेरा 
विघ्न के इस प्रलय की ना बदली बिछाओ ,

महबूब ये वतन तेरा वतन से प्यार करना 

वतन की आबरू लिए सुहाग वार करना 
माँग अपनी संवारो संकल्प के सामान से
कंगना कुंकुम ना रोको न मनुहार करना ,

कायराना कमानों का न आयुद्ध जुटाओ 
आरती के थाल आज़ सम्मान से सजाओ
धरा पलकें बिछा पथ निहारती सपूत का 
फर्ज़ का यह कटघरा न मुज़रिम बनाओ ,

है ललकारता नसों में नशा इन्क़लाब का 
तूफां से लड़ते देखना कश्ती के ताब का 
व्यर्थ ये जनम जो वतन के काम आये ना 
व्यर्थ रक्त शिराएं जिसमें उबाल आये ना , 

मक्कारियों से दुश्मनों के आजिज़ हैं हम 
बार-बार क्यूँ हुए शिकार साज़िश के हम
हौसलों के आग से तबाह करना शत्रु को 
भेंजो रणसमर न नैन कर ख़ारिश में नम , 

जीना मरना राष्ट्र हित लिए आरजू है मेरी 
कर्ज़ माँ का फ़र्ज निभाऊँ जुस्तजू है मेरी 
मौत आये ग़र अर्थी पर कफ़न हो तिरंगा 
शहादत पे सुनना आख़िरी गुफ़्तगू ये मेरी , 

ये तन समर्पित सरज़मीं पे देश प्राण मेरा 
ऐसा बनूँ मैं प्रहरी लगे सारा आवाम मेरा 
रखूँ अखण्ड देश को मैं लाल भारती का 
माँ भारती की आन पर कुर्बान जान मेरा ,

वतन पे मिटने वालों दिल से तुम्हें सलाम 
मिटना हमें क़ुबूल ज़िन्दगी वतन के नाम 
वफ़ा की मेरे खुश्बू सने माटी में वतन के 
शौर्य,शूरवीरता पे मिले हमें बस ये इनाम।   

                                     शैल सिंह 


   

रविवार, 8 जनवरी 2017

नव वर्ष पर कविता

भय,आतंक से मुक्त हो नया साल ये



सन सोलह ने कहा अलविदा
नव वर्ष तेरा अभिनन्दन कर
किया जग बेसब्री से इन्तज़ार
नव वर्ष तेरा शत वन्दन कर ,

ठसक से नवागत साल ले आना
नेमतें नई खुशियों की नियामतें
पर्यावरण,देश,समाज का विकास
है नवीन श्रृंखला में हमें तराशने ,

तुझसे उम्मीदें ख़ुशियों के सौगातों की
मंशा कारनामों के नए-नए आयामों की
पुलकित मन उल्लसित हर्षित जीवन हो
महकें दसों दिशाएँ नूतन निर्मित कन हो

ठहरे हुए वक्त को पर लग जाये
नवागत वर्ष में जन-जन का उत्कर्ष हो
धर्म,मज़हब की पट जाये गहरी खाई
फिर ना सियासत,नफ़रत सा संघर्ष हो  ,

भ्र्ष्टाचार,ग़रीबी,फ़रेब,अन्याय का
प्रेम,सौहार्द,स्नेह भाव से हो निष्कर्ष
हिंसा,द्वेष,घृणा,निराशा,दुर्घटना को
नव प्रभा निगल ले ऐसा हो नव वर्ष

भय,आतंक से मुक्त हो नया साल ये
दंगा,फ़साद,क़त्ल ना कोई बवाल हो
नया साल हो तेरा ऐसा पूण्य आगमन
बढ़े प्रभुत्व देश का हर का ख़याल हो ,

नित नव रंग भरो जीवन के उपवन में
नवीन चेतना,ईमान का करो जागरण
विमल हृदय,मनोवृत्ति हो सकारात्मक
श्रम,निष्ठा,परोपकार का भरो आचरण ,

दुःख-दर्द,पीड़ा,कटुता,कलेश हर लेना
भाईचारे,सद्दभाव की चादर फहराकर
अनसुलझी सुलझाना पिछली पहेलियाँ
सुख समृद्धि बरसा देना नीहार हटाकर।

नीहार--धुंध,कुहासा
                                    शैल सिंह













बड़े गुमान से उड़ान मेरी,विद्वेषी लोग आंके थे ढहा सके ना शतरंज के बिसात बुलंद से ईरादे  ध्येय ने बदल दिया मुक़द्दर संघर्ष की स्याही से कद अंबर...