जितने भाव उमड़ते उर में
जितने भाव उमड़ते उर में
शब्द ज़ुबां बन जाते हैं
जहाँ अधर नहीं खुल पाते
झट सहगामी बन जाते हैं
खुद में ढाल जज़्बातों को
मन का सब कह जाते हैं |
जहाँ अधर नहीं खुल पाते
झट सहगामी बन जाते हैं
खुद में ढाल जज़्बातों को
मन का सब कह जाते हैं |
'' घूँघट जरा उलटने दो ''
आयेंगे मेरे प्रियतम आज आँखों में अंजन भरने दो
संग प्रतिक्षित मेरे संगी-साथी आज मुझे संवरने दो ,
घर की ड्योढ़ी साजन को पल भर जरा ठहरने दो
दिवस काटे दर्पण सम्मुख नयन में उनके बसने दो ,
जी भर किया सिंगार उन्हें जी भर जरा निरखने दो
हों थोड़ा बेज़ार वो उर उनका भी जरा करकने दो ,
देखें चांदनी का शरमाना वो घूँघट जरा उलटने दो
संग खेलूं सावनी कजरी बांहें डाल गले लिपटने दो ,
अपलक देखें इक दूजे को थोड़ा आज बहकने दो
देखूं चन्दा की भाव-भंगिमा थोड़ा आज परखने दो।
'' कोई याद आ रहा है ''
रुमानियत भरा ये मौसम शायरी सुना रहा है
गा रहीं ग़ज़ल फ़िज़ाएं अम्बर गुनगुना रहा है ,
मुँह छिपाये घटा में बादल खिलखिला रहा है
इन्द्रधनुष भरे मृदुल आह्लाद मेघ लुभा रहा है ,
प्रफुल्ल पात-पात गले लग ताली बजा रहा है
महक रहीं दिशाएं वातावरण मुस्कुरा रहा है ,
मन्जर सुहाना सावन का बांसुरी बजा रहा है
अलमस्त अलौकिक छटा माज़ी जगा रहा है ,
बीते मधुर पलों को समां चित्रित करा रहा है
पुराने हसीं यादगारों का जख़ीरा गिरा रहा है ,
आँगन उतर चाँद आहिस्ता,दिल जला रहा है
इतना ख़ुशगवार लमहा कोई याद आ रहा है ।
एक क़तरा तो देखें
दर्द का लावा फूटता जब जख्में-ज़िगर से
आंखों से दरिया बन बहता है बरसात सी ,
इस बरसात में तुम भी कभी भींगो अगर
तो जानोगे होती मजा क्या है बरसात की ,
तो जानोगे होती मजा क्या है बरसात की ,
घड़ियाली आंसू जो कहते हैं इस नीर को
एक क़तरा तो देखें क्या इसमें बरसात सी ,
एक क़तरा तो देखें क्या इसमें बरसात सी ,
घटा के ख़ामोश रौब का तो अन्दाज़ होगा
प्रलय मचा देता जब फटता है बरसात सी ,
प्रलय मचा देता जब फटता है बरसात सी ,
जिस दिन अना मेरी मुझको ललकार देगी
फिर ना कहना कैसी बला की बरसात थी।
फिर ना कहना कैसी बला की बरसात थी।
कैसे खड़ा ख़िज़ाँ में शज़र
ऐ हवा ला कभी उनके घर की ख़बर
जबसे मिलकर गए न मुड़के देखा इधर
जा पता पूछ कर आ बता कुछ इधर
क्यों बदल सी गई हमसफ़र की नज़र |
ऐ बहारों कभी जाओ मेरे दर से गुजर
जा पता पूछ कर आ बता कुछ इधर
क्यों बदल सी गई हमसफ़र की नज़र |
ऐ बहारों कभी जाओ मेरे दर से गुजर
देख जाओ कैसे खड़ा ख़िज़ाँ में शज़र
जिसकी हर शाख़ पे थे वो मचाये ग़दर
हो गए बेखबर क्यूँ आजकल इस क़दर ।
हो गए बेखबर क्यूँ आजकल इस क़दर ।
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