मैं नेह की शीतल समीर हूँ
मैं नदी हूँ मन की नदी,
बहुत कुछ अपने अतल अंतर में समेटे हुए,
मुझमें भी समुद्र सी लहरें हैं उफान और तरंगें हैं,
मैं समन्दर की तरह भीतर के अबोध रेत को ,
किनारों पर उगल ऊंची-ऊंची छलांगें नहीं लगाती।
मैं नदी हूँ मन की नदी शान्त,चिर स्निग्ध ,
अपने विस्तार को, मन के परिसर में ,
चुप्पी की चादर में ओढ़ाकर ,
बाह्य जगत से दूर रखती हूँ।
जब कोई शरारती कंकड़ ,
मेरी सतह से छेड़खानी करता है ,
मैं एक बुलबुला छोड़ उस परिदृश्य को ,
जज्ब कर लेती हूँ ,अपने मन के भूगर्भ में ,
पर उस शरारती तत्व को पथरी के रुप में,
वही पथरी जब अतिशय बड़ी हो ,
असहनीय दर्द का आकार लेती है ,
तब कहीं मैं फूटकर टेढ़ा-मेढ़ा राह बनाती हूँ ,
और कर देती हूँ नदी को छिछला ,
मैं नदी हूँ ,मुझमें रहस्य है ,मर्म है,संयम है ,
एक सीमा तक स्थिरता और सहनशीलता भी
मैं बावड़ी हूँ, बावली नहीं, उतावली नहीं
प्रात में मेरे मन के विशाल प्रांगण में
सूर्य किरणों संग अठखेलियां करता है
सांध्य में चाँद मेरी गहराई में समां
तारे सितारों संग रंगरेलियां करता है
मैं नेह की शीतल समीर हूँ
मैं खारी नहीं, मैं सूखी कछार भी नहीं,
मैं समंदर की तरह उफनाती चिंघाड़ती भी नहीं
बस बिचलित होती हूँ ,जब आहत होती हूँ ,
मैं नदी हूँ, मन की मौन नदी ,मुझे नदी रहने दो
मुझमें समा समझने की कोशिश करो या ना करो ,
मैं नदी हूंँ , स्थिरता मेरी परिपाटी मेरी विरासत ।
शैल सिंह
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