कविता आख़िर वो है कौन
खो न जाएँ भाव कहीं
कलम हाथ ने गह ली
दर्द, खुशी, गम ,तन्हाई,
उदासी शब्दों ने पढ़ ली
उमड़े-घुमड़े उद्गारों की
लेखनी नब्ज़ पकड़ ली
अनकही अभिव्यक्ति मेरी
काव्य कड़ी में गढ़ दी
मन की मौन कथा व्यथा
पन्नों पे उसने ने जड़ दी ।
तुम हो मेरी आत्मबोध
तुमसे करके आत्म विलाप
मैं सहज हो लेती हूँ।
आत्मलोचना तुम हो मेरी,
आत्मवृतान्त तुझे सुना
मैं सहज हो लेती हूँ।
अस्मिता का बोध कराती
हँसि,खुशी,दुःख तुझसे बाँट
मैं सहज हो लेती हूँ।
तुम मेरे हर रंगों की पहचान
तेरा स्वागत कर
निजी ज़िन्दगी के दरवाजों से
मैं सहज हो लेती हूँ।
तूं मेरी चुलबुली सखि
बेझिझक अक्सर कर
तन्हाई में तुझसे बातें
मैं सहज हो लेती हूँ।
आत्मविस्मृति की परिचायक
तेरी पनाहगाह में आकर
मैं सहज हो लेती हूँ।
अन्तर के छटपटाहट को भाँप
मुझे सहज कर देती हो।
कभी वजूद को ढंक लेती हो
कभी उजागर कर देती हो।
कभी तो भटकाती हो
शब्दों के अभयारण्य में
कभी शब्दों के लच्छों के
सुन्दर,विराट वितान में
मेरी अवधारणाओं को
अपने सम्बल का देकर पनाह
मुझे सहज कर देती हो।
सपनों के उदास कैनवास पर
उम्मीदों के बहुविध रंग बिखेर
मुझे सहज कर देती हो
विचलित जब भी मन होता
तुम स्वच्छंद,मुक़्त,मुखर हो
मेरे स्वभावानुकूल शब्दों में
कविता की लड़ियाँ गूंथकर
मुझे सहज कर देती हो।
मेरे जीवन संघर्ष की
परिचारिका या सेविका
आख़िर वो है कौन,
मेरी रचना मेरी कविता,
मेरी सुर साधना
मेरी क्रिया,प्रतिक्रिया
मेरी विश्वशनीय सहचरी
मेरी रचनाधर्मिता कविता।
शैल सिंह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें