गुरुवार, 31 जनवरी 2013

मेरी ग़जल

         ग़ज़ल


ज़ख़्म गहरा दिया है तुमने
       मेरे ऐतबार को
सिला कैसा दिया है तुमने
      मेरे इन्तज़ार को
         ज़ख़्म  .......

लब हैं ख़ामोश लहर सीने में
      उठा देखा कि नहीं
तूफ़ां  का  क़हर  कश्ती  पे
     बरपा देखा कि नहीं
सहना देखा सितम का उफ़ां 
   ज्वार  का देखा कि नहीं 
सब्र कैसा दिया है तुमने
   मेरे इख़्तियार को
       
 ज़ख़्म  .........

बेरुख़ी क्यों वजह क्या आख़िर
     कुछ तो बता दिया होता
शीशा-ए-दिल टूटने से पहले
     खुद को समझा लिया होता
टूटा है भरम तेरा ऐ दिल,रस्क 
     इतना ना किया होता 
किस ख़ता की दी सजा ऐ वफ़ा
       दिले बेक़रार को
            
 ज़ख़्म   ..........

अंजुमन में ख़्वामख़्वाह आना
     तरन्नुम बनकर बेजां 
बेवक़्त बज़्म से उठकर जाना
     रुसवा किया है बेजां
ग़म है नग़मों से क्यों है छिना
    शाम-ए-क़रार बेजां 
दिया लम्हा उदास तुमने
      ऐसे फ़नकार को
          
 ज़ख़्म   .......... 
                                                  शैल सिंह 

ये चन्द शेर


                     चन्द शेर 

लुटा कर दिल का ख़ज़ाना किसी पर खाली हो गई
दिन ढल गए जवानी के हालत भी माली हो गई ।


इक वो भी ज़माना था जब देख भरते थे लोग आहें
फ़रेबी मान चाँद का टुकड़ा फेरी सभी से थीं निगाहें।


ज़ालिम निग़ाहों का कुसूर आज क्या ये हश्र हो गया
जमात दर्द भरी शायरी का देखो ज़िंदगी में भर गया।


दरक-दरक कर ढह रहीं आज अरमानों की मीनारें
किसी ने ऐसी लगाई आग कि दिल में पड़ गईं दरारें।


इक दौर था जल रहा ज़माना था हम मुस्करा रहे थे
झूमते नज़ारे,मस्ती भरा आलम और गुनगुना रहे थे।


इस क़दर क्यों बेवफाई,इश्क़ रुसवा जहाँ में हो गया
इल्ज़ाम हुस्न पर लगा बदमज़ा दामन में शूल रह गया।
  




बुधवार, 30 जनवरी 2013

मौजूदा हालात पर

 मौजूदा हालात पर

सर  बांधो  तिरंगा  सेहरा माँ
कर  दु धारी  तलवार   थमा
फौलादी   बाँहें    मचल  रहीं
ख़ौल रहा ज़िस्म में लहू जमा।

माथे तिलक लगा विदा कर
प्रण है रण में  जाना मुझको
शीश काट बैरी दुश्मनों का
चरणों में तेरे चढ़ाना मुझको।

चीत्कार रहा है सिहर कलेजा
पिता,पति,पुत्र खोया है वतन
क़ायरों ने घोंपा है पीठ में छुरा
शांति अमन के हर व्यर्थ जतन।

जननी बूंद-बूंद क़तरे-क़तरे का 
लूँगा हिसाब ज़ाहिल भौंड़ों का
अभी घावों का सुर्ख गरम लोहा
करना घातक वार हथौड़ों का।


बड़े गुमान से उड़ान मेरी,विद्वेषी लोग आंके थे ढहा सके ना शतरंज के बिसात बुलंद से ईरादे  ध्येय ने बदल दिया मुक़द्दर संघर्ष की स्याही से कद अंबर...