सोमवार, 10 जून 2013

खतों के मजमून

शैल सिंह                                                          

                                                                                               
     समझ में नहीं आता कहाँ से आरम्भ करूँ,आज जब कुछ लिखने बैठी तो बीते हुए समय की तमाम छोटी-छोटी घटनाएँ जेहन में कहानी बनकर उभर आईं। लिखने की प्रवृत्ति बचपन में ही प्रबल हो उठी थीं शायद,तभी तो कक्षा तीन की अबोध सी पगली कही जाने वाली तानी ने अपनी लेखन शैली से बड़े-बड़े काम कर दिखाए। जिस उम्र में अभी बच्चे कलम दावात पकड़ते थे उस समय तानी अड़ोस-पड़ोस के लोगों का भावप्रवण,लच्छेदार चिट्ठियां लिखा करती थी,वह समय यानि गाँव का प्राइमरी पाठशाला,कक्षा दो तक जो दुधिया और नरकट की  कलम तक सीमित था,कक्षा तीन से फाउन्टेन पेन से लिखने की इजाज़त मिलती                    थी,और उस स्याही भरी कलम से लिखने की ललक ने ही शायद तानी में ये ज़ज्बा पैदा किया होगा,मात्र पेन पकड़ लेने से ही जैसे बड़े होने का अहसास होता था। छुटपन की गुदगुदी कर देने वाली ऐसी ही ना जाने कितने तमाम वाकयात हैं जो आज के ज़माने के लिए आम बातें हैं।आज की पीढ़ी के लिए उपहास भी साबित हो सकती है ।
  इस तथ्य से सम्बन्धित कुछ विवरण देना जरुरी है, उसका बहुत बड़ा परिवार था यानि चार दादाजी लोगों का सम्मिलित चहल-पहल वाला परिवार,उनके बाल-बच्चे, मिला-जुलाकर हँसता-खेलता'सिमित साधनों में भी संपन्न प्रतिष्ठित घराना,उनमें तीसरे नम्बर वाली दादी की थोड़ी दयनीय स्थिति थी ,कारण दादा जी युवावस्था में ही सन्यासी हो गए थे,बहुत सालों तक उनका कुछ अता-पता नहीं चला। उनकी तीन बेटियां और सबसे छोटा बेटा था।धुँधली सी दादा जी की छवि आज भी याद है,वो आये थे जब उनकी माँ का देहावसान हुआ था,मरने की खबर पाकर क्षणिक समय के लिए पर दादी से उनका आमना-सामना नहीं हुआ था बाहर बैठक में गाँजा पीते हुए लम्बी-लम्बी दाढ़ी रखे हुए,लोग-वाग कुतूहल वश उन्हें देखने आ रहे थे बस इतना ही याद है क्यों कि तब मैं बहुत ही छोटी थी,उम्र का सही हिसाब किताब नहीं मालूम। दादी सधवा होते हुए भी विधवा की जिंदगी जीती रहीं जिठानी, देवरानी और घर की बहुओं की उपेक्षाओं के बीच।
    सबसे बड़े दादा जी का सबसे बड़ा बेटा होने के नाते एकमात्र मेरे ही पिताजी पुरे घर की जिम्मेदारी निभाते थे तथा पुरे घर का  संचालन करते थे बिना अपने परायेपन का भेदभाव किये। अपनी छोटी सी आमदनी में सभी सगे एवं चचेरे बहन भाइयों को पढ़ाना लिखाना शादी ब्याह करना सबको समान दृष्टि से देखना उनकी चरम  महानता को दर्शाता है। मेरी अपनी कोई सगी बुआ नहीं थीं,वही सन्यासी दादाजी की तीन बेटियां ही हमारी सगी बुआ से बढ़कर थीं।होश संभालने तक तीनों बुआ की शादी हो चुकी थी।
     घर में सब लोगों के होने के बावजूद भी तब मैं कितनी छोटी थी दादी अपनी भावनाओं का पिटारा अपनी दुखती गाथा किससे साझा करतीं और ख़त लिखवाती ऐसे में एकमात्र मैं ही जरिया थी ,हर दूसरे तीसरे दिन लिफाफा,अन्तेर्देशी,पोस्टकार्ड पर अपने मायके तथा बुआ लोगों के लिए मुझसे पत्र लिखवातीं। वो अपनी भोजपुरिया ग्राह्य भाषा में दिल का सारा गुब्बार,आलोड़न ,सुख-दुःख विह्वल कर देने वाली बातें लिखवातीं,उस समय इनके अर्थों से मुझे कोई सरोकार ना होता और ना ही इनकी गहराइयों का पता होता बस लिखती जाती सरपट अपनी सुन्दर भाव उगलने वाली अच्छे लेखक जैसी भाषा में तब्दील कर, मेरी लिखी चिट्ठियां लोगों पर छाप छोड़तीं।बचपन की उसी लिखने की आदत ने आज मुझे मेरे मुकाम तक पहुँचाया ,दादी आज इस दुनिया में नहीं हैं,बुआ लोगों से भी कोई संपर्क नहीं रहा पर इस लिखने की कला का सारा श्रेय दादी को ही देना चाहूँगी। ना वो पत्र लिखावातीं ना उस छोटी सी उम्र वाली तानी में ऐसी कला पनपती।पांचवी कक्षा के बाद गाँव छूट गया। गाँव क्या छूटा गाँव के माटी की महक से ही जुदा हो गई। उसके बाद की सारी शिक्षा-दीक्षा शहर से हुई,गाँव से इतना लगाव था कि दो दिन की भी छुट्टी मिलती या कोई आ जा रहा होता साथ गाँव चली जाती । चाचा,चाची,ताई वहां के बड़े बूढ़े सभी भाई बहनों तथा सखी सहेलियों से इतना लगाव था कि शहर रास ही नहीं आता था। पांच घरों का यानि पांच पट्टीदारों का छोटा सा अपना गाँव इतना खुशहाल,पांचों घरों में आपसी सौहार्द,मैंने कहीं नहीं देखा,कभी लगा ही नहीं कि सब आपस में एक दुसरे से जुदा हैं। किसी भी घर की शादी व्याह में सभी परदेशी सम्मिलित होते,एक दुसरे के रिश्तेदार भी एक दुसरे के घर में अपनापन महसूस करते।
       शहर आकर भी चिट्ठी लिखने का सिलसिला थमा नहीं सफर जारी रहा।हमारे मोहल्ले में हर तरह के लोग रहते हैं। छोटे-बड़े ऊँच-नीच,कुछ तो ऐसे भी 'लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर'। अपने लिखने की महारत की तारीफ करना शायद बड़बोलापन लगे,पर इन चिट्ठियों ने कईयों के उजड़े हुए कई घर बसाये जो टूटने के कगार पर ही नहीं वरन टूट चुके थे। सुतरी हरिजन का दांपत्य जीवन तो उसके पति के परिवार वालों ने नरक कर दिया था । पति थोड़ा पढ़ा लिखा सुलझा इन्सान था तभी तो सुतरी द्वारा लिखाई गई मेरी चिट्ठियों ने उस पर असर दिखाया था पर उसके परिवार वालों के आगे उसकी चलती न थी यहाँ तक कि उसके लिए दूसरी शादी तक का प्रस्ताव भी स्वीकार कर लिया गया था,जब सुतरी को पता चला था आंसुओं से तर-बतर मेरे पास आई थी पति को  पत्र लिखाने,दो ही तीन बार की जादुई चिट्ठियों ने ऐसा रंग दिखाया कि पति विद्रोह पर आमादा होकर अपनी छोटी सी चाकरी की दुनिया में सीधे सुतरी को साथ ले गया। आज उसका भरा पूरा खुशहाल परिवार है। जब भी मिलती है कह उठती है ''बबुनी तोहर लिखल चिट्ठी क  कमाल अउर लिखावट हमार दुनिया बसा देहल'',उस समय तानी छठवीं कक्षा की विद्यार्थी थी।फिर भी लिखने का अंदाज निराला।
        एक और वाकया उसी मोहल्ले की चनमतिया कुम्हारिन जिसकी दो बेटियाँ थीं; की है,बच्चों को लेकर कबसे मायके में पड़ी थी ,परित्यक्ता की जिंदगी बसर कर रही थी। शायद दो दो बेटियों की पैदाइश के कारण ही उसके पति ने उसे छोड़ दिया था। कहते हैं बुरे दिन में अपना भी कोई साथ नहीं देता। मायके वालों पर चनामतिया बोझ बन गयी थी,उपेक्षाओं और खरी खोटी सुनने के आलावा कोई चारा नहीं था,उस पर पहाड़ सी जिंदगी। सुतरी का किस्सा सुनकर चनमतिया भी तानी के ही पास आई थी अपने दुखते भावों का पन्ना खोलने चिट्ठी लिखने में माहिर तानी ने चनामतिया के कथ्यों पर अपने सुन्दर शब्दों का मुलम्मा चढ़ाकर ऐसा हृदयंगम पत्र लिखा कि पूछिये मत,पत्र ने उसके पति का जो आत्म परिवर्तन किया कि उसका पति मय बच्चों सहित बिना समय गंवाये अपनी अर्धांगिनी को लेने सीधे ससुराल ही आया। चनमतिया हिलक-हिलक कर रोती हुई आठवीं क्लास की खिलंदड़ी तानी के पास आई थी अपनी अपार ख़ुशी का इजहार करने।और चुलबुली तानी 'कित-कित' वाले खेल में मशगूल,रो रोकर यही कहती रही ''बहिनी हमार घरवा बसा देहलू नहीं त हम कवने कगरी लगल होईत''जा बहिनी भगवान तोहर भला करिहैं। तानी ने कितने रोओं को जुड़वाया और कितने रोओं का आशर्वाद पाया ये तो वक्त खुद बता रहा है और बतायेगा,तभी तो मैं आज अपने मंजिल के इतने करीब हूँ।वरना आन्तरिक सपना साकार होना कठिन ही नहीं दुरुह भी था।
   जो पंक्तियाँ केवल लच्छेदार शब्दों की अंतरंगता थीं,तानी का अनाड़ी मन तो कोसों दूर था,इनकी संवेदनाओं से,अर्थों से,बस एक उत्सुकता थी शौक था शब्दों के सुन्दर समन्वय से भावविभोर छाप का प्रदर्शन। चनमतिया का पति जब उसे विदा कराने आया था तो चिट्ठी लिखने वाली से मिलने और देखने की व्याकुलता भी दिखाया था। मेरे घर आई थी बुलाने, ''तानी बहिनी ऊ तोहसे मिलल चाहत हौउवन''। अम्मा अचकचा कर बोली थीं क्या वो इससे क्यों मिलना चाहता है और उसने अपनी सारी  दर्दनाक दास्तान अम्मा से बताई थी। उसके पति को क्या पता था मन मोहिनी सुन्दर शब्दों के ईंट गारे से भावनाओं की ईमारत खड़ी करने वाली तानी वयस्क यौवना नहीं बल्कि आठवीं कक्षा की अबोध,अनाड़ी झिरमिट सी बच्ची है,देख कर दंग रहा गया था,इत्ती सी इतने बड़े-बड़े कारनामें। इस तरह की तमाम ऐसी घटनाएँ हैं जो इस लेखनी ने कितनों के जीवन में रंग भरे हैं। और उनको उनका ओहदा हासिल करवाया है।
  ऐसे ही जब बड़े पिताजी यानि [ घर के मालिक ससुरजी  ] ने देवर की शादी के लिए इंकार कर दिया था,तब भी तानी के हृदयस्पर्शी पत्र ने ही अपना कमाल दिखाया था। लड़की के पिता सालों से हमारी देहरी के चक्कर काट रहे थे अधर में लटके हुए आश्वासनों के संबल पर। अंतिम बार आये थे हमारे घर जहाँ पति का व्यवसाय था,हताश,निराश उच्च पदस्थ अधिकारी एक पिता के चहरे पर क्लान्ति,धूमिल हुई रंगत देखकर तानी कितना द्रवित हुई थी,पंक्तिओं में दर्शाना मुश्किल है,उनकी आखिरी आशा भी क्षीण हो गयी थी,एक ही गोत्र की दीवार ने आकर सब कुछ धराशाई कर दिया था। एक ही गोत्र के सवाल से लड़की वालों को कोई ऐतराज नहीं था पर विरोधाभाषी तलवारों के बीच रिश्ते की डोर कमजोर पड़ती देख मैंने इस चिट्ठी का ही सहारा लिया था।            
हृदय को छू देने वाली वेदना व्यक्त किया था। शायद यही लाइनें थीं,मैं पाँच बेटियों वाले पिता की बेटी हूँ बाबूजी जिसने ऐसे ही कितनी बार अपने पिता के उतरे हुए मलिन चेहरे को देखा है,बेटों के पिता होने के नाते शायद आपको उस दर्द का अंदाजा ना हो उस वक्त क्या गुजरती थी मुझपर मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकती। और करुणा तथा कातरता में डूबी हुई रोष भी व्यक्त किया था। वो चिट्ठी आवश्यकता से अधिक ही हृदयस्पर्शी
साबित हुई,क्योंकि एक लड़की होने के नाते एक लड़की के दर्द की अभिव्यक्ति थी। फिर तो पुरे घर का ऐसा हृदयपरिवर्तन हुआ कि शादी की दिन तारीख मुहूरत सब कुछ पल में सुनिश्चित हो गया,धूमधाम से दुल्हे की बारात लड़की के द्वार पहुँची। आज अच्छे प्रतिष्ठित ओहदे पर देवर पत्नी तथा दो बच्चों के साथ जिंदगी बसर कर रहे हैं। बहुत दिनों तक मैं आशंकाओं में घिरी रही। एक ही गोत्र का अपशकुन कोई कुठाराघात ना करे और कलंक तानी के मत्त्थे क्योंकि मेरे ही दबाव में ये शादी हुई थी। खैर .....अब तो कई वर्ष गुजर गए ,सब अपनी दुनिया में मस्त हैं। उम्र के इस पड़ाव तक तानी ने अनगिनत भलाईयां की हैं जिनकी फेहरिस्त बयां करने में कोरे कागजों का अकाल पड़ जायेगा।
   आजकल तो मोबाईल,एस .एम .एस .,ई मेल द्वारा बातें हो जाती है शुरू होने से पहले ही ख़तम,गति से पैसे कटने का डर। रसानन्द ले लेकर पढ़ने की कोई अनुभूति ही नहीं जब तक दूसरी चिट्ठी ना आ जाय लोग-वाग पहली चिट्ठी का आनन्द लेते रहते थे। क्या ये सारे साधन उन हर्फों जैसे ही अपने भाव प्रवाहित करते हैं नहीं ना।किसी तरह का स्पन्दन प्रकट करते,हैं नहीं ना।पत्रों का सम्मोहन ही कुछ और होता था।जो बातें जुबां से कहने में हिचक लगती है,शर्म और हया महसूस होता है वही बातें बेहिचक चिट्ठियों में अंकित हो जाती हैं।
    पहले पत्र लिखवाने वालों का एक अलग और अजीब रवैया होता था तथा पढ़े लिखे लोग भी ऐसी गुस्ताखियाँ कर जाते थे। एक बार की बात है बगल वाली चाची की बेटी ने अपनी माँ को पत्र लिखा,सारे कुशल क्षेम के बाद अंत में लिखा,थोड़ा लिखना ज्यादा समझना अंत में आपकी अभागी बेटी।चाची ने तानी से पत्र पढ़वाया अब अभागी बेटी सुनकर तो उनकी चिंता का पारावार ही नहीं,जबकि बेटी का व्याह सुसम्पन्न घर में किया था कोई परेशानी नहीं थी ;लेकिन ये तो उस समय का एक चलन था,जैसे अम्मा दीदी को जब भी तानी से पत्र लिखावातीं,कहतीं लिख दो सब कुशल है तुम्हारे कुशलता की कामना करती हूँ,और हर बार एक ही बात लिख दो अम्मा की तबियत बहुत ख़राब है। एक बार तानी को गुस्सा आ गया,ये क्या बार-बार एक ही बात,आप तो भली चंगी हैं,पर;नहीं यह पत्र लिखवाने का उस समय का चलन। कहाँ गया वो समय ये कहाँ आ गए हम ......। दीदी के ससुर तानी की चिट्ठियों को बड़े चाव से पढ़ते थे और उसमें कई दिनों तक डूबते उतराते रहते थे। तारीफ करते न अघाते थे। कारण वह प्राइमरी स्कूल के हेडमास्टर थे। ऐसे ही लोग तो हिंदी के प्रणेता,प्रबुद्ध और पारखी होते थे असल में होती ही थीं कमाल की तानी की शैली,अगाध रिश्ता कायम कर देने वाली,मंत्र मुग्ध कर देते थे तानी के खतों के मजमून। आज भी रखी हुई पुरानी चिट्ठियों का बण्डल पुराने प्रगाढ़ रिस्तों का अहसास कराती हैं भाव विह्वल कर देतीं है,अपने पुराने दिनों की कंदराओं में ले जाती हैं,जहाँ चंद लमहा ही सही बनावट से परे भरपूर अपनी वास्तविक जिंदगी जी लेती हूँ।
  एक बार की बात है ग्रेजुएशन की छुट्टियों में मैं और मेरी अन्तरंग सहेली सुधा अपने-अपने गाँव गए थे। वादे के अनुसार पुरे महीने पत्रों का आदान-प्रदान चलता रहा। सुधा तो कहीं तानी से भी ज्यादा लिखने की कला में पारंगत थी। हम दोनों कोई भी अलंकर नहीं छोड़ते थे उपमा उपमानों का। एक बार सुधा को लिखी गयी तानी की रस तरंगिणी चिट्ठी उसके रेंजर जीजाजी के हाथ लग गई,फिर क्या था अब तो सुधा की खैर नहीं,घर में खूब हंगामा,ये जरुर किसी लडके की करतूत है,जो लड़की बनकर रस पगी चिट्ठियां लिखता है। फिर किसी तरह सुधा ने घर वालों को विश्वास की गिरफ्त में लिया। पुरानी बातों ने कितना कुरेद दिया,अंतर्मन झंकृत हो उठा है आज। आज ये चिट्ठियां भी तानी और सुधा के टूटे हुए सम्पर्क के तार नहीं जोड़ सकतीं,उसका पता ठिकाना कोई डाकिया भी नहीं दे सकता।काश; वर्षों से विछुड़ी हुई मेरी उस अन्तरंग सखी सुधा तक कोई मेरा यह दर्द भरा सन्देश पहुंचा देता।
  इतना ही नहीं तानी के निहायत सीधेपन का उसके परिपक्व संगतों ने भी इस्तेमाल किया। इन्टर मिडिएट की छात्रा होने के बावजूद भी अपरिपक्वता कूट कूटकर भरी थी,अंजाम से अनभिज्ञ तानी ने ऐसे भी कारनामें किये जो उसे सीधे पतन का रास्ता दिखातीं। किसी षड़यंत्र का शिकार होने से ईश्वर ने ही बचाया होगा। ये गलतियाँ एक बार नहीं बार बार की तानी ने।सहेलियों ने अपने प्रेमियों को कितनी बार प्यार भरे ख़त लिखवाये तानी को चने की झाड़ पर चढ़ाकर,अरे;यार तुम क्या लिखती हो तुम्हारे लिखे हुए वर्णनों पर कोई भी फिदा और फना हो जाये। उन सबने मेरी लिखावट में मेरे भाव प्रवाह में अपने प्रेमी को ख़त लिखवाये,क्योंकि तानी तो विशिष्ट से विशिष्टतम की श्रेणी में आती थी ख़त लिखने में माहिर,बुद्धू कहीं की । तारीफों के पुल पर आपा खो देती,पुदीने के पेड़ पर चढ़ जाती,सहेलियां अपनी कलई खुलने पर तानी को फंसा सकती थीं लिखावटों  के जरिये। खुदा का शुक्र है वो नौबत नहीं आई। आज सोचती हूँ अच्छाइयों के साथ-साथ कितनी सारी नादान  बेवकूफियां भी की हैं मैंने।
    दूर के रिश्ते की ननद की बेटी का रिस्ता पक्का हुआ वह भी तानी के प्रभावित करने वाली शालीन बोलने
चालने वाले व्यवहार के निर्देशन में,लड़की पढ़ी लिखी सर्वगुण संपन्न ,पत्र लिखने में फिसड्डी। शादी से पहले डाक्टर दूल्हा उसे जब भी प्रेम से परिपूर्ण ख़त लिखता वह भी दौड़कर तानी के ही पास आती जवाब लिखाने। और तानी तो एक नम्बर की .......। फिर तो रोमांटिक ख़त का जवाब इतना शानदार होता,मनमोहक रसों से भरपूर कि दुल्हे मियां असलियत से अनजान गदगद। वाह होने वाली घरवाली की कितनी महान भावनाएं हैं । हुंह तानी के शब्दों के मायाजाल ने ऐसा समां बांधा कि दुल्हे राजा का रहा-सहा संशय भी छूमंतर हो गया। वो दिन और आज का दिन,ज्यादा समय नहीं गुजरा।
     आज की तरक्कियां--पत्र को मोबाईल निगल गई। कलम को माउस और की बोर्ड हजम कर गए,पत्रों के माध्यम से व्यक्त करने वाली भावनाओं को लकवा मार गया।अंग्रेजी ने हिंदी की सुघड़ भाव भंगिमा, भाव तरंगिणी को कुतर डाला। आधुनिकता की आंधी ने शनैः शनैः वास्तविकता को अपने भंवर में उलझा कर दबोच लिया। नई नवेली दुल्हन तथा प्रेमी प्रेमिका के कई पन्नों वाले प्रेम पत्रों को चैट ने जमा चाट लिया। वक्त के बवंडर में सब कुछ समाहित हो गया,स्वाहा हो गयीं कई कई दिनों तक गुदगुदी करने वाली बातें जिनमें दिन का सुख था चैन की रातें प्रेम फुहार बरसाने वाली बातें,तनमन को सराबोर कर देने वाली उनकी .......।

                                                                                                              शैल सिंह





   
     

बड़े गुमान से उड़ान मेरी,विद्वेषी लोग आंके थे ढहा सके ना शतरंज के बिसात बुलंद से ईरादे  ध्येय ने बदल दिया मुक़द्दर संघर्ष की स्याही से कद अंबर...