मंगलवार, 3 मई 2016

देशद्रोहियों की मति गई है मारी का

देशद्रोहियों की मति गई है मारी का



जहाँ सुबह होती अजान से कान गूंजे हनुमान चालीसा
जिस धरती पे राम-रहीम बसते गुरु गोविन्द और ईसा
जहाँ हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई में भाई-भाई का नाता
जहाँ की पवित्र आयतें बाईबिल ग्रन्थ कुरान और गीता ,

हम करते हैं नाज़ जिस वतन की नीर,समीर माटी पर
हम करते हैं नाज़ जिस चमन की खुशबूदार घाटी पर
जिसकी आन वास्ते शहीद हुए न जाने कितने नौजवाँ
उस मुल्क़ के मुखालफ़त गद्दार हुए बदजात बद्जुबां ,

पतित पावनी धरा पर भूचाल मचाया उपद्रवी तत्वों ने
अभिव्यक्ति की आज़ादी में पाजी अक़्ल लगी सनकने
भारत के टुकड़े होंगे कहते हैं कश्मीर नहीं भारत का
बेलगाम नामुराद देशद्रोहियों की मति गई है मारी का ,

                                             

इक दिन बिखर जायेंगे अभिव्यक्ति की आज़ादी वाले दहर में
देखना टूटे हुए जंजीर की कड़ियों की तरह
उठेंगी दश्त में घृणा भरी निग़ाहें बस इन सब पर
कर्ण बेंधेंगी हिक़ारत की आवाज़ें,चिमनियों की तरह  ,

अरे हम नहीं ख़ामोश बैठने वालों में से हैं
वामपंथियों की हवा निकालने वालों में से है
ये खुशबयानी और ख़ुशख़यालियाँ पाले रखो
हम नहीं तुम्हारे मंसूबे क़ामयाब होने देने वालों में से हैं ,

हम सदा मोहब्बत बांटने की बात करते है
कुछ लोग अहले सियासत की बात करते हैं
हमारा पैग़ाम सवा सौ करोड़ देश की जनता को है
चलो देशद्रोहियों को मुल्क़ से खदेड़ने की बात करते है ।

                                                             
  

रविवार, 1 मई 2016

आतंक की घृणित विभीषिका पर मेरा अंतर्द्वंद

आतंक की घृणित विभीषिका पर मेरा अंतर्द्वंद 


नित देख जगत का आहत दर्पण
पन्नों पर मन का दर्द उगलतीं हूँ
अब जाने कब होगा जग प्रफुल्ल 
सोच कविता में मर्म विलखती हूँ ,

काश करतीं व्यथित शोहदों को
आतंक की चरम घृणित क्रीड़ाएं
कोई मुक्तिदूत बनकर आ जाता
हर लेता जग की क्रन्दित पीड़ाएँ ,

कभी ग़र घोर निराशा के क्षण में
कहीं से छुप झांक पुरनिमा जाती
पुनः अगले पल कुछ घट जाता रे
जैसे ही सुख भर पलकें झपकाती ,

जब-जब हँस उषा की लाली देखा
कलह की सुख पर चल गई आरी
फिर काली निशा हो गई डरावनी
सुनकर कुत्सित षड्यंत्र की क्यारी ,

भाटे जैसी उठती हिलोर हृदय में
व्यूह तोड़  लहरों में बह जाने को
जग का दुर्दिन हश्र देख मचलता
विवश कंगन कटार बन जाने को ,

रुख रहेगा अलग-थलग भावों का 
ग़र आपस में ही लड़ते रह जायेंगे
जो भी आदि बची जी दीन दशा में
विष सुधा विद्वेष कलुष कर जायेंगे ,

सुरभित जीवन में मची कोलाहल
सर्वत्र चीत्कार रहीं गलियाँ-गलियाँ
भय से भूल गए खग,पक्षी कलरव
दहशत में उषा,ख़ौफ़ में है दुनिया 

ख़लल,शांति अमन को निगल गई
निर्जन नीड़ों में डोल रहे चमगादड़
नभ कण भी बरसा रहे हैं अश्रु बिंदु
मची हुई चहुँओर है भीषण भगदड़ ,

यदि होता बस में ग़र कुछ भी मेरे
भरती जग आँचल सुख का सागर
मिटा तमिस्रा उर-उर की,धर देती
हर अधरों पर  किसलय का गागर ,

सुख समरसता ठिठक गई मानो
पथभ्रष्टों की निर्भीक निर्दयता से
हो रही प्रकम्पित धरणी,अणु भी
मस्तिष्क की दुर्भिक्ष दानवता से ,

विक्षिप्त मानसिकता की ज़द में
जगत की दिनचर्या धधक रही है
लगता बहुत अनर्थ है होने वाला
निर्बाध आँख दाईं फड़क रही है ,

चैतन्य हो जाओ अरे सोने वालों
नव प्राण फूंकना मृत स्पन्दन में
समता की करनी है मुखर वाणी
शंखनाद गूंजे निस्सीम गगन में ,

बेवजह दहक रही सारी दुनिया
आतंकवाद की भीषण लपटों से
कहीं 'तू-तू ' 'मैं-मैं' के विलास में
मिट न जाएँ रे आपसी कलहों से ।

सुधा--अमृत

                               शैल सिंह 
















बड़े गुमान से उड़ान मेरी,विद्वेषी लोग आंके थे ढहा सके ना शतरंज के बिसात बुलंद से ईरादे  ध्येय ने बदल दिया मुक़द्दर संघर्ष की स्याही से कद अंबर...