शनिवार, 6 दिसंबर 2014

पुरनिमा की रात का पैबन्द आँखों में सी रहे थे

कश्मीर में मतदान के दौरान  .....


रुख़ बदल रही हवाएँ रुत बदल रही फ़िजां की
ख़ौफ़ की जद से निकल लौ जली नई शमां की
देखिये वादी-ए-कश्मीर मे मतदान हो रहा है ।

जाग उठा ज़मीर बदली सोच अब आवाम की
बर्फ सी पिघल के फांस भी खड़ी हुई चट्टान सी
देखिये वादी-ए-कश्मीर का इम्तहान हो रहा है ।

आतंक के साये में जीस्त मर-मर के जी रहे थे
पुरनिमा की रात का पैबन्द आँखों में सी रहे थे
देखिये वादी-ए-कश्मीर का यूँ विहान हो रहा है |
                                                    shail singh

मज़ार दियना जलाने फिर क्यूँ आये हो

मज़ार दियना जलाने फिर क्यूँ आये हो


खड़े फ़ख्र से तुम नुमायां कई घाट से
दम वफ़ाई का भरने फिर क्यूँ आये हो ,

क्या लौटा पाओगे यास के गुजरे दिन 
गिन उँगलियों पे काटे हैं जो रात-दिन 
बहारें तो आईं बहुत रंग भरने चमन 
पर इंतजार की जिस्म पर थी चुभन 
खण्डहर सी हुई अब वो नुरे-ए-महल 
झाड़-फानूस लगाने फिर क्यूँ आये हो । 

ओढ़ीं ख़ामोशी,दीवारों की हर सतह 
जो सजी संवरी थी हवेली तुम्हारे लिए 
नाम की तेरे माला जो सांसों में थी 
उलझकर भी गुँथीं थी तुम्हारे लिए 
हो गई है मोहब्बत इन तन्हाईयों से 
ऐसी आदत छुड़ाने फिर क्यूँ आये हो । 

ख़्वाहिशों पर परत चढ़ गई जंग की 
हसरतों को बदा पर दफ़न कर दिया 
कोई शोला था भड़का वदन में कभी 
ढांपकर लाज़ का था कफ़न धर दिया 
जिस चाहत की अब ताब मुझमें नहीं 
ताब फिर वो जगाने फिर क्यूँ आये हो । 

इक पहर रोशनी की जरुरत बहुत थी 
अब अँधेरे में रहने की लत पड़ गयी है 
कभी सरे राह तकती थी जो ज़िन्दगी 
सूखकर लाश सी वो शरीर रह गयी है 
जब जनाज़े को कांधा मयस्सर हुआ ना 
मज़ार दियना जलाने फिर क्यूँ आये हो ।  

दमकती कांति सूरत की कहाँ खो गई 
क्यूँ पूछते हो शबाब ढल जाने के बाद 
भींगे जंगल के मानिन्द मैं सुलगती रही 
आज़ आये भी तो कितने ज़माने के बाद
मानस की जर्जर दरकती सी मीनारों पर                               
वही रंग-रोग़न चढ़ाने फिर क्यूँ आये हो । 

कौन सी ऐसी नायाब वो जाने महक़ है  
जो शाख़ की इस कली,फूल पे ना मिली 
जिसे मेहरूम किया नादान भौंरा तूने 
नज़र आई उसी पर क्यों शहद की डली 
जिन दरख़्तों में अब दीमकों का बसेरा 
वहाँ आशियाना बनाने फिर क्यूँ आये हो । 
                                                           
                                                शैल सिंह 








शुक्रवार, 5 दिसंबर 2014

लाड़ली सुता का इक फ़कीरा मैं पिता हूँ

लाड़ली सुता का इक फकीरा मैं पिता हूँ

न इंसान सुन रहा है न भगवान सुन रहा है 
धीरज भी अब तो जैसे बलवान खो रहा है। 

धूर्त वक़्त का परिन्दा हाथों से निकला जाए
किसको बताएं कैसे क्या अंतर की वेदनाएं
न शुभ काम हो रहा न शुभ विहान हो रहा है,
धीरज  ....।
पल-पल पहाड़ जैसे,लगती लम्बी काली रैना 
आँखों से नींद गायब,ग़ायब सुकून और चैना
न सुजलाम हो रहा न कुछ सुफलाम हो रहा है,
धीरज ...।
तक़दीर का सितारा आँगन में किस चमन के 
बंधेगा साथ बन्धन किसके जनम-जनम के 
न शीलवान मिल रहा न दयावान मिल रहा है,
धीरज …।
लिपटी अंधेरी चादर में लगें चारों ही दिशाएँ
गली-गली की ख़ाक़ छानी बुझी ना तृष्णाएँ
न मन का मुक़ाम मिल रहा अरमान रो रहा है,
धीरज …। 
मन की गिरह खोलूं किसकी उदारता के आगे
विधाता लेखा-जोखा बेटी के भाग्य की बता दे
न अनजान सुन रहा न ही पहचान सुन रहा है,
धीरज ...।
दुःखी लाड़ली सुता का इक फ़कीरा मैं पिता हूँ
लाड़ली की फ़िक्र में ही मैं सोता और जागता हूँ
न व्यवधान टल रहा न तो समाधान हो रहा है,
धीरज .... । 
उसके हाथ की लकीरें क्या भाग्य की रेखाएं
बस देर है अन्धेर नहीं यही मन को समझाएँ
न स्वप्न की उड़ान को आसमान मिल रहा है,
धीरज …।
मृगमरीचिका सी प्यास क्षार-क्षार हर तरफ़
बहुत बेज़ार हूँ जाने कोई परेशानी का सबब
न कुछ निदान हो रहा मन हलकान हो रहा है,
धीरज ...।
इम्तहान मेरे सब्र का इतना भी लो ना साईं
निष्काम विफल हो रही सारी वास्ता दुहाई
न वरदान मिल रहा न अभयदान मिल रहा है,
धीरज ...।

                                                         शैल सिंह

बड़े गुमान से उड़ान मेरी,विद्वेषी लोग आंके थे ढहा सके ना शतरंज के बिसात बुलंद से ईरादे  ध्येय ने बदल दिया मुक़द्दर संघर्ष की स्याही से कद अंबर...