गुरुवार, 14 सितंबर 2023

बड़े गुमान से उड़ान मेरी,विद्वेषी लोग आंके थे
ढहा सके ना शतरंज के बिसात बुलंद से ईरादे 
ध्येय ने बदल दिया मुक़द्दर संघर्ष की स्याही से
कद अंबर का झुका दिया मैंने हौसलों के आगे ।

प्रयास दोहराने में हो लीं साहस विफलतायें भी   
विस्तृत भरोसों ने खींचीं कल्पनाओं की रंगोली
असम्भव सी मिली जागीर जो है आज हाथों में
बन्द अप्रत्याशित प्रतिफल से निंदकों की बोली ।

कंटीली झाड़ियों,वीहड़ रास्तों पे चलकर अथक
बाधाओं को पराजित कर जीता जड़कर शतक
खड़ी तूफां से लड़कर साहिल पे योद्वा की तरह
ग़र लहरें करतीं अस्थिर कैसे पाते डरकर सदफ़ ।

पड़ाव ज़िंदगी में आया कितना उतार,चढ़ाव का 
खा-खा कर ठोकरें भी हम नायाब हीरा बन गये
बहुत लोगों को परखी ज़िंदगी दे देकर इम्तिहान
लोग समझे दौर खत्म मेरा देखो माहिरा बन गये ।

सदफ़--मोती ,  माहिरा--प्रतिभाशाली 
सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह

मंगलवार, 15 अगस्त 2023

पन्द्रस अगस्त पर--

पन्द्रस अगस्त पर--
आज का दिन हम भारत वासियों का ऐतिहासिक दिन है
दो सौ वर्षों के रण से मिले स्वतंत्रता का साहसिक दिन है
ये शुभ दिन वतन की आजादी का जश्न मनाने का दिन है
लाखों कुर्बानियों,बलिदानियों को स्मरण करने का दिन है
रक़्त बहाने वाले क्रान्तिकारियों को याद करने का दिन है 
आज आजादी का अमृत महोत्सव देश मनाने का दिन है
स्वाधीनता समर में शहीदों को संस्मरण कराने का दिन है 
आज का दिन देश के संघर्ष को देश को दर्शाने का दिन है ।
जय हिन्द, जय भारत, वन्दे मातरम्

शैल सिंह

शुक्रवार, 4 अगस्त 2023

भजन,— दरश दिखा दो केशव तरस रहे दो नैन ।

        भजन


रटते-रटते नाम तेरा  बीत गये दिन रैन 
दरश दिखा दो केशव तरस रहे दो नैन ।

दृग के दीप जलाये बैठी हूँ तेरे दर पर 
रोम-रोम में तुम ही बसे हो मेरे गिरिधर 
सुध-बुध खोई छवि उर में बसा तिहारा 
विरह में बावरी देह हुई  है सूख छुहारा 
पल-पल तेरी राह निहारूं जी है कुचैन 
दरश दिखा दो केशव तरस रहे दो नैन ।

यमुना तट वृंदावन गोकुल की गलियाँ 
गऊओं के गण कदम के तरू की छैंयाँ 
कितना तड़पाओगे बोलो बंशी बजैया 
गिरि कंदरा, वन-वन ढूंढा तुझे कन्हैया 
एक झलक दिखला दो आँखें हैं बेचैन 
दरश दिखा दो केशव तरस रहे दो नैन ।

चितचोर साँवरे की वो तिरछी चितवन 
कैसे बिसराऊँ बसे जो मन के मधुबन 
बजा के बाँसुरी रिझा के गीत सुना के 
छोड़े सखा किस हाल में प्रीत लगा के 
नहीं निभाये वादा कहकर गये जो बैन 
दरश दिखा दो केशव तरस रहे दो नैन ।

उधो जा कहो संदेशा नन्दलला से मेरी 
विरह तपस में झुलस रही है राधा तेरी 
कह गये एक महिना बीत गये छै मास 
कब आयेंगे कान्हा पूजेंगे मन के आस 
प्रेम दीवानी बना गये कर के इतने सैन 
दरश दिखा दो केशव तरस रहे दो नैन ।

कुचैन —बेचैन,  गण--समूह,     
बैन—वचन,   सैन---ईशारा, 
सर्वाधिकार सुरक्षित 
शैल सिंह 

गुरुवार, 27 जुलाई 2023

सूखे सावन पर कविता‐---

बेरहम काली-काली घटा घेर-घेर घनघोर 
आँधी, तूफाँ साथ लिए करती रहती शोर ।

जैसे आषाढ़ मास बीत  गया सूखा-सूखा 
वैसे ना बीत जाये सावन भी रूखा-रूखा 
पपीहा गुहार करे कुहुकिनी कातर पुकारे 
धरा मनुहार करे फलक मोर दादुर निहारे 
उमड़-घुमड़ तड़तड़ाती दामिनी जोर-जोर 
आँधी, तूफाँ साथ लिए करती रहती शोर ।

क्यूँ बादल की चादर ओढ़े बैठी चितचोर 
तप्त है आकुल धरा व्याकुल हैं जीव ढोर 
सूने-सूने खेत क्यारी सूनी पगडण्डी खोर 
बरसो झमाझम घटा मन कर दो सराबोर 
कहीं कहीं मूसलाधार बरसती तूं मुँहजोर 
आँधी, तूफाँ साथ लिए करती रहती शोर ।

किसान टकटकी लगाए निहारे आसमान 
प्रियतम का पथ निरख है प्रेयसी परेशान 
कैसा मनभावन सावन जग लगे सुनसान 
बेरस वृष्टि के व्यवहार से झुलसे अरमान 
चमक-चमक ज़ुल्म करे बिजुरी झकझोर 
आँधी, तूफाँ साथ लिए करती रहती शोर ।

कहें किससे मन की बात पहाड़ लगे रात 
जी जलाये सावन और घटा की करामात 
सखियाँ अपने पिया संग विहँस करें बात 
सताये पी की याद लगे सेज नागिन भाँत 
बदलो मिज़ाज करो नहीं अनीति बरजोर 
आँधी, तूफाँ साथ लिए करती रहती शोर ।

सर्वाधिकार सुरक्षित 
शैल सिंह 

बुधवार, 26 जुलाई 2023

आजा घर परदेशी करती निहोरा

आजा घर परदेशी करती निहोरा 

सावन  की कारी  बदरिया  पिया 
तेरी यादों का विष पी  नागिन हुई ।

नाचें मयूरी मोर पर फहरा-फहरा 
पिउ-पिउ बोले वन पापी पपिहरा 
कुहुके कोयलिया हूक उठे हियरा
दहकावे तन-वदन निरमोही बदरा 
सावन की टिसही सेजरिया पिया 
तेरी यादों का विष पी  नागिन हुई ।

सुध-बुध दिये सकल पिया बिसरा 
नैना से लोर  ढूरे बहि जाये कजरा 
झूला न कजरी सखिन संग लहरा
चिन्ता अंदेशा में काया गई पियरा
सावन की विरही  कजरिया पिया 
तेरी यादों का  विष पी नागिन हुई ।

बौरा बरसाये नभ झर-झर फुहरा 
सिहरे कलेजा भींजा जाये अंचरा 
भावे ना रूपसज्जा सिंगार गजरा 
आजा घर परदेशी  करती निहोरा 
सावन की कड़के बिजुरिया पिया 
तेरी यादों का  विष पी नागिन हुई ।

उड़ि-उड़ि बैइठे कागा छज्जे मुँड़ेरा 
चिट्ठी ना संदेशा दे शूल चुभे गहरा 
बाबा सुदिन टारि फेरि दिये कंहरा 
लागे ना नैहर में कंत बिना जियरा 
सावन की पिहके पिरितिया पिया 
तेरी यादों का  विष पी नागिन हुई ।

सर्वाधिकार सुरक्षित 
शैल सिंह 



गुरुवार, 13 जुलाई 2023

परिवार ही धन,दौलत—

परिवार ही धन,दौलत—


जहाँ एकता होती सुमति होती है जिस घर में 
वहीं देवी-देवताओं के होते वास देवालय तुल्य घर में 
जहाँ कई रिश्तों से मिलकर बनता है एक सुखी परिवार 
उसी घर की दहलीज़ पर ही होता सुखी जीवन का संसार ।

सभी के भाग्य में होता नहीं भरा-पूरा परिवार
जहाँ रिश्तों की होती कद्र जहाँ आपस में होता प्यार 
ममता,डांट,दुलार,फटकार क़िस्मत में सबके कहाँ होता 
परिवार वह शाख़ जिसके छांह में मिलता प्यार अपरम्पार ।

ये अनमोल रिश्ता बांध रखना प्रेम के धागे में
करना सबका स्वागत,सत्कार रह मर्यादा के दायरे में 
दादा-दादी,नाना-नानी वटवृक्ष सा,परिवार के गुलदस्ते हैं 
हो सौहार्द्र आपस में कटुक ना बात हो एक दूजे के बारे में ।

सुदृढ़ चारदीवारी है संयुक्त परिवार की माला
अपनेपन का उपवन भी प्रथम जीवन की पाठशाला 
परिवार के पावन बगिया में रहतीं वृन्दावनि भी हरी-भरी
परिवार बिन जीवन विरान,लगे अमृत भी ज़हर का प्याला ।

ननहर-घर,पीहर-ससुराल रिश्तों की ईमारत हैं
क्यूँ सम्बन्ध बिखर रहे भहराकर वक़्त की शरारत है
प्रेम,व्यवहार,क्षमा के ईंट गारों से मरम्मत करें दरारों की 
परिवार ही असली धन,दौलत ज़िन्दगी की यही वरासत है ।

वृन्दावनि‐-तुलसी, ननहर--ननिहाल 
सर्वाधिकार 
शैल सिंह

शनिवार, 8 जुलाई 2023

कभी तूती तेरी बोलती थी---

क्यों कलम निष्प्राण पड़ी तुम खोलो ना जिह्वा का द्वार 
घुमड़ रहा जो तेरे अन्तर्मन में कर दो व्यक्त सारा उद्गार 
भीतर जो तेरे छटपटाहट राष्ट्र,समाज और  जगत लिए 
इतनी अन्दर तेरे कलम है ताक़त उगल दो सारा अंगार ।

एक समय था कवियों की कलम से फूटती थी चिन्गारी 
क्रान्ति लिए शीघ्र उतर विद्रोह पर बन जाती थी कटारी 
ब़रछी,भाले,बाण,कृपाण कभी तेरे आगे शीश नवाते थे 
ज्ञान, बुद्धि,विवेक का दीप जला हर लेती थी अंधियारी ।

शासन तन्त्र का बखिया उधेड़ झुका लेती थी चरणों में
आवाज शोषितों की बन तलवार बन जाती थी वर्णो में
कहाँ गई कलम वह पैनी धार तेरी,सुस्त पड़ी बेबस सी
कभी इतिहास बदलने का दम रख गरजती थी हर्फ़ों में ।

नहीं तुझे सत्ता का भय सत्ताधीशों की चूल हिलाती थी
बेजुबान होते भी बेबस गरीबों की जुबान बन जाती थी
थी विरह,वेदना की सखी तूं दुख-दर्द की सहचरी भी तूं
कहाँ गई वरासत छोड़ जो उर के भाव समझ जाती थी । 

जब भी बग़ावत पर उतरती तेरे पीछे दुनिया डोलती थी 
हिल जाता था सिंहासन जब तूं निर्भीक मुँह खोलती थी 
उठो भरो हुंकार,प्रतिकार कर शोषितों का निनाद लिखो 
क्यों पड़ी नैराश्य तूं भीरू बन कभी तूती तेरी बोलती थी ।

वर्णों--शब्दों,  नैराश्य—निराश,  भीरू--डरपोक,  
निनाद--आवाज 
सर्वाधिकार सुरक्षित 
शैल सिंह 

बड़े गुमान से उड़ान मेरी,विद्वेषी लोग आंके थे ढहा सके ना शतरंज के बिसात बुलंद से ईरादे  ध्येय ने बदल दिया मुक़द्दर संघर्ष की स्याही से कद अंबर...