मंगलवार, 11 जुलाई 2017

कविता '' हो रहे पृथक मैं-मैं से सभी ''

            कविता
 हो रहे पृथक मैं-मैं से सभी 


इक दिन जाना सबको पास उसी के 
जो तीनों लोकों का स्वामी है
भले-बुरे कर्मों का लेखा-जोखा
रखता ऊपर वाला अन्तर्यामी है ,

मत कहा करो जी तेरा-मेरा 
सब यहीं धरा रहा जायेगा
माटी का तन माटी में मिल
इक दिन ब्रह्मलीन हो जायेगा ,

बस ऐसे तत्वों को संग्रह करना 
जिससे मिले सुख,आनन्द भरपूर
हँसी तेरी बन जाये दवा रुग्ण की
जो निःशुल्क जिसमें प्रचुर मात्रा में गुर ,

विवेक की सम्पत्ति बाँट सभी में
संग धैर्य का रखना हथियार सदा
रक्षा कर विश्वास,संस्कार की रखना
रिश्तों में प्रीत की घोल सम्पदा ,

मुख पर ऐसी मुस्कान बिखेरो कि
पराये भी शामिल होकर हँसे
आँसू तेरी आँखों के होकर भी
बहते ही पराया होकर ख़ूब विहँसे ,

हो रहे पृथक मैं-मैं से सभी
चलो हम-हम का रिस्ता जोड़ें
इंसानियत,मानवता सबपर भारी
दम्भ हैसियत का सस्ता छोड़ें ,

ज्ञान,सम्मान,श्रद्धा,नम्रता,दया
जीवन तन के,शृंगार आभूषण हैं
प्रार्थना,विश्वास अदृश्य भले हों पर
कर देते असम्भव को भी धूसर हैं ,

वसीयत,भोग-विलास,विरासत में 
कभी ना भूलें कर्मों की प्रधानता
परमपिता रखते हिसाब-किताब सब 
जिनके कर्मों में होती सदा महानता। 

गुर---गुण

                   शैल सिंह

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

बे-हिस लगे ज़िन्दगी --

बे-हिस लगे ज़िन्दगी -- ऐ ज़िन्दगी बता तेरा इरादा क्या है  बे-नाम सी उदासी में भटकाने से फायदा क्या है  क्यों पुराने दयार में ले जाकर उलझा रह...