गुरुवार, 7 जुलाई 2016

आखिर लिखूं तो क्या लिखूं

आखिर लिखूं तो क्या लिखूं


मुरझा से गए हैं अल्फ़ाज मेरे
सुख गई है मन की तलहटी
पैठ इनमें ढूँढूँ तो क्या ढूँढूँ 
कुछ आता नहीं दिमाग में
आखिर लिखूँ तो क्या लिखूँ ,

ताजी खुश्बुओं का झोंका
कब आकर चला गया
हुनर आशिकी का मेरे
कहाँ लेकर चला गया
सदा दूं तो किसको दूं
कुछ आता नहीं दिमाग में
आखिर लिखूं तो क्या लिखूं ,

अब न हाथ में आती कलम
ले भावों का सुन्दर समन्वय
ना ही दर्द देते शब्द कुछ
करूँ कागजों पे कोई बवंडर 
रिक्तता में भरूं तो क्या भरूं
कुछ आता नहीं दिमाग में
आखिर लिखूं तो क्या लिखूं ,

ऐसी तो न थी हालत कभी
कैसे तबियत बिगड़ गई
ऐसा हुआ क्या माज़रा
फन से रंगत उतर गई
बैठी करूँ तो क्या करूँ
कुछ आता नहीं दिमाग में
आखिर लिखूं तो क्या लिखूं ,

ना वो मधुर पल-छिन रहे
ना सुहानी गुनगुनाती रात
ना उमड़-घुमड़ सौहार्द्र बरसे
ना स्वच्छन्द गूंजे अट्टहास
वक़्त से कहूँ तो क्या कहूँ 
कुछ आता नहीं दिमाग में
आखिर लिखूं तो क्या लिखूं ।

                      शैल सिंह


सोमवार, 4 जुलाई 2016

द्रव तेरी आँखों का क्यों सूखा है रे जालिम

द्रव तेरी आँखों का क्यों सूखा है रे ज़ालिम

बर्बर आतंकों से दहला हुआ है विश्व भी
ख़ौफनाक सायों में गुजरे सहमी ज़िदगी

दहशतगर्दों के इरादों की अज़ीब दास्ताँ
इंसानियत को मार जी रहे कैसी ज़िदगी   
बनके अमानुष गिराते रोज ही क्रूर ग़ाज 
झुलसा रहे निर्दयता से दुनियावी ज़िदगी 

मौत का बरपा क़हर पसरा हुआ मातम 
सांसों के अहसानों पर जी रहे हैं ज़िदगी 
देख यह मन्जर मेरा होता है दिल घायल 
पी-पी के घूँट ज़हर का जी रहे हैं ज़िदगी ,

यह कैसी सनक है धुन,उपद्रव किसलिए
ऐसे खिलवाड़ से करोगे कबतक दरिंदगी
ग़र न ज़मीर जागा न फूटा सोता स्नेह का 
इक दिन तुम्हें भी लील लेगी तेरी दरिंदगी ,

हाय तुम्हारी हैवानियत को मैं क्या नाम दूँ 
जन्नतेहूर की ख़ाहिश बनाई सस्ती ज़िदगी  
द्रव तेरी आँखों का क्यों सूखा है रे ज़ालिम
तेरी बेरहमी बेगुनाहों की ले रही है ज़िदगी , 

जिस ख़ुदा वास्ते बरपाता बेख़ौफ़ तूं कहर
वही ख़ुदा देख सुन रहा है मेरी भी बन्दग़ी
कभी न कभी फूटेगा ये तेरे पापों का घड़ा
हज़म तुझे भी करेगी हर आहों की बन्दग़ी ।

                                शैल सिंह



गुलाब से सीख

गुलाब से सीख 


तेरी सुवासित कोमल पंखुड़ियाँ
पर काँटों भरी टहनियाँ क्यों हैं    
ऐ गुलाब बता तेरे ताबों के संग
शूलों की इतनी लड़ियाँ क्यों हैं '



     

इन शूलों के भी बीच अकड़कर
कैसे सुर्ख सिंगार कर मुस्काता है
दुनिया को जरा यह रहस्य बता दे
शूलों में घिर कैसे सुगंध फैलाता है  ।

                                 शैल सिंह

बड़े गुमान से उड़ान मेरी,विद्वेषी लोग आंके थे ढहा सके ना शतरंज के बिसात बुलंद से ईरादे  ध्येय ने बदल दिया मुक़द्दर संघर्ष की स्याही से कद अंबर...