बुधवार, 19 नवंबर 2014

ग़ज़ल

               ग़ज़ल 


दिल के निगाहख़ाने कभी तो झाँक लेते 
इन्तज़ार मौसमे-रंग का करते ही रह गए ।

जख़्म देके पूछते हैं दर्द होता कहाँ है
पूछने से और भी अज़ाब होता जवां है
वक़्त की अलामत हर जख़्म हो गए हैं
कैसे दिखाएं उनके निशां कहाँ-कहाँ हैं ।

ख़ुशी के फूल बांटती बज़्में-रौनक थी जो
सैले-नज़र ढूँढ़ती हल्काए-ज़ंज़ीर जहाँ है
मवाद बनके टीसते हैं सुलूक़ों की दास्ताँ    
दिल में असास दमे-आखिर तक जमा है ।

दामन में नूर हैं तमाम मुअत्तर है ज़िंदगी
बू का क्या करें टूटा ख़्वाबों का कारवाँ है
दिल के हक़-तलब से वाक़िफ़ ही नहीं जो
मतलूब क्या मेरी कैसी इश्तियाकें रवां है ।

तक़ाज़े क्या ज़िन्दगी के क्या ख़्वाहिशें मेरी
कैसे कहें जुबां से किया हर्फों में सब बयां है
दस्तो-दर भटक रहे हैं ख़ुशी की तलाश में
वो भी जानते हैं बखूब जो दोनों के दरम्यां है ।

हाले-दिल सुना सके ना ग़ज़ल बना लिया  
गुमनाम हसरतों का गवाह आईना यहाँ है
कैसे करे साझा हया,उरियानियों की बातें        
रेखाएं कुछ सीमाओं की,बन्द रखा जुबां है  ।

दिल के निगाहख़ाने कभी तो झाँक लेते 
इन्तज़ार मौसमे-रंग का करते ही रह गए । 

शब्द अर्थ=
अज़ाब=कष्ट ,अलामत=भेंट चढ़ना सैले-नज़र=अश्रुधार ,
हलकाए-जंजीर=एकान्त रात का सन्नाटा ,जीस्त=जीवन ,
असास=दौलत ,दमे-आखिर=अंतिम समय तक ,
मुअत्तर=सुगन्धित ,हक़-तलब=सच्ची बात ,मतलूब=आवश्यकता
इश्तियाक=परम इच्छा ,तकाजे=इच्छा ,दस्तो-दर=घर बाहर ,
उरियानियों=नग्नता,अश्लीलता ,
                                                    शैल सिंह






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