शनिवार, 24 अगस्त 2013

''गोल्डन पेन''

                              ''गोल्डन पेन'' 

होली का पर्व अब चार-पांच दिन ही रह गया है , इधर बेटे की बोर्ड परीक्षाएं भी चल रही हैं ,अति व्यस्तता के बावजूद भी सोचा होली के उपलक्ष्य में बहुत नहीं तो थोड़ा-थोड़ा ही करके घर की साफ सफाई शुरू कर दूँ ,इन पर्वों के चलते ही अन्दर तक की वार्षिक सफाई हो पाती है ,अन्यथा दैनिक दिनचर्या में तो इतना समय ही नहीं मिल पाता कि लीक से हटकर कुछ और किया जा सके ,और फिर गुझिया ,मठरी ,नमकीन भी तो बनाने हैं जिनको तैयार करने में अच्छी खासी कसरत और मशक्कत करनी पड़ती है। बच्चों की पढ़ाई ,स्कूल के झमेलों से कई बार बिल्कुल फुर्सत नहीं मिलती कि कोने अंतरों तक पहुँचा जा सके.
      काफी सोच विचार के बाद सोचा क्यूँ ना आज का अभियान आलमारी से ही शुरू करूँ ,इधर बहुत दिनों से बाहर कहीं आना जाना नहीं हुआ था ,इसलिए आलमारी भी अधिकतर बन्द ही रही। आज जब सफाई के उद्देश्य से अस्त-व्यस्त पड़ी आलमारी को करीने से सुव्यवस्थित करने बैठी तो बहुत सी वस्तुवें ऐसी भी पड़ी मिलीं जिन्हें कभी देखने या खोलने की जरुरत ही नहीं पड़ी ,सोचा बेकार पड़ी चीजों को कूड़ेदान के हवाले कर दूँ , बिना मतलब के जगह घेरे हुए हैं ,इसी तरह वो सारे पर्स जो पुराने फैशन के हो चुके हैं हटा दूँ या काम वाली को सौंप दूँ। सोचा लाओ थोड़ा तहकीकात कर लूँ पर्स के अन्दर कोई जरुरी चीज तो नहीं है  अन्दर रखी हुई पुरानी वस्तुओं को जब छांटने लगी तो उनमें से एक गोल्डेन पेन हाथ आ गयी ,जिससे मैं बिल्कुल अनभिज्ञ थी ,निशानी के तौर पर रखी गयी यह नीधि मुझे नहीं पता था कि आज भी वह उसी हालत में मेरे पास सुरक्षित है। हाथ में लेकर बहुत देर तक निष्क्रिय गुमसुम उस कलम के विषय में सोचती रही। किसी समय अवश भावना के वशीभूत होकर किसी के प्यार की निशानी के तौर पर उस समय जतन से इस तुच्छ सी अनमोल भेंट हाँ उस वक्त यह अनमोल ही लगी थी ,को एक कीमती अमानत मान कर सहेज रखा था जो पुराने पर्स के साथ साथ आज तक पास पड़ी रही। 
      इन तेईस चौबीस सालों तक आश्चर्य की बात है कि पति के सेवाकाल में यहाँ से वहाँ ना जाने कितनी बार ही तबादले हुए ,कितनी वस्तुवें तितर बितर हुईं ,कितनी चीजें औरों की जरुरत के अनुसार दान में गयीं ,लेकिन यह कलम आज तक मेरे पास किसी ना किसी रूप में सुरक्षित और मौजूद है। एक समय था यह कभी हृदय के करीब अपनी उपस्थिति दर्ज कराती थी ,कारण मुझे बचपन से कुछ ना कुछ लिखने का बेहद शौक था इसीलिए मुझे चाहने वाले ने मेरे शौक के अनुरूप यह गोल्डन पेन उपहार में दिया था। आलमारी खुली की खुली रह गयी और मैं पेन हाथ में लेकर अतीत के खंडहर में ना जाने पल भर में ही कहाँ से कहाँ पहुँच गयी। 
   मैं बी.ए.द्वितीय वर्ष की परीक्षा दे चुकी थी ,छुट्टियाँ चल रही थीं ,रिजल्ट आना अभी बाकी था ,उम्र उस दहलीज पर पहुँच चुकी थी जहाँ माँ बाप को शादी व्याह की चिंताएं होनी स्वाभाविक हो जाती हैं ,अम्मा भी मेरी शादी के लिए बाबूजी पर नित्य दबाव डालतीं ,अड़ोस-पड़ोस ,गाँव-गिराँव के लड़कियों का हवाला देतीं ,सबके लड़कियों की शादी हो गयी ना जाने हमारी बेटी के हाथ कब पीले होंगे ,कभी कभी बाबूजी झल्ला भी जाते। अम्मा जिन जिन का हवाला देतीं उससे परे बाबूजी को अपनी बेटी के लिए सुयोग्य तथा मेरे स्वभाव के अनुकूल वर की तलाश थी केवल व्याह का भार नहीं झुकाना था ,हालाँकि अपने जान पहचान वालों से वो कहा भी करते कि कोई अच्छा लड़का मिले तो बताईयेगा .स्वभावतः मैं अपने परिवार तथा भाई-बहनों से कुछ मानों में भिन्न थी ,मेरी रुचियाँ ,रुझान रहन-सहन ,बोल-चाल तथ पहनावा औरों से हटकर थे , मेरे कार्य शैली की सुघड़ता और सलीके से लोग भी प्रभावित होते। इच्छाएं गगनचुम्बी तो नहीं फिर भी सपनों का दायरा पिताजी की परिस्थितियों से थोड़ा ऊपर थीं। दहेज़  लोभी समाज में सद्दगुणों के कोई मायने ही नहीं होते। बाबूजी मेरी अन्तर्निहित भावनाओं को बखूबी ताड़ते तथा मेरे सपनों की मूक भाषा के अनुरूप ही घर-वर की तलाश में रहते ,छोटा परिवार हो ,लड़का नौकरी वाला हो ,घर शहर में हो ,पर इतनी सारी खूबियों के लिए तो दहेज़ की अच्छी खासी मोटी रकम चाहिए होती जो बाबूजी के सामर्थ्य से परे थी। अम्मा का प्रायः प्रतिदिन का उलाहना और बाबूजी का सदैव चुपचाप सुन लेना ,उनका अपनी बेटी के भविष्य के लिए , उचित माहौल के तलाश के लिए अपने मंसूबों को धार देना ही एकमात्र लक्ष्य होता ,चाहे अम्मा जीतनी ची-चपड़ करतीं।
     उन्हीं दिनों जबलपुर से बाबूजी के लिए मामाजी का एक सन्देश आया ,कि जीजाजी आप जल्द ही मालिनी को लेकर जबलपुर आ जाईये ,एक लड़का है मिलिटरी में जो ग्रीष्मावकाश में घर आ रहा है ,यहीं जबलपुर का ही रहने वाला है ,लड़का देखने सुनने में अच्छा है तथा अपनी [हाथ ]पकड़ में है। मामाजी आर्मी में मेडिकल आफिसर थे ,उन्होंने ही लड़के का चयन किया था,शायद चयन के समय ही उन्होंने मन बना लिया था मेरी शादी के लिए। हालांकि इस लड़के के विषय में सुनकर मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगा था। कहाँ मैं ग्रेजुएट और आगे की पढ़ाई सूचारू रखने के लिए और भी तत्पर और कहाँ वो हाई स्कूल पास आर्मी में छोटी मोटी पद पर कार्यरत ,मन खिन्न था सुनकर ,फिर भी मन को समझा लिया था ,कारण बाबूजी की अस्मर्थ लालसा ,अभावों की विकट मजबूरी ,सामने बड़ी लम्बी जिम्मेदारी। बाबूजी मुझे जबलपुर पहुंचाकर वापस इलाहबाद चले गए। अभी लड़के को आने में कुछ दिन शेष था ,चूँकि लड़का मामाजी के दबाव में था क्योंकि उनकी दी हुई नौकरी का वह कर्जदार था। मामाजी ने बहुत अच्छी तरह से उसे देखा भाला था बातचीत भी किया था ,इसलिए वह बाबूजी की हैसियत के अनुसार हर दृष्टिकोण से मेरे विवाह के लिए उन्हें उपयुक्त लगा था। जब भी मैं और मामी खाली समय में बैठते मामी जी उसका गुणगान करने लगतीं। मैं मन ही मन में सोचती सब मेरे बाबूजी की मजबूरी का मखौल उड़ा रहे हैं ,सीमा से अधिक दान दहेज़ न दे पाने के कारण ही मामाजी इस लडके से शादी करवा कर श्रेय लेना चाहते हैं ,दहेज़ की अस्मर्थता ने ही बाबूजी को इस शादी के लिए सहमत किया था अन्यथा वह तो खूब पढ़ा लिखा सुसंस्कारवान ,विद्वता से परिपूर्ण वर का सपना संजो रहे थे। मैं सोचती कहाँ मेरा मानसिक स्तर कहाँ उसका अधकचरा ज्ञान। मन में बार बार जिज्ञासा होती यह जानने की ,कि मामी जी की भी तो एक छोटी बहन है जिसकी शादी के लिए सभी परेशान हैं बहुत दिनों से उसके लिए लड़का तलाशा जा रहा है क्यों नहीं अपनी बहन की शादी के लिए इस लड़के का जिक्र करतीं।
      एक दिन हिचकते ही सही मैंने ये बात उठा दी ,उस समय मामी जी ने यह कहकर मेरे संशयों को शांत  कर दिया कि जानती हो मालिनी आलोक तुम्हारे ही योग्य है ,उसका नाम आलोक था ,वह मेरी बहन स्वर्णा को नापसंद कर देगा ,क्योंकि वह तुम्हारे जितनी आकर्षक नहीं लगती कहाँ दुबली पतली मरियल सी स्वर्णा  कहाँ वह रूप का शहंशाह। तुम्हारी सांवली सलोनी सूरत तथा औरों को प्रभावित करने वाला व्यक्तित्व ,उसे भी अपने आप में जरुर बांध लेगा। मैंने तुम्हारी खूबियों की चर्चा उससे कई बार की है।,तभी तो बात यहाँ तक पहुंची है।
खैर? आगे जो होगा देखा जायेगा सोचकर आश्वस्त हो गयी। एक दिन की बात है शाम ढल रही थी मैं मामाजी के बच्चों के साथ बगल के पार्क में साईकिल चला रही थी ,उस समय मुझे साईकिल चलाने की जैसे सनक सवार थी। प्राईमरी में हम लोगों ने एक कहानी ''साईकिल की सवारी '' पढ़ी थी ,ठीक उसी कहानी की तरह मैं गिरती पड़ती चोटें खाती पुरे ग्राउंड में चक्कर लगा रही थी ,पसीने से तर-बतर। उसी समय मामीजी का नौकर दौड़ता हुआ मुझे बुलाने आया ,दीदी घर चलो कोई आपसे मिलने आया है ,सुनते ही मैंने अंदाज लगा लिया ,इस समय और कौन हो सकता है। हाँ आजकल में ही वह लड़का आने वाला था शायद वही आया होगा ?
नौकर के बताने वाले हाव-भाव से यही ज्ञात हुआ। सुनकर पूरे वदन में एक झुरझुरी सी उत्पन्न हो गयी ,अचानक कैसे उसका सामना करुँगी वो भी एक अजनवी इन्सान का। धड़कते दिल से गेट के अन्दर दाखिल हुई ,बैठक रुम में जाने की हिम्मत नहीं हुई ,भगवान की दया से पिछला दरवाजा खुला था अन्दर प्रविष्ट हुई और घर के अन्दर से छत पर जाने वाली सीढ़ी के निचले पायदान पर बैठ गयी ,मामीजी आवाज लगाती रहीं,मालिनी ड्राईंग रुम में आओ लेकिन मैं टस से मस नहीं हुई। आलोक भी देर तक इंतजार करता रहा ,चूँकि वह मामीजी के घर में औपचारिक नहीं था इसीलिए काफी देर तक उपस्थित रहा। नौकर होने के बावजूद भी मामीजी ने मुझसे चाय बनवायी ताकि मैं चाय लेकर उसके सम्मुख जाऊं। किचन बैठक रूम से बिल्कुल लगा हुआ था। मन ही मन मैं भी उत्सुक थी अलोक की एक झलक देखने को ,लेकिन झिझक के जंजीर में जकड़ी साहस नहीं जूटा पा रही थी ,अचानक आलोक सोफे के एक दूसरे सिरे से खिसक कर किचन के दरवाजे की तरफ मुखातिब हुआ ,उसे भी उतनी ही ललक थी मुझे देखने की जीतनी उसे देखने की मुझे।
     चाय छानने के दरम्यान जब मेरी आँखें उसकी एक झलक देखीं तो देखती ही रह गयीं ,अप्रतिम रूप लावण्य का वह अनुपम जागीरदार ,उस पर से लाल रंग की शर्ट और काले रंग की पैंट ,उसकी खूबसूरती में चार चाँद लगा रहे थे ,अब तो और भी सामने जाने की हिम्मत नहीं हुई ,उसका और मेरा कोई मेल नहीं। उसके अकाट्य रूप के आकर्षण में मैं अपने शिक्षा के दर्प को भूल गयी। मैं सामने नहीं गयी। अँधेरा काफी घिर जाने के बाद वह अनमनस्क सा अपने घर चला गया ,मन के तहखाने में विराज गुदगुदी जगाकर। दूसरे दिन नहीं आया तो मेरी आँखें शाम तक उसका रस्ता ताकती रहीं।
   तीसरे दिन वह आया तो मैं और मामीजी बैठक रूम में ही मिल गयीं ,अचानक उठकर जा नहीं सकती थी ,इसलिए नजरें नीची किये ही बैठी रही और उनके बीच हो रहे वार्तालाप सुनती रही। कभी-कभी कनखियों से उसे देख लेती। बीच-बीच में मैं भी किसी किसी बात पर हाँ हूँ कर देती। उस दिन थोड़ी शर्म और झिझक के गह्वर से बाहर निकली। उसके बाद से आलोक का आना जाना बरक़रार रहा ,मैं भी शर्मोहया से निकलकर बेतकल्लुफ हो उससे बातें करने लगी ,इस विश्वास के साथ कि इस लगन में तो शादी होनी ही है ,लड़का तो मामा,मामीजी की मुट्ठी में है ,सैयां भये कोतवाल अब डर काहे का वाली कहावत जो चरितार्थ हो रही थी।
    फिर एक दिन ऐसा हुआ कि मामीजी को अचानक घर ,बच्चे  तथा नौकर को मेरे ऊपर छोड़कर विशाखापत्तनम जाना पड़ा ,क्योंकि मामाजी की पोस्टिंग उस समय वहीँ पर थी। नौकर समझदार तथा स्वामिभक्त था और मामीजी को मुझपर विश्वास था कि मैं उनकी अनुपस्थिति में घर तथा बच्चों कि अच्छी तरह देखभाल कर लूँगी। उन्होंने आलोक को भी बुलाकर कहा कि अभी तुम्हारी छुट्टियाँ बची हैं ,कभी-कभी आकर इन लोगों का भी हालचाल पूछ लिया करना ,इस प्रकार मामीजी पूर्ण रूप से आश्वस्त होकर विशाखापत्तनम के लिए रवाना हो गयीं। आलोक प्रायः प्रतिदिन आता बच्चों के साथ खेलता मुझसे गपशप करता और शाम ढलते ही अपने घर चला जाता उसके रहने से जो रौनक होती ,जाने के बाद माहौल बिल्कुल मायूस हो जाता मैं भी उदास हो जाती। पलक झपकते ही गर्मियों का पहाड़ सा दिन गुजर जाता जैसे समय को पंख लग जाता हो। मन में अनगिनत प्यार की कोंपलें फूटतीं ,बहुत सी अनकही बातें जिसे नजरें तो बोलतीं पर जुबां तक लाने में शर्मोहया की दीवार अवरुद्ध कर देतीं। खामोशी का इजहार कम जुल्म नहीं ढाती थीं पर….। प्रत्यक्ष रूप से तो हम दोनों ही कुछ नहीं कह पाते ,पर आलोक जरुर कुछ-कुछ जतलाता और मेरे भी मन के आन्दोलन को जानने की कोशिश करता। एक दिन दिल के हाथों मजबूर होकर साहस जुटाकर, उस समय चिट्ठी पत्री को अच्छा नहीं माना जाता था ,बदनामी का कारण होता था ,अन्तर के उद्वेलन को ,अकथ भावों के अवश बाढ़ को एक छोटे से कागज के टुकड़े पर अंकित कर अलोक के घर जाते वक्त उसके शर्ट की जेब के हवाले कर ही दिया। प्रत्यक्ष रूप से उसके मनोभावों को पढ़ने की अभिलाषा लिए दूसरे दिन का बेसब्री से इंतजार करने लगी।
     नियम के अनुसार दूसरे दिन आलोक आया ,मेरी उत्कंठा को संबल मिला ,प्रत्युत्तर में उसने एक लम्बा सा ख़त पकड़ाया ,जिसे नौकर तथा बच्चों से चोरी छिपकर बाथरूम में पढ़ने के लिए भागी। पत्र पढ़कर मन के सारे संशय काफूर हो गए। मैं प्रेम की अतलांत नदी में डूबने उतराने लगी। फिर तो यह सिलसिला क्रमवार हो गया ,भावनावों का उद्वेग रोकना जैसे मुश्किल सा हो गया। प्रतिदिन ही हम दोनों अपनी अपनी मनःस्थितियों को बस कागजों पर अंकित करते और हर आने वाले कल में एक दूसरे के खतों का जवाब लिखकर एक दूसरे के हाथों को सुपुर्द कर देते बिना किसी हिचकिचाहट के। हम दोनों की एक स्वाभाविक लज्जाशीलता और संकोच ने बोलती हुई आँखों और फड़फड़ाते होंठ को कभी इजाज़त ही नहीं दिया कि परोक्ष रूप से कुछ कह सकें, मर्यादाओं का कभी उल्लंघन नहीं किया। अक्सर ऐसा होता बच्चे पार्क में खेलने चले जाते ,नौकर घर का सामान लेने बाजार चला जाता ,बचते बस हम दोनों ,अलोक चाहता तो इस अकेलेपन का फायदा उठाता ,लेकिन हमेशा एक सीमा में रहकर उसने मुझसे दूरी बनाये रखी और मैं भी अपनी गरिमामयी छवि से  कभी बाहर नहीं निकली ।
     एक दिन विशाखापत्त्नम से मामीजी का पत्र आया जिसमें लिखा था मालिनी यहाँ से हमारे एक परिचित की बेटी रोजलीन जा रही है ,तुम लोग उसे जबलपुर अच्छी तरह से घुमा देना पत्र में ज्यदातर आलोक के लिए ही लिखा गया था तुम लोग वहां के रहने वाले हो ,मालिनी भी कहीं नहीं घूम पाई उसे तथा रोजलीन को साथ लेकर शहर के सभी ऐसे स्थान दिखा देना जो वहां के महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल हैं। रोजलीन आ गई ,जल्द ही हमलोग आपस में घुलमिल गए ,भले कुछ दिनों के लिए सही पर रोजलीन मेरी अन्तरंग सहेली बन गयी। मैंने दिल के सारे जज्बात खोलकर रोजलीन के सामने रख दिए। रोजलीन मेरे अहसासों से तो परिचित हो गयी ,पर आलोक के मन की क्या सच्चाई है जानने के लिए वह उचित समय की फिराक में थी। हम लोगों का आये दिन कहीं ना कहीं घुमने का प्रोग्राम बनता और यही तय होता की साईकिल से ही घूमेंगे ,मुझे तो बेधड़क साईकिल चलाने आती नहीं थी ,इसलिए एक साईकिल रोजलीन लेती दूसरी साईकिल पर मैं और अलोक होते सुबिधा के अनुसार मैं अलोक की साईकिल पर आगे ही बैठती। सैलानियों की तरह हम लोग हंसते खिलखिलाते घुमने निकल पड़ते। आहिस्ता-आहिस्ता सफर तय करते और दर्शनीय स्थलों का दीदार करते। इसी बीच रोजलीन ने आलोक से पूछ लिया तुम्हें मालिनी कैसी लगती है क्योंकि वह तो अतुलनीय सौन्दर्य का मालिक था इस बात से मैं भी विचलित रहती ,सोचती कही पत्रों का लेन-देन क्षणिक आकर्षण का आवेग तो नहीं ,पर उसने रोजलीन को संतोष जनक उत्तर दिया था कि नहीं मालिनी मुझे बहुत अच्छी लगती है ,उसकी बोलती हुई बड़ी-बड़ी कजरारी आँखें मुझे आकृष्ट करती हैं मालिनी के पास एक चुम्बकीय आकर्षण है और उसका अपना एक अलग व्यक्तित्व है ,जितना इसके विषय में बताया गया था उसी के अनुरूप दिखी इसीलिए मैं उसका मुरीद बन गया हूँ।तभी तो प्रतिदिन खिंचा चला आता हूँ।
     रोजलीन कुछ दिनों बाद चली गयी ,आलोक की भी छुट्टियाँ अब ख़त्म होने को आ गयी। आलोक के जाने से पहले ही मामी जी जबलपुर से आ गयीं। आलोक जाने से एक दिन पहले हम सबसे मिलने आया ,वयां नहीं कर सकती कि वह जाते समय कितना उदास था ,मेरे भी आँखों की कोरें गीली हो गयीं थीं जिसे मामीजी से छुपाकर आँखों में ही ज़ज्ब कर ली थी मैंने। जाते वक्त आलोक अपना वर्तमान पता दे गया था जिससे मैं पत्रों द्वारा संपर्क में बनी रहूँ ,उस समय उसकी पोस्टिंग कोचीन में थी. मेरा भी घर यानि इलाहबाद जाने का समय आ गया। बी.ए. का रिजल्ट निकल गया था। मैं बहुत अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुयी थी।एक दिन की बात है मैं बच्चों के साथ पार्क में शाम को घुमने गयी थी ,चूँकि मुझे लेने के लिए आजकल में ही बाबूजी आने वाले थे इसलिए मैंने अपनी पैकिंग कर ली थी ,मुझे इसका जरा भी अंदाजा नहीं था कि मामीजी इतनी क्षुद्र मानसिकता की हो सकती हैं अच्छी रसूख रखने वालों के अन्दर की गन्दगी उस दिन पता चली। मेरी अनुपस्थिति में उन्होंने मेरे बैग की गहन तलाशी ली थी यह देखने के लिए कि कहीं मैं उनका कोई सामान तो नहीं चुराकर ले जा रही हूँ। कपड़ों की तहों के बीच रखे गए प्रेम पत्र उनके हाथ लग गए उन्होंने एक-एक पत्र खोलकर पढ़ डाले थे। किसी की लिखी गई अनुभूतियों को ,जज्बातों को मामी जी ने किस रूप में लिया यह तो वही जानें। जब मैं कुछ निकालने के लिए बैग खोली तो उसकी हालत देखकर अवाक् रह गयी ,बेतरतीब सामानों को देखकर मामी जी की बेशर्म हरकत पर बहुत खेद हुआ ,कोई उन्होंने पत्रों की जाँच पड़ताल के लिए थोड़े ही मेरे बैग की चेकिंग की थी ,उन्हें क्या पता हमारे पत्रों के विषय में ,उनका मकसद गलत था मैं क्षुब्ध हो गयी थी उनके इस करतूत से ,अरे वो पूछतीं तो मैं खुद ही सब कुछ उगल देती ,बेहिचक उनसे मन की बातें शेयर कर देती क्योंकि मैं उनसे काफी खुली हुई थी ,वो तो एक संकोच था मेरे अन्दर झिझक थी जो मैं उनसे कह पाने में खुद को अस्मर्थ महसूस कर रही थी ,पर उन्होंने मुझसे कुछ पूछा ही नहीं ,बल्कि उन्हें नमक मिर्च लगाकर मेरे विषय में अफवाह उड़ाने का एक तथ्य मिल गया। वैसे वो थीं भी ओछी प्रवृति की ही।
    मम्मी ! मैं कबसे बुला रहा हूँ तुम सुन नहीं रही हो ,बेटे की आवाज सुनकर मेरी तन्द्रा भंग हो गई और मैं वर्तमान में लौट आई। पढ़ाई के दौरान हर एक घंटे पर उसे कुछ-कुछ खाने की चीजों की फरमाइश करने की आदत सी है ,उसे मठरी तथा टमाटर का सूप देकर फिर आलमारी के पास बैठ गयी।,पुनः अपने अतीत के पन्ने पलटने। कितने सुनहरे पल थे वे ,कौमार्य में एक विचित्र तरह की हलचल ,मीठा-मीठा स्पंदन हर क्षण उसके विषय में सोचकर झुरझूरी ,जब उसकी चिट्ठियां आतीं बाँछें खिल जातीं। अनगिनत बार खोलकर पढ़ती ,उसके पत्रों की लेखन शैली मुग्ध कर देतीं। चूँकि घर में सभी को पता था इस विषय में कोई डर या भय तो था नहीं ,एक डोर में बंधने की ख्वाहिश जो पूरी होनी थी। भविष्य के सपने संजोने में एक वर्ष का अन्तराल पत्रों के सहारे गुजर गया।
    एक दिन ऐसा भी आया जब बाबू जी विवाह फाइनल करने के लिए आलोक के घर जबलपुर गए। वहां से बाबूजी लौटे तो उनका उदास मुख मण्डल देखकर अनुमान स्वतः लग गया ,जरुर कुछ गंभीर बात है ,बाबूजी के द्वारा कही गयी बात ने घर के सभी लोगों को अचंभित कर दिया ,मैं तो संज्ञाविहीन जड़वत खड़ी की खड़ी रह गई। भावनाएं इतनी आगे बढ़ चुकी थीं कि पीछे लौट कर आना पर कटे पंक्षी के सामान लगने लगा। बाबूजी ने बताया आलोक के पिताजी ने अधिक दहेज़ की मांग रखी तथा अपने लडके की खूबसूरती का भी हवाला दिया। शादी नहीं करनी थी इसलिए तमाम बहानेबाजी। अलोक की नौकरी तो अब छिनी नहीं जा सकती थी ,इसका उन्होंने फायदा उठाया था।
  आलोक चाहकर भी अपने पिताजी की बात की अवहेलना नहीं कर सकता था। अपने परिवार को ठेस न पहुंचाकर मुझे ही समझाने की कोशिश करता ,मुझे फिर भी उम्मीद की किरण शेष दिखाई देती कि आलोक जरुर घर में विद्रोह का विगुल बजायेगा ,पर ऐसा कुछ नहीं हुआ ,आलोक की चिट्ठियों के स्वरूप भी शनैःशनैः बदलने लगे ,बाबूजी ने तो अन्यत्र शादी देखने का मन बना लिया और मुझे सख्ती से हिदायत दी गयी कि अब उससे किसी भी तरह का संपर्क नहीं रखना है। हृदय की अनन्त गहराई से प्यार करने वालों के दर्द को कोई और क्या समझेगा। आलोक ने तो अपने पिता की आज्ञा को बड़ी ही सहजता से शिरोधार्य कर लिया ,लेकिन मैं टूट कर बिखर गई। बार-बार सोचती मैंने स्वयं को इस पथ पर बढ़ने से रोका क्यों नहीं ,पता नहीं आगे चलकर यह रिश्ता होगा या नहीं ,यह सोचा क्यों नहीं ,प्यार की पेंग का हश्र क्या होगा ,क्यों नहीं कभी मन में इसके अंजाम का भ्रम पैदा हुआ। बाबूजी किसी भी शादी की चर्चा करते तो अच्छा नहीं लगता ,सोचती आजीवन अपनी छोटी सी भूल की यादों के सहारे जीवन काट दूँगी। लेकिन जिंदगी का इतना लम्बा सफर किसी पतवार के बिना तो पार लगना असंभव था । एक टीस और चुभन के साथ अपने पगले मन को समझा लिया। मैंने पत्रों के आदान-प्रदान को एक बहुत बड़ा गुनाह समझ लिया था जिसका दंश बार-बार सालता ,लगता मैंने कोई पाप या अपराध कर दिया है ,मेरी  बेदाग छवि में कजरौटा से काजल कैसे लग गया ,शायद इसी गफलत में भावनाएं ठोकर खायीं की आलोक को नौकरी देने का मतलब मेरी शादी ही अंतिम विकल्प होगा उसके लिए ,पर उसका पूरा परिवार धूर्त निकला ,किसी ने भी इस रिश्ते की वकालत नहीं की , ''मतलब निकल गया तो पहचानते नहीं'',आलोक तथा उसके पूरे परिवार पर यह कहावत सटीक बैठी  ।
      किसी ने सच ही कहा है भाग्य में जो लिखा होता है वही होता है इससे इतर चाहे जो उपक्रम कर लो ,''होइहैं वही जो राम रची राखा''. आनन-फानन में मेरी शादी पक्की हो गयी। लड़का खूब पढ़ा लिखा सुसंकृत ,समझदार आफिसर और क्या चाहिए था बिना दान दहेज़ बाबूजी की उम्मीदों से परे बढ़िया घर वर। सारा घर व्याह की ख़ुशी और तयारी में तल्लीन हो गया ,क्योंकि अगले महीने ही शादी की तारीख पक्की हुई थी। बोर्ड परीक्षाओं का समय चल रहा था ,आलोक ने भी इंटरमीडियेट का फार्म भरा था वह भी इलाहबाद से। इलाहबाद में ही उसका ननिहाल भी था ,छुट्टी लेकर वहीँ से वह भी परीक्षा देने आया था। मुझे उससे मिलना बहुत जरूरी था, कुछ शिकवा शिकायत करने तथा अपनी चिट्ठियों का बण्डल लेने के लिए। आलोक बताये गए स्थान पर मिला ,पता नहीं क्यों पहले जैसे भाव नहीं उमड़े न ही कोई सिहरन हुई। उसे अपनी अस्मर्थता का अहसास था बड़े ही स्नेहिल लहजे में उसने मुझे समझाया ,बोला मुझसे ज्यादा पढ़ा-लिखा तुम्हें पति मिला है मुझसे ज्यादा प्यार करने वाला होगा ,तुम मुझे भुलाकर नए सिरे से जिंदगी की शुरुवात करना ,जानती हो मालिनी इतना अच्छा लड़का तुम्हारे पिताजी ने तुम्हारे लिए चुना ,सुनकर मुझे भी काफी ख़ुशी हुई यह सोचकर कि मेरी मालिनी उसके साथ मुझसे ज्यादा खुश रहेगी।उसने मुझे भी आगे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। मेरी चिट्ठियां मुझे वापस कीं  तथा साथ में अपनी यादों को बरकरार रखने के लिए यह गोल्डन पेन और अपनी एक तस्वीर मुझे सौंपी। आलोक के लिए प्यार में पगी हुई, लिखी गयी अपनी चिट्ठियों का धरोहर पाकर मैने अपने बीते हुए कल को इस अंतिम मिलन के साथ  ही हमेशा के लिए दफन कर दिया अपने भावी जीवन साथी की सुनहरी कल्पनाओं के साथ।
    धीरे-धीरे शादी की तारीख नजदीक आ गयी ,एक दिन शादी भी हो गयी। मैं व्याह कर ससुराल आ गई। पति से पहले मिलन की वह रात आज फिर याद हो आई ,नपे तुले संवाद मर्यादा में बंधा हुआ व्यवहार एक अनदेखी ,अजनवी किन्तु अपनी हो चुकी पत्नी के साथ बात चीत करने का सलीका ,दिल को गहरे तक प्रभावित कर गया ,और मैं मन ही मन गुनगुना उठी ''दिल की ये आरजू थी कोई दिलरुबा मिले अब तक तो जो भी दोस्त मिले बेवफा मिले '' ,पुरानी यादों का रहा-सहा जो तिनका शेष बचा था उस पर भी मैंने कफ़न की दोहर सदा के लिए ओढ़ा दी थी ,तस्वीर को तो चिन्दी-चिन्दी कर हवा में उड़ा दिया था ,पर यह गोल्डन पेन छुपी रुस्तम सी मेरे साथ साथ आज तक मेरे सामानों की फेहरिस्त में अपनी अहमियत बरक़रार रखे रही ,तभी तो आज इसे उसी रूप में चमकते हुए देखकर पुरानी दुनिया में जाने पर मजबूर हो गयी ,सफाई अधूरी की अधूरी ही रह गयी। कल्पनाएं जीवन्त होकर क्षण भर के लिए गुदगुदा गयीं। हमराज पति महोदय को जब इसकी दास्तान सुनाई तो हंसने लगे तथा चुटकी भी काटने से बाज नहीं आये। मैंने उनसे कभी भी कुछ भी नहीं छिपाया।
       कुछ दिनों बाद मैं आगे की पढ़ाई सुचारू करने के लिए मायके आ गयी। मैं अपनी नई दुनिया से काफी खुश थी। भविष्य के लिए जो कुछ भी चाहिए था वह सुलझे हुए पति के रूप में हासिल हो गया था। अथाह प्यार करने वाला जीवन साथी भावनाओं की कद्र करने वाला दोस्त और क्या चाहिए था ,एक दूसरे के प्रति समर्पण की भावना से ओत प्रोत कम दिनों में भी हम एक दुसरे के बहुत करीब आ गए थे। औरों के लिए बेहद शर्मीला स्वभाव पर मेरे लिए एक अलग रूप का दर्पण मैं भाव विभोर हो जाती।  एक बार इन्होने मुझसे पूछा भी था मालिनी मुझसे तुम्हें क्या-क्या उम्मीदें हैं ,तब मैंने खुलकर बेझिझक कहा था मुझे चाहिए एक सुन्दर हृदय जो मेरी महान भावनाओं को समझ सके ,फिर तो पति महोदय इतने समर्पित हो गये की कभी शिकायत का अवसर ही नहीं मिला।
   एक दिन मेरी अपनी भाभी का पोर्टब्लेयर से पत्र आया ,भैया का जल्द ही वहां तबादला हुआ था। भाभी ने पत्र में जो कुछ भी लिखा था उसे पढ़कर मुझे कोई विशेष दुःख या किसी तरह की प्रतिक्रिया नहीं हुई ,उन्होंने आलोक के ही सम्बन्ध में लिखा था ,संयोग से उसकी भी पोस्टिंग वहीँ हुई थी। लिखा था मालिनी तुम्हें सुनकर दुःख होगा आलोक अपनी शादी से बिल्कुल भी खुश नहीं है। शादी के तीसरे दिन ही परिवार वालों से नाराज होकर वह अपनी ड्यूटी पर चला आया। खूब शराब पीता है। एक दिन उसने जहरीला पदार्थ भी खाकर आत्महत्या करने की कोशिश की थी। भाग्य से पास में रहने के कारण हम लोग समय पर पहुँच गए और तत्काल अस्पताल ले गए उसकी जान बच गयी। मालिनी तुम्हें विश्वास नहीं होगा तुम्हारे भैया से लिपट कर आलोक बहुत रोया ,अपनी गलतियों के लिए माफी मांगता रहा। मुझे पत्र पढ़ने की आगे एकदम इच्छा नहीं हुई ,यह नौटंकी पहले भी तो वह कर सकता था मन की बात प्रकट कर ,अब क्या फायदा जब ''चिड़िया चुग गयी खेत''। शायद उसके भी मन में अति सुन्दर वीवी की कल्पना बलवती रही होगी तभी तो परिवार वालों से विशेष प्रतिरोध नहीं किया था। उस समय सिर्फ इतना महसूस हुआ कि जिस आलोक को मैं हृदय की अतल गहराइयों से प्यार करती थी जिसके पत्र के इंतजार में पोस्टमैन की बेसब्री से प्रतीक्षा करती रहती थी ,आज उसकी विषम परिस्थिति से वाकिफ होकर जरा भी विचलित नहीं हुई ,सहानुभूति का कोई ज्वार नहीं फूटा ,शायद इसलिए कि मैं किसी और को तहे दिल से प्यार करने लगी थी ,किसी और की अमानत बन चुकी थी। पत्युत्तर में मैंने तुरंत कलम उठाया और भाभी को पत्र लिखने बैठ गयी ,पत्र में मैंने आग्रह किया कि भाभी आइंदा आप अपने पत्रों में आलोक का कभी कोई जिक्र मत करियेगा , मैं उसे अपने जीवन की ,खुद के द्वारा अक्षम्य भूल समझकर अपने आप से उसके अस्तित्व को मिटा चुकी हूँ ,नासूर तक का आपरेशन कर चुकी हूँ। तब से लेकर आज तक कभी भी जेहन में उसकी कोई प्रतिच्छाया उभरकर नहीं आयी ,और ना ही मैंने अपने व्यस्त जीवन में कभी उसकी परछाईयों को फटकने ही दिया। पर इस गोल्डन पेन ने तो अपना कमाल दिखा ही दिया ,मैं क्षण भर के लिए उन्ही अनुभूतियों से रूबरू हो गयी।
     आज इतने वर्षों के अंतराल के बाद  इस तुच्छ सी भेंट ने अट्ठाईस सालों के कड़वे अनुभवों को उजागर कर मुझे थोड़ी देर के लिए सोचने पर विवश कर दिया। घटनाएँ जो घटती हैं कुछ अच्छे के लिए ही घटित होती हैं। आज मुझे अपने भाग्य पर रस्क होता है हमारा छोटा सा खुशहाल परिवार है जो ईश्वर ने हमें सौगात में दीं हैं। लेकिन एक बार ,सिर्फ एक बार दिल की तमन्ना है,उत्कट अभिलाषा है कि जिंदगी की राह पर चलते-चलते जीवन के किसी मोड़ पर आलोक से मुलाकात अवश्य हो ,ताकि उससे मैं कह सकूँ ,बेवफा देख तूने क्या खोया और मैंने क्या पाया।

                           शैल सिंह




बुधवार, 21 अगस्त 2013

''शरारती चाँद''

                  ''शरारती चाँद''        


मुखड़ा  दिखावे  चाँद  बदरा की ओट से 
लुका-छिपी करे ओढ़ी घटा की चदरिया ,
     हमें कांहें तड़पावे तरसावे मुस्काई के 
     रही -रही टीस उठे जांईं जब सेजरिया ,
हमका रिझाई करे चन्द्रिका से  बतिया 
अंखिया मिलावे कभी फेरी ले नज़रिया ,
      देखि ई निराला प्रेम करवट कटे रतिया 
      लोचन से लोर ढुरे जईसे बरसे बदरिया ,
बलमा अनाड़ी नाहीं बूझे मोरे मन की 
निंदिया बेसुध  सोवे तानी के चदरिया ,
      हियरा के गूंढ़ बात अब कहीं  केकरा से
      तनी अस केहू होत लेत हमरो ख़बरिया।  

एक निवेदन

''एक निवेदन''

ओ माटी के लाल 
सात समुन्दर पार ना जाना  
दूर देश परदेश में 
ढेरों भरा ख़जाना अपनी 
बोली भाषा वेश में। 

चंद सुखों की खातिर छूटे 
ये कुटुम्ब परिवार 
शहर पराया अनजान नगर 
छोड़ के ना जा ये घर बार। 

हमजोली संग मनी रंगरेलियाँ 
याद करो बचपन की गलियाँ 
गाँव का मेला घर,चौबारा 
दीया दीवाली फुलझड़ियाँ। 

थाल सजा चन्दन औ रोली 
हाथ बंधी रेशम की डोरी 
नटखट बहना की प्यारी राखी 
कहाँ मृदुल ममता की छाती। 

कहाँ बजेगी पायल की रुनझुन 
कहाँ सुनोगे चूड़ी की खनखन 
चुनर में लिपटी लाज की लाली 
कहाँ मिलेगी अनुपम दुल्हन। 

होली का हुड़दंग ना होगा 
ना झुला सावन की कजरी 
रीति रिवाज त्यौहार ना कोई 
ना व्यंजन पकवान कढ़ी। 

ओ माटी के लाल 
सात समुन्दर पार ना जाना
दूर देश परदेश में
ढेरों भरा ख़जाना अपनी
बोली भाषा वेश में।
                           
                               शैल सिंह






ये नक़ाब

    ये नक़ाब

चलती थी सडकों पे बेनक़ाब
    हुस्न ने परदा गिरा दिया
       जब याद जमाने ने मुझे
          उम्र का दरजा दिला दिया।

कैद कर लो हिज़ाब में
    शोख अदाएं ये मस्त जवानी
       कह -कह कर बुजुर्गों ने मेरे
           जिस्म का जर्रा जला दिया।

मुड़-मुड़ के देखते थे लोग
     जिस गली से कूच करती थी
         मेरी बेबसी का ऐ खुदा तूने 
            अंजाम ये कैसा सिला दिया।

इस नालाकश में बताईये ज़नाब
     मुस्कुराएँ तो भला हम कैसे
         कहाँ से आई ये पागल शवाब
            जो हमें परदानशीं बना दिया।

रुख पे कैसा लगा ये रुव़ाब
   किन अल्फ़ाज़ में कहूँ लोगों
       इस बेकसूर हूर को बस
          तसब्बुर का आईना बना दिया।

                                          शैल सिंह
            

मंगलवार, 20 अगस्त 2013

नूतन पीढ़ी

      नूतन पीढ़ी

यह  युग  लाया  जाने  दौर है कैसा
कि तिनका-तिनका बिखर गया है।

आज  जिस  दौर  से  गुजर रहे हम
जिस पर सबसे असर पड़ा है ज्यादा
वह  है  सारे  रिश्तों   के  टूटे  बिखरे
संवेदनशील   सम्बन्धों   का  धागा।

इस  युग  की  युवा  पीढ़ी  को भाता
लोग  बाग़ समूह से परे एकाकीपन
नटखट  खो  गया  अबोध  बालपन
हुआ  परिपक्व समय से पहले मन।

भाँति-भाँति के खेल गुलेल लुप्त सब
संग,साथ,चौकड़ियों का हुआ अभाव
आपस  का सारा सद्दभाव मिटा रहा
कंम्प्यूटर, मोबाईल का  बढ़ता चाव।

नैतिकता  खो  रही  यह  नूतन पीढ़ी
पल रही  दिनचर्या  अपसंस्कृति  में
श्रम प्रयास से विमुख हो रहे सबलोग 
तत्पर लाभ की परिचर्चा विकृति में।

शर्म,हया,भय,संकोच मिटा दिये सभी 
दूर हो रही मुख से मासूमियत भोली
टूटते बिखरते तालमेल सुमेल खो रहे
आँखें विनम्रहीन,ओछी हो रही बोली।

मुशफ़िरख़ाना लगती बाबुओं को ड्योढ़ी
बस लड़कियों में ख़ुशी तलाशते फिरते हैं
ना जाने किस भंवर में उलझे रहते भैया 
सब हैं साथ मगर खोये-खोये से  रहते हैं ।

अविलम्ब शिखर तक जाने की तत्परता
प्रतिभा बिकने  लगी  सरेआम बाजार में
सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ें उन्हें वक़्त कहाँ जब 
बोली लगने को  योग्यता  कड़ी कतार में ।

लुभा  रही है  हर  युवा  मन   को  आज
विदेशी  जमीं  की वेगवती झंकृत मुद्राएँ
क्यों  ना  थोड़ा  चिन्तन  कर  खोजें खुद
अपनी  ही  जड़  जमीं पर  नयी  दिशाएं ।

नयी   हवा   के   झोंकों   में  बहके  इन
युवाओं   को   कदम   संभालना   होगा
गैरों  के  दरवाजे  दस्तक  देने से पहले
दिशाहीन   मन   को  खंगालना   होगा ।

सम्बन्धों  की  अतल  गहराई  में  डूबें
भावनाओं  के  तीव्र प्रवाह  में  गोते लें
टूटन ,विखंडन ,कसक ,खटास , ग़म
प्रणय  के अपरिमित जलधार में धो लें ।

कोसों पीछे छूट गया है जो युग प्यारे
उसकी तह दर तह विहँस फिर खोल
ख़ुशी से खिलखिला कर अट्टहास कर
होंठों की सलवटें हटा हुलस कर बोल ।

आवश्यकता है फिर से हम सबको ही
हर पल को सुख पूर्वक साथ बिताने की
आदर्श सम्बन्धों को और मजबूत बनायें
दादी-बाबा,नानी-नाना साथ जुड़ाने की ।
 
                                           शैल सिंह






बड़े गुमान से उड़ान मेरी,विद्वेषी लोग आंके थे ढहा सके ना शतरंज के बिसात बुलंद से ईरादे  ध्येय ने बदल दिया मुक़द्दर संघर्ष की स्याही से कद अंबर...