'' भजन ''
भगवन तुम तो बसे हो मन-मन्दिर
ईंट-पत्थरों के शिवाले क्यूँ जाऊँ
जब मन के नगर में तेरा महल
क्यूँ चौखट-चौखट सर टकराऊँ ,
तेरा रूप धार ली काया मेरी
प्रतिदिन अंग भभूत लगाऊँ
रच-बस गए हो प्रभु तुम मुझमें
नख-शिख रोम-रोम सुख पाऊँ ,
याचनाओं का अर्ध्य भेंट दी
दु:ख का मृगछाल बिछाऊं
निशि-वासर हूँ लीन भजन में
दीन-दशा का भोग चढ़ाऊँ ,
तेरे पांव पखारें नीर नयन के
दुःख की गागर छलकाऊँ
कहीं छवि ओझल ना जाये
डर से पलकें ना झपकाऊँ ,
तुम ध्यान मग्न मेरे उर गह्वर में
क्यूँ गुफ़ा कंदरा मन भटकाऊँ
जब मुझमें समाहित तुम प्रभुवर
क्यूँ दर-दर की जा ठोकर खाऊँ ,
एक बार नज़र तूं फेरे इधर
क्यूँ मन्दिरों की घण्टी खटकाऊँ
जब नज़रबन्द कर लिया तुझे
दिन रात दरश तेरा पाऊँ ,
शैल सिंह
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