शनिवार, 4 अक्तूबर 2014

मन के द्वारे लगा सांकल सारी दुनिया

मन के द्वारे लगा सांकल सारी दुनिया


हँसी के फौव्वारे ठहाकों की दुनिया
कहाँ खोई जाने चौपालों की दुनिया ,

ठहर सी गई आ कहाँ ज़िन्दगी ये
मन के द्वारे सांकल लगा सारी दुनिया ,

गुड्डे-गुड़ियों का खेल बन्ना-बन्नी के गीत
थाप ढोलक के नाचती नज़ारों की दुनिया ,

त्योहारों की रौनक वो गँवईं का मेला
लकठा,जलेबी,फुलौड़ी,गुब्बारों की दुनिया ,

चवन्नी,अठन्नी में सारे ख़ुशी के सामान 
ख़रीद सकती कहाँ अब दौलत की दुनिया ,

गिल्ली-डंडा,कबड्डी,ताश की वो दोपहरी
खेत-खलिहान,बगिया चहकती वो दुनिया ,

नेट,मोबाईल चाण्डालिन टैब चुड़ैल टी.वी ने
चट कर दी सामाजिक समरसता की दुनिया ।

लकठा-बेसन का बना हुआ गुड़ में पगा
       
                                                  शैल सिंह


मंगलवार, 30 सितंबर 2014

गिर्दाब में है नैया

गिर्दाब में है नैया

दर-दर भटक रही अर्से से आसेबों से बचा ले
कहाँ है मेरी मंज़िल,मंज़िल से खुद मिला दे ,

जिस चीज की तलाश में पागल बनी हूँ फिरती
चुपके से आके फूल वो आँचल में खुद गिरा दे ,

लड़खड़ाती आस ,वक़्त के गिरदाब में है नैया
बुझती हुई उम्मीदों के पलक दीप खुद जला दे ,

पड़ गए हैं आबले अब तो धैर्य के भी पाँव में
अज़्मे-सफ़र में रब अमां के ग़ुंचे खुद खिला दे ,

ना असास मांगती हूँ ना शम्सो-क़मर ही माँगा
नवाज़िशों से ख़ुदा किश्ते-दिल को खुद सजा दे ,

आशाओं की दहलीज़ पर शिकस्त बस है खाई
अब किस दर पे जाऊँ ले कांसा तूं ही खुद बता दे ,

साईल बना दिया है कहाँ-कहाँ ना झख है मारा
बेताबी-ए-एहसास,बेदर्द दुनिया को ख़ुद दिखा दे ,

नकारते हैं वह भी जो नहीं कहीं से मेरे क़ाबिल
दबा कहाँ तक़दीर का पुलिंदा सुराग़ खुद बता दे ,

मौसम के साथ-साथ उम्र खिसक रही पल-पल
तक़ाज़े का राग मेरे,अंदाज़ के साज़ खुद सुना दे ।

आसेबों -भटकन , गिरदाब -भंवर , आबले-छाले
अज़्मे-सफ़र--अभिलाषा,यात्रा ,  अमां -संतुष्टि
असास-दौलत , शम्सो-क़मर-चाँद,सूरज,
नवाज़िशों-कृपा , क़िश्ते-दिल -हृदय भूमि
कांसा -भीख का कटोरा , साईल -भिखारी                                                            
तक़ाज़े -इच्छाओं ,





बड़े गुमान से उड़ान मेरी,विद्वेषी लोग आंके थे ढहा सके ना शतरंज के बिसात बुलंद से ईरादे  ध्येय ने बदल दिया मुक़द्दर संघर्ष की स्याही से कद अंबर...