मंगलवार, 28 अगस्त 2018

" विरहवर्णन एक विरहणी का "

" विरहवर्णन एक विरहणी का "


निष्प्रभ हो गए उद्विग्न दो नयन
मगर तुम न आए तो मैं क्या करूं।

मन के आंगन में चौका पुराये हुए
तन की देहरी रंगोली खिंचाये हुए
निशी-बासर प्रत्याशा की ताक पर
नेत्र की वर्तिका नित जलाये हुए
मग जोहती रही पलक-पांवड़े बिछा
हृदय के द्वार तोरण सजाये हुए
मगर तुम न आए तो मैं क्या करूं।

सावन की रिमझिम फुहारें बरस
कर गईं धरणी का आँचल सरस
उर अदहन सरिखा खदकता रहा
कर सकी ना तरल तन बरखा हरष
वसंतदूती की कूक से उठी हूक हिय
यामिनी भी कसकती रही खा तरस
मगर तुम न आए तो मैं क्या करूं।

वियोग में तप रही दीपिका की तरह
प्रज्वलित हो जल रही शिखा की तरह
म्लान तरूनाई मुख कान्ति कुम्हला गई 
ज़िन्दगी स्याह लग रही निशा की तरह
विरह के यज्ञ में स्वाहा हो रही उमर
वक्त छल रहा नि:शब्द व्यथा की तरह
मगर तुम न आए तो मैं क्या करूं।

दर्द दिल के सभी भावों ने ले लिए
भावों को शब्दों की मोती में पिरो लिए
शब्दों को सुर में ढाला गीत बन गये
मर्म के गीत गा ख़ुद से ख़ुद रो लिए
सांसों के साज़ पर साध अहसासों को
बज्म़ पीर की सजा हम सजल हो लिए
मगर तुम न आए तो मैं क्या करूं।

निष्प्रभ हो गए उद्विग्न दो नयन
मगर तुम न आए तो मैं क्या करूं।

निष्प्रभ--प्रभाहीन
वसंतदूती--कोयल

                         शैल सिंह
सर्वाधिकार सुरक्षित


'' अहसास तुझको भी होता,गर इस तरह जुदाई का ''

 अहसास तुझको भी होता,गर इस तरह जुदाई का       


घटा आँखों में छाई है
अधर मजबूर हँसने को
गहन अंधियारा अन्तर में
किरण मजबूर चमकने को
तेरी तस्वीर निग़ाहों में है
अम्बर यादों का उर में
विच्छिन्न सांसों की सरगम
हृदय मजबूर धड़कने को ,

इक परछाई से चिपटी
टूटे ख़्वाबों को लेकर
सहेजूं जोड़कर किरिचें
माज़ी की यादों से लड़कर
वो ढलती सुरमई शामें
सुहाना मौसम बहारों का
तिरे आँखों में हर लम्हा 
अश्क़ मजबूर छलकने को ,

कुहरे,धुंद,धुआँ को चीर
मुखर परछाईयाँ तेरी
कितने शक्लों में करतीं
विरक़्त तन्हाईयाँ मेरी
कैसे कैसे निभाती किरदार
लिपटा रूह से तुमको
जी रही दर्द को शब्दों में
शब्द मजबूर पिघलने को ,

प्यासी चातकी सी व्यग्र 
बन बादल बरस जाओ
कहीं निर्बाध न बह जाए
नेत्र का काजल चले आओ
किस लिबास में दिखलाऊंँ
उच्छृंखल मन की तस्वीरें
विघ्न तमाम चक्षु शमा को 
पथ मजबूर जलने को ,

आलम बेकरारी का 
कहूं किन लफ़्जों में आख़िर 
तोहफ़ा यादों का ले जाओ 
यादों से निज़ातों की ख़ातिर 
अहसास तुझको भी होता 
ग़र इस तरह जुदाई का 
ख़ामोश ऐतबार मेरा रहता  
हूँ कित मजबूर कहने को। 

विच्छिन्न--काटकर अलग किया हुआ
माज़ी --अतीत ,शमा--रौशनी 
                          शैल सिंह 
सर्वाधिकार सुरक्षित 



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