शनिवार, 20 सितंबर 2014

नक़ाब पर ग़ज़ल

नक़ाब पर ग़ज़ल 


चलती थी सड़कों पे बेनक़ाब
हुस्न  ने  परदा  गिरा  दिया 
जब   याद  ज़माने  ने  मुझे 
उम्र  का  दरजा दिला दिया । 

क़ैद कर लो हिज़ाब  में जरा  
ये शोख़ अदाएं ये मस्त जवानी 
कह - कह कर बुज़ुर्गों  ने  मेरे
ज़िस्म का ज़र्रा-ज़र्रा जला दिया । 

मुड़ -मुड़  के  देखते  थे  लोग 
जिस गली से  कूच करती थी 
मेरी  बेबसी का ऐ  खुदा  तूने 
अंजाम  ये कैसा  सिला दिया । 

इस बेबसी  में बतायें ज़नाब 
मुस्कराएं तो भला हम  कैसे 
कहाँ से आई ये पाग़ल शबाब  
जो हमें परदानशीं बना दिया । 

रुख़ पे कैसा लगा रूवाब ये 
किन अल्फ़ाज़ में कहूँ लोगों 
इस बेकसूर  नूरे हूर  को बस 
तसब्बुर का आईना बना दिया  । 

                                   शैल सिंह 

गुरुवार, 18 सितंबर 2014

कुछ शेर

             कुछ शेर


छोड़कर अपना सामा शहर आपके
छोड़कर जब चली मैं शहर आपका
अहदे-वफ़ा के महकते रस्ते वो लम्हें 
साथ आया याद का कारवां आपका ,

तेरी अता करूँ या परस्तिश ऐ मौला
कभी तो गुजारिश मेरी भी सुन ले
भर दे झोली मेरी भी मता-ए-ऐश से
मुज्ज़तर बहुत हूँ तारीक मेरा हर ले ,

भर दिए वक़्त ने तो हर ज़ख़्म लेकिन 
वक़्त गुजारने में क्या से क्या गुजर गई
क्या मालूम उन्हें शबे-फ़िराक़ की सदा
ख़ामशी ना जाने क्या-क्या निगल गई ।

अता--तारीफ़ , अज़ाब--मुश्क़िल ,
मता-ए-ऐश--सुख चैन की पूंजी
मुज्तर--घायल,दुखी,  तारिक--अँधेरा, 
शबे-फ़िराक़--जुदाई की रात 
                                  शैल सिंह   

बड़े गुमान से उड़ान मेरी,विद्वेषी लोग आंके थे ढहा सके ना शतरंज के बिसात बुलंद से ईरादे  ध्येय ने बदल दिया मुक़द्दर संघर्ष की स्याही से कद अंबर...