शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019

कविता '' प्रीत का दीया जला दो आकर ''

''  प्रीत का दीया जला दो आकर ''


अन्तस के गह्वर मौन सिंधु में
इक बार उतर जो आओ तुम
विरहाकुल के अकथ नाद से
परिज्ञान  तेरा  भी हो  जायेगा ,

कितने  तुम  पर गीत लिखे हैं
कितने  स्वर साधे  हैं तुम  पर
विकल रागिनी  के झंकारों से
उर झंकृत तेरा भी हो जायेगा ,

सांसों  का  हर तार  है  जोड़ा
तेरे स्मृति की वीणा,सितार में
मेरे गीतों की गुंजित  ध्वनि में 
अमर नाम तेरा भी हो जायेगा ,

आकर पुलिन पर सौहार्द का
बहा दो मलयानील सा झोंका
लहरों के नेहल उद्गम से भींग
तर अन्तर तेरा भी हो जायेगा ,

तुम देखे बस श्रृंगार आनन का
देखी न कभी भीतर की सज्जा
प्रीत का दीया जला दो आकर
प्रणय प्रखर तेरा भी हो जायेगा ,

मोह  के  अटूट  धागों  में  बांध
रख  लूँगी  देवतुल्य  मानस  के
निविड़  निकुंज में प्रिय तुझको
मुझमें दरश तेरा भी हो जायेगा ,  

तुम्हीं हो सूत्रधार काव्योत्पत्ति के
हो तुम्हीं  कथानक अभिप्राय के
उतर आओ भावों की ध्रुवनंदा में
तो साक्षात्कार तेरा भी हो जायेगा।

नेहल-- सुन्दर ,आनन --मुखड़ा

सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह 

रविवार, 22 दिसंबर 2019

भोजपुरी में मेरी एक रचना '' एक सैनिक की पत्नी का करुण विलाप ''

भोजपुरी में मेरी एक रचना

एक सैनिक की पत्नी का करुण विलाप

सुनसान लागे भवनवाँ
झनके अँगनवाँ
निसदिन विछोह में
ढरके नयनवां
जल्दी छुट्टी लेके आजा
घरवा सजनवां,

गहि-गहि मारेलीं
सासु रानी तनवाँ
सहलो ना जाये हाय
छोटी ननदो के मेहनवां
लहुरा देवरवा रगरी
हवे बड़ा शैतनवां
हुक़्क़ा नियर बड़बड़ालें  
ससुरु बइठि दुवरवा
जल्दी छुट्टी लेके आजा
घरवा सजनवां,

विरही कोइलिया करे
राग धरि बयनवां
पापी पपीहरा के
सुनि पिहकनवां
ड्योढ़ी अस पिंजरा में
बंद जईसे हईं सुगनवाँ
भीतर-भीतर तड़फड़ाला
हिया के मयनवां
जल्दी छुट्टी लेके आजा
घरवा सजनवां,

भावे ना सिंगार तन
विरावेला गहनवां
देहिया जरावे चन्दा
उतरि के अँगनवाँ
सिमवा पर जिया देई-देई
तजि देबा परनवां
आ चैनवां क नींद सूतिहें
सगरो जहनवां
जल्दी छुट्टी लेके आजा
घरवा सजनवां

नईहरे ना मई-बाप
ना एकहु विरनवां
गांव गोईड़ार छूटल
तोहरे करनवां
सखियां सहेलियाँ भी
गईलीं गवनवाँ
गोदिया में खेलें उनके
सुघर सलोना ललनवां
जल्दी छुट्टी लेके आजा
घरवा सजनवां।


सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह 

यादों के झरोखे से

यादों के झरोखे से 


आया मौसम सर्दी का
लगे खुशग़वार हर लमहा
खनक हँसी की घुली फिज़ा
स्वेद,शिशिर से डर कर सहमा,

नए वर्ष की आहट पे
नए-नए हुए सपने पंकिल
स्वागत में तल्लीन नवागत के
घर-घर जली खुशी की कंदील,

बहे कभी पछुवा,पुरवा
कभी रवि पे मेघ दे पहरा
बिलम है जाती धूप कभी तो
घटा बरसे कभी कुन्तल लहरा,

बहें हुलसती हवाएं जब
आई याद कन्टोप औ गांती
अनुपम उद्यान में प्रसून खिले
पर लगे न सरसों पुष्प की भाँति ,

तपिश गई सूरज की
गुनगुनी धूप सेंके वदन
लद गई तन पे गरम रजाई
रूत लगती नई नवोढ़ी दुलहन,

कुरुई,मऊनी आई याद
दाना,चूरा,ढूंढा,नैका भात
रेवड़ा,गट्टा,नई भेली,संक्रांति
कहाँ रही वैसी त्यौहारों में बात,

सुखद सुनहरी धूप गई
गई सुगबुगाहट कौड़े की
अल्हड़ सी अबोध अठखेली
गई चहल-पहल कोल्हउड़े की,

खोल अतीत का पन्ना
विह्वल करें शरारती यादें
नादां बचपन रंगी वो दुनिया
बीते लम्हों की आकृतियां झाँकें,

वक़्त पखेरू सौदाई
छीन अमीरी बचपन की
दे-दे लालच मूढ़ जवानी का
धन लूटा अमोल लड़कपन की,

कुड़कुड़ाती ठण्ड बहुत
कैसे भूलें आजी की बोरसी
धुएं सम भाप निकाले मुँह से
मना रही मृदु यादों की खोरसी ।

खोरसी--सूतक
सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह




शनिवार, 21 दिसंबर 2019

'' जिंदगी की रवायत है जीना ''

नाकाम मोहब्बत वालों पर मेरी लेखनी से ,,,,,

'' जिंदगी की रवायत है जीना ''


कभी यामा हुई बेदर्द
कभी दग़ाबाज़ हुई तन्हाई
जिस ऐतबार पर था ग़ुरूर
की उसी ने बड़ी बेवफ़ाई ,

जिसकी जादू भरी मुस्कान 
बनी धड़कन निश्छल दिल की
वही मन की सूखी जमीं पर
भूला,गुंचे खिला दहकन की ,

एहसासों से क्या शिक़वा
भला दिल का भी कैसा कुसूर
जिस्त हुई बर्बाद मोहब्बत में
था इश्क़ सुरा का ऐसा सुरूर ,

जैसे शैवाल पर फिसले पांव
फिसलना दिल का लाजिमी था
गजब कशिश थी उसके लहज़े में
आदमी दिलचस्प हाकिमी था,

जुबां पर रख मिश्री की डली
विश्वासपात्र बन की गुफ़्तगू उसने
तहज़ीब से मेरे मासूम दिल में
उतरा था हलक़ तक डूब उसमें ,

याद आती पहली मुलाक़ात 
कभी गुजरा जमाना लगता है
ज़ख़्म का हर इक दाग पुराना
कभी नायाब सुहाना लगता है ,

कभी भटकूं उन्हीं ख़यालों में
बदली तासीर नहीं लगती
कम्बख्त बंद कोठरी चोखी लगे 
कभी पावन ख़ामोशी लगती ,

किस क़दर है टूटा दिल
है चोटिल किस क़दर वज़ूद
हद से ज्यादा मोहब्बत में
बहुत दूर जाने के बावज़ूद ,

यकीं ने की बेहूदी ख़िदमत
तोड़ मासूम सा नादां दिल
जिंदगी की रवायत है जीना
वरना तो दर्द में जीना मुश्किल ,

कभी दर्द ही दर्द को सहला
जवां हो ले अंगड़ाई
अरे दर्द तेरा हो बेड़ा ग़र्क
पी गरल भी निकला हरजाई।

हाकिमी--हुकूमत करने वाला 

सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह 

सोमवार, 16 दिसंबर 2019

प्रेम पर कविता '' दृग का अमृत कलश छलका लूंगी मैं ''

 प्रेम पर कविता  

'' दृग का अमृत कलश छलका लूंगी मैं ''



उर के उद्गार अगर सौंप दो तुम मुझे
अपने कंठों को सुरों से सजा लूंगी मैं
ढाल कर  गीतों में  सुमधुर तान  भर
अपने अधरों को बांसुरी बना लूंगी मैं,
उर के उद्गार अगर......................।

तरंगों की तरह  हृदय की तलहटी में
प्रमाद में  तन्मय नीरव  तरल बिंदु में
तुम्हारे कर्णों में घोल मोहिनी रागिनी,
उतर जाऊँगी  अंत के अतल  सिंधु में
स्वप्न की अप्रकट अभिव्यंजना मुख़र
सुहाने लय में प्रखर कर सुना लूंगी मैं,
उर के उद्गार अगर......................।

हृदय दहलीज़ ग़र खोलकर तुम जरा
निरख  नेपथ्य से  प्रेम पूरित  नयन से
नेह की उष्मा से करो अभिनन्दन जो
लूंगी भर अंक में पुलकित चितवन से,
उर के उद्वेलनों की रच रंगोली अतुल   
दृग का अमृत कलश छलका लूंगी मैं,
उर के उद्गार अगर.......................।

चित्र मेरा ग़र पलकों के श्यामपट्ट पर
उकेर लो तुम कल्पनाओं के अर्श पर
देह गंध से सुवासित हर बंध खोलकर
बहाकर उत्स आह्लादों का तेरे दर्द पर
अपनी चेतना,संवेदना कर अर्पित तुझे
हृदय के क्रंदन को कुंदन बना लूंगी मैं ,
उर के उद्गार अगर.......................।

प्रमाद--नशा , नीरव--शब्द रहित,
अंत--भीतरी,  प्रखर--तेज,तीक्ष्ण

सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह

शनिवार, 14 दिसंबर 2019

नींद पर कविता '' बोझल पलकों को कर-कर ''

नींद पर कविता

शब शबाब पर होती अपने
नींद क्यूँ रहती ऐसे बेखबर ,

आती नहीं आँखों में पगली 
बोझल पलकों को कर-कर
बावरी सी भटकती फिरती
जाने कहाँ-कहाँ इधर-उधर ,

बगल वाले का ख़र्राटा जब
चुग़ली करता इन कर्णों में
तब इक भभका सा उठता 
जलन होती है मेरे वक्षों में ,

मन्त्रोच्चार करुं मन ही मन
या जपूं राम नाम की माला
निगोड़ी करे बेहयाई चाहे
जप,पड़ जाये जीभ में छाला ,

मेरी दुर्दशा पर तकिया अंगरे
अकड़े करवट दुर्गति पे अपने
तड़पाती रात की तन्हाई हाय
तल्ख़ हो कुढ़ते भोर के सपने ,

लिहाफ़ ओढ़ूँ या तानूं,खींचूं
कानों के छज्जे पे कर कब्ज़ा
भनभनाना मच्छरों का जारी
खूँ चूसते रहते हैं कूज़ा-कूज़ा ,

उपक्रम नींद का करती जब
टपक पड़ती भोर की लाली
विहंगों का चहकना गूंज उठे 
बजा देती घण्टी काम वाली ,

फिर जुत जाती हल बैलों सी
रोज़मर्रा के तमाम कामों में
यही होती रोज की दिनचर्या
थक जाती इन समस्याओं में।

शब्--रात, शबाब--जवानी
कूज़ा-कूज़ा--कुल्हड़ या सकोरा भर-भर 

सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह  

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2019

कविता '' तृषित अंजलि का अमृत जल पिला के ''

 '' तृषित अंजलि का अमृत जल पिला के ''


दूर मंजिल बहुत,हूँ तन्हा सफ़र में
        मगर  बांटने  हर-पल  तन्हाईयाँ
              साथ चलता रहा चाँद मेरे सफ़र में।

कभी मुख पे डाले घटाओं के घूँघट 
         कभी बादलों के झरोखों से झांके
                कभी सुख की लाली का आलम लिए
                     दर्द की मांग भर जाये चुपके से आके।

कभी वैरागि मन की पगडंडियों पर
       तृषित अंजलि का अमृत जल पिला के 
              कभी फायदा भोलेपन का उठाता
                  लुका-छिपी कर छलता रहा आते-जाते।

कभी सोई अनुभूतियों को जगाता
     कभी थम सा जाता पराजय पर आके
           कभी झकझोर कर गुदगुदाता हँसाता
                   इक निर्धूम दीया रोशनी की जला के। 

सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह 

बुधवार, 4 दिसंबर 2019

चुनौतियों से लड़कर जीना अब तो मैंने स्वीकार लिया

चुनौतियों से लड़कर जीना अब तो मैंने स्वीकार लिया 



मुक़द्दर के शहर में भटक रहा है,मेरे जीवन का लक्ष्य
मित्र कहाँ से कहाँ पहुँच गए,थे जो कभी मेरे समकक्ष,

हैरां हूँ खुदा के फैसले पे,था जो सबसे श्रेष्ठ सबमें दक्ष
उसके साथ अनीति क्यूं ऐसी पूछ रही प्रश्न बनके यक्ष,

रही ना ताक़त संघर्षों की मन का विश्वास भी हार गई
अखर रहा जीवन भर की ही सारी मेहनत बेकार गई,

उम्र के इस ढलान पे आ चाहतों ने भी दम तोड़ दिया
चुनौतियों से लड़कर जीना अब तो मैंने स्वीकार लिया  ,

असफ़लता से हार न मान दुश्मन के चाल से हार गई
साथ मेरे ये बार-बार हुआ  जालसाजी का शिकार हुई। 

सर्वाधिकार सुरक्षित 
शैल सिंह 

" कब किसके संग कहाँ किया भेदभाव "

कविता " मोदी जी पर "

एक के खिलाफ सारे लामबंद हैं
जिसके साथ बस आवाम चंद हैं
जिसने महका दिया नाम देश का 
विश्व के फलक पर फूल की तरह
वो इंसान मोदी ससम्मान पसंद हैं ।
                          
सरसठ वर्षों की चरमराई व्यवस्था
है पटरी पर भी लाना वक्त तो जनाब चाहिए ।
जिसका घर परिवार पूरा देश दोस्तों
उसे देशवासियों का सहयोग बेहिसाब चाहिए ।
अभी तो हुए हैं जुम्मा-जुम्मा चार दिन
सारे विरोधियों का जुमला बस हिसाब चाहिए ।
टमाटर,प्याज,दाल तक हैं सीमित जो
वो बताएं उन्हे कैसे भारत का ख़िताब चाहिए ।
स्वप्न कमरतोड़ मशक्कत का जिसके
कि हर क्षेत्र में भारत होना बस आबाद चाहिए ।
बन्द कर दीं लूटने खाने की खिड़कियाँ
बताओ देेश,लुटेरों को देना क्या जवाब चाहिए ।
कब किसके संग कहाँ किया भेदभाव
जिसे बस सबका साथ सबका विकास चाहिए ।
जाति,द्वेष,धर्म में बांट मत देश तोड़िए
प्यारा हिन्दुस्तान आपको भी तो नायाब चाहिए ।
बढ़ती हैसियत भी जरा देखेें हिन्द की
हिन्दुस्तान को मोदी सा कद्दावर अंदाज चाहिए ।
                                       शैल सिंह

मंगलवार, 3 दिसंबर 2019

कविता '' हो गए तुम अपरिचित से प्रीति की लत लगा ''

'' हो गए तुम अपरिचित से प्रीति की लत लगा ''


हर रात स्वप्नों की गठरी मेरी पलकों पे रख,
सुबह रश्मियों का उपहार दे जगाते हो क्यूं
शहद मिश्रित परिन्दों के कलरव निनाद सा
गुनगुना,मुझे सुबोध परों से सहलाते हो क्यूँ ,

प्यास अधरों की जगा सरगम श्वसनों में भर  
छेड़ उन्मुक्त सिहरनें गुद-गुदा जाते हो क्यूँ
हौले स्पर्श से मन की कुमुदनी का शतदल
कर मधु सा मौन संवाद,खिला जाते हो क्यूँ ,

तेरी दक्ष दग़ाबाज़ी में जली हूँ मैं परवाने सी  
करूँ कोशिशें बहुत तुझे भूल जाने की रोज
मगर दृग में स्वप्नों का जलता दीया ढीठ सा
रख जाता लौ आश्वासनों का मुहाने पर रोज ,

माना कि होतीं हैं नब्ज़ें स्पन्दित तुम्हारे लिए
पर अब मौसम भी धैर्य के मानो ठूंठ हो गए
मेरी आवाज़ें भी लौट आतीं क्षुब्ध दर से तेरी        
हर आहटें,दस्तक़ें भी अब मानो झूठ हो गए ,

कितनी रातें काटीं पट झरोखों का थामे हुए 
नयन निरखते रहे राह जहाँ तक सामर्थ्य थी  
हो गए तुम अपरिचित से प्रीति की लत लगा
मैं स्वप्नों का की श्रृंगार जहाँ तक सामर्थ्य थी ,

पीर की ध्वनि को दी अँकवार जब शब्दों ने
भाव आकुल हो उमड़े भींगीं कोरें नयन की
भर अंक में चूम ली लिखी गीतों की श्रृंखला  
उर के गीले तट फूट गईं नई भोरें गगन की।

सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह 

बुधवार, 27 नवंबर 2019

ग़ज़ल '' शमन कर दे तपन दिल की वो सावन नहीं आता ''

 '' शमन कर दे तपन दिल की वो सावन नहीं आता ''



दीप आशाओं के पलकों पर जो हमने जलाए हैं
जिनकी राह में दरीचों के ना कभी पर्दे गिराए हैं
हवा की ज़द में जलती रहती निर्धूम लौ नैनों की
आईना पूछता तस्वीर किसकी दीद में बसाए हैं ,

रही ग़फ़लत में कि वह रूह से हमको भुलाए हैैं
पर दिल के तहख़ाने में मौज़ूद वो डेरा जमाए हैं 
उम्र भर जिसकी सुध में कसकी रैन सुलगी भोर  
वो दिल के दरों-दीवारों पे अक्सर मेला लगाए हैं ,

क़बीले के सभी सोते हम रातों की नींद गंवाए हैं
वो गुजरेंगे गली-कूचे से ख़्वाब बेनज़ीर सजाए हैं
वो ढलती सांझ के इन्तज़ार में ग़र बेज़ार रहते हैं
हम भी चंद्रिका की आस में दिन बेढब बिताए हैं ,

जज़्बातों औ हालातों को समझाकर यह बताये हैं
अज़ीज हो तुम्हीं मेरे दिल के यही यक़ीं दिलाए हैं
जाने क्या करिश्मा था तुम्हारी काफ़िर निगाहों में
वफ़ा की चाहत में तेरी यादों में ख़ुद को डुबाए हैं ,

कहा करते थे तुम हरदम मेरी नाज़नीन अदाएं हैं
गिरफ़्तार-ए-मोहब्बत का वही अन्दाज़ दिखाए हैं
झोंका हवा का बन लुटे तुम्हीं शाम-ओ-सहर मेरा
हम वीरान आँखों में इंतज़ार का फ़ानूस सजाए हैं ,

हवाएं बहतीं मस्तानी छातीं जब घनघोर घटाएं हैं
कोकिलें तान सुनाती बाग़ों में जब आती बहारें हैं
शमन कर दे तपन दिल की वो सावन नहीं आता
फ़िज़ाओं कहो हरकारा बन पथ पे नैन बिछाए हैं ,

हरकारा-डाकिया

सर्वाधिकार सुरक्षित
शैलसिंघ 


शनिवार, 23 नवंबर 2019

ग़ज़ल '' मोहब्बत एक हसीं है ख़ाब ''



वो मेरे दिल की धड़कन हैं
मैं उनके दिलो जां की धड़कन हूँ
अगर आँखों में नहीं आतीं मेरे चैन की नींदें
तो उनके भी ख़्यालों की मैं मीठी-मीठी तड़पन हूँ।  

वो मेरे हर जिक़्रों में हरदम
मैं उनके हर जज़्बातों में हरदम
क़रन वो भोर की मैं उनकी शाम शीतल सी
मैं उनकी दीवानगी में तो वो मेरे ख़्वाबों में हरदम।

जब से दीदार हुआ उनका
हर वक्त ऑंखें बेक़रार रहती हैं
यकीं इतना मुझे ऐसे ही वो भी बेज़ार रहते हैं 
वो मेरे लिए हैं खास मेरी भी उन्हें परवाह रहती है।

दिल की बेबसी का आलम
दिल समझता नैन हैरान रहते हैं
अहसासों को समझने को बिछड़ना जरुरी है  
मिठास दर्दों में भी होती भले हम परेशान रहते हैं।

मोहब्बत एक हसीं है ख़ाब
किस्मत से ख़फा ग़र ख़ुदा न हो  
ज़रा सी ज़िन्दगी में बेहिसाब मेला मुरादों का
हर लम्हा हो ख़ियाबां सा हसीं मुहब्बत जुदा न हो।

क़रन--किरण    ख़ियाबां--पुष्पवाटिका
सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह 

बुधवार, 20 नवंबर 2019

ग़ज़ल '' पी आँसुओं का सैलाब समन्दर हूँ बन गई ''

'' पी आँसुओं का सैलाब समन्दर हूँ बन गई ''


क्यों मेरे ख़्यालों में आते हो तुम बार-बार
दिल के साज़ों का छेड़ जाते हो तार-तार
मेरी वीरानियाँ भी महकतीं सदा फूल सी
क्यों करते तन्हाईयों  से यादों का व्यापार ,

एक दर्द दहकता हुआ छोड़ कर सीने में
अक़्सर आजमाते हो टूट बिखर जाने को
हो गई दिल्लगी दिल के कैसे सौदाग़र से
कि चाहतें हुई मज़बूर तुम्हें भूल जाने को ,

किन कुसूरों की सजा में थी बेवफाई तेरी
वफ़ा की  दरिया पहल की तूफां लाने की
क्या कसर बाकी रह गयी थी मेरे प्यार में
असाध्य मर्ज़ मिली तुमसे दिल लगाने की ,

तेरे दिए दर्दों की ही कैफ़ियत है ये ग़ज़ल
रियाज़ रोज करूं दर्द छुपा गुनगुनाने की
किन कण्ठों से गाऊँ मैं जज़्बात शौक से
भींगा लफ़्ज़ भी उदास होता शायराने की ,

न नफ़रत मुक़म्मल न याद मिटा पाना ही   
बग़ैर तेरे जीने की करके नकाम कोशिशें
पी आँसुओं का सैलाब समन्दर हूँ बन गई
बेलग़ाम कश्ती में खे रही तमाम ख़्वाहिशें ,

बात करना ना आया तुझसे तेरे अंदाज में
रहता टूटे सपनों के सच होने का इंतजार
जो आँखें की हैं नज़रअंदाज आज बेतरह   
वही कभी ढूँढ़ेंगी नज़रें मुझे होके बेक़रार ,

दर्द छलके आँख से शोर करें खामोशियाँ
सबने महफ़िलों में देखा है बस हँसते हुए
चुपके रोता दिल नैनों में तड़प दीदार की
किसीने देखा न क्यूँ तन्हाई में तड़पते हुए , 

कैफियत--विवरण,हाल
सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह

मंगलवार, 12 नवंबर 2019

एक प्यारी सी ग़ज़ल

                 " एक प्यारी सी ग़ज़ल "

उसकी यादों को जेवर गढ़ा मैंने तन पर सजा लिया
इक वो कि मेरी यादों में इक नया रिश्ता बना लिया ,

उसके इक लफ़्ज़ के भरोसे पर कायम हूँ आज तक
इक वो है बिना मेरे ही इक नवीन दुनिया बसा लिया ,

शुभ साअत के चाह में रची न कभी मेंहदी हथेली पे 
इक वो है बिना बेज़ार हुए सेहरा सर पर सजा लिया ,

उम्र भर छलती रही ख़ुद को उठाये आसरे का भार 
इक वो है बड़ी ख़ामशी से दामन मुझसे छुड़ा लिया ,

मेरी ही ध्वनि से बजते रहे कानों के कोटर बेख़याल  
इक वो है राहे-जुनूं में पागल कर आईना चढ़ा लिया ,

ख़ुद के आंच से पिघलती रही देख उफ़क़ का चाँद
इक वो है मेरी पुरनम आँखों में मल कर नहा लिया ,

हम मिज़्गाँ पर सजा रखे वरक़ इश्क़ के लमहों का    
इक वो है जहां सुख का मुझसे अलहदा जमा लिया ,

तमन्नाओं को ख़ाक कर मैंने द्वार पे शम्मां जलाई हैैं
इक वो है ज़नाज़ा हसरतों का देख कंधा लगा लिया , 
 
कोटर --छिद्र 
मिज़्गाँ--पलक

सर्वाधिकार सुरक्षित 
शैल सिंह 

सोमवार, 4 नवंबर 2019

कविता '' गीली-गीली फुहारों से भींगो यादों की ''

'' गीली-गीली फुहारों से भींगो यादों की  ''



उमड़ कर बही वेदना जो अश्रु धार में 
बह गई उनके यादों की धूप-छांव भी
वहम ही सही तो भी कुछ कम ना था
हृदय में था बसा भले पीर का गाँव ही ,

काश होती व्यथा की जुबान भी अगर
मुस्कराती नहीं मैं ग़म छुपा इस तरह 
न भावना का उमड़ता अथाह समंदर
न ग्रन्थ लिखती ज़िन्दगी का इस तरह ,

एकाकीपन से मुझे तो अटूट प्यार था 
क्यूँ रोज आता ख़्यालों में दबे पांव वो 
सुलगाता विरह की अगन से अंतहीन   
छितर जाता है हर्फ़ सा काग़ज़ों पे जो ,

वो आकर मेरी कल्पना कुञ्ज की गली 
पुराने मौसम का पुरवा बहा कर गया
फिर से अनवरत् ख़्वाबों का कांच के 
जत्था पलकों पर मेरी बिछा कर गया ,

भरकर उन्माद पोर-पोर में वसन्त सा 
पी अधर का पराग उर लगा कर गया
गीली-गीली फुहारों से भींगो यादों की  
आलम तन्हाई का यूँ महका कर गया ,

नई कोंपलें खिला यादों के दरख़्त पर 
झट उदासी के पतझड़ हरा कर गया
अतीत की डायरी के गर्द पोंछ नेह से  
तकलीफ़ों की सलवटें मिटा कर गया ,

सर्वाधिकार सुरक्षित
                        शैल सिंह 

सोमवार, 28 अक्तूबर 2019

ग़ज़ल '' मिलना,बिछड़ना उल्फ़त का दस्तूर है ''

मिलना,बिछड़ना उल्फ़त का दस्तूर है 


आज की रात आलिंगन लगा लें सनम
कल ना जाने हसीन ये समां रहे ना रहे,

ख़ुशनुमा सी जो ये आज की रात है
क्षण भर की ही और ये मुलाकात है
जुदाई,मिलन चाहत में,बे-आसरा हैं
वफ़ा,बेवफ़ा की  सहूलियत कहाँ है
इश्क़ वालों की राहें दहर में जुदा हैं
हँस इंकार करो ना सुहानी फ़िज़ा है,

आज की रात  चाँदनी में नहा  लें सनम
कल ना जाने ये वक़्त मेहरबां रहे ना रहे ,

क्या पता था दुश्मन  जमाना बनेगा
प्यार हमारा तुम्हारा फसाना बनेगा
इश्क़ में होंगी खुशी संग मजबूरियां
सिमटी घड़ियाँ तक़ाजों की बेड़ियाँ
चाँद का कारवां तुरत गुजर जायेगा
कभी ठहरा कहाँ वक़्त छल जायेगा,

आज की रात मय अधर का पी लें सनम
कल ना जाने अधर ये मकरंंद रहे ना रहे,

यादों से सजाना सुहागरात यादों की
होंगी तहरीरों  से बातें  जज़बात की
कल्पनाओं में तस्वीर उभरती रहेगी
जुदाई तन्हाई में भी अखरती  रहेगी
शम्मा जलती  रहेगी अमर प्यार की
याद आएगी स्याह रात इन्तज़ार की,

आज की रात पर्दा हया का उठा लें सनम
कल ना जाने रुख़्सार की लाली रहे ना रहे ,

कितनी लाचार हैं आरजुवें दिलों की   
जग की जंजीरों में फैसले ज़िंदगी के
कल तक बेफ़िक्र थे प्रीत के छाँव में
प्यार के गांव तक हौसले ज़िन्दगी के
क्या पता था बेबसी में जलना पड़ेगा
ख़ाब की रहगुजर हाथ मलना पड़ेगा,

आज की रात आलिंगन में भर लें सनम
कल ना जाने ये रात गुलज़ार रहे ना रहे।

रेशमी सी रातें खिला चाँद आसमा का 
गवाह है अनूठे चाहतों के एहसास का 
बिछड़ने से पहले हसीं पल ये प्यार का 
धरोहर सा सहेज लें ये लम्हा बहार का 
मिलना,बिछड़ना उल्फ़त का दस्तूर है
इक दूजे के दीवाने फिर भी मजबूर हैं,

आज की रात हसीं अंजुमन सजा लें सनम
कल ना जाने नज़ाकत ये तुममें रहे ना रहे।

सर्वाधिकार सुरक्षित
                     शैल सिंह




सोमवार, 7 अक्तूबर 2019

छोड़ दो तसव्वुर में मुझको सताना

छोड़ दो तसव्वुर में मुझको सताना 

तबस्सुम के जेवरात ग़म को पेन्हाकर
अश्क़ से याद के वृक्ष ख़िज़ां में हरा कर
डाली खिलखिलाने की आदत तुम्हारे लिए।

सील अधर तमन्नाओं को दफ़न कर
ख़्वाब दिल के कफ़स में जतन कर 
डाली दिल बहलाने की आदत तुम्हारे लिए। 

भर दृग की दरिया अश्क़ों का समंदर  
सितम सहे इश्क़ में चले जितने ख़ंजर
डाली जख़्म भुलाने की आदत तुम्हारे लिए। 

जब भी घुली मन तेरे लिए कड़वाहट 
भींगो दीं हसीं लम्हों के नूर की तरावट
डाली मर्म समझाने की आदत तुम्हारे लिए।

दिल की सल्तनत ही,की नाम जिनके 
वो ही दे गये मिल्यक़ित तमाम ग़म के
डाली दर्द सहलाने की आदत तुम्हारे लिए। 

क़सक हिज्र के रात की तुम न जाने
ले गए मीठी नींद भी प्यार के बहाने
डाली रात महकाने की आदत तुम्हारे लिए।

ना कोई अर्जे तमन्ना ना पैग़ामे-अमल
सीखा तरन्नुम में दर्द पिराने का शग़ल
डाली बज़्म सजाने की आदत तुम्हारे लिए। 

अब छोड़ो तसव्वुर में मुझको सताना
बैठ पलकों पर छोड़ो जलवे दिखाना 
डाली दास्ताँ छुपाने की आदत तुम्हारे लिए।

क़फ़स--पिंजरा
सर्वाधिकार सुरक्षित 
                      शैल सिंह





शब्दों के अभाव पर कविता

शब्दों के अभाव पर कविता

शब्दों बिन बेजुबां वाक्य हैं
रचना रखूं किस शिलान्यास पर 
अस्मर्थ,बेजान पंक्तिबद्ध कतारें
मौन शब्दों के उपहास पर ,

क्षत-विक्षत हो शब्द शांत हैं  
भाव दिग्भ्रमित वनवास पर 
अवचेतन की प्रसव वेदना  
सही न जाये,कलम उपवास पर ,

गीतों के बोल ठूंठ पड़े 
अधरों के कैनवास पर
शीतल से अहसास बन्दी जैसे 
कल्पनाओं के आवास पर ,

अक्षर-अक्षर दुलराया 
अभिव्यक्ति के विभास पर
काव्य के अवयव गण सभी 
रस,छंद,अलंकार हैं अवकाश पर ,

सुप्त पड़ी लेखनी की वाणी 
मसि,कागज गये सन्यास पर
घोलूं किसमें कल्पना का लालित्य  
टूटन,मिलन,वियोग के परिहास पर ,

करूँ प्राण-प्रतिष्ठा भावदशा की 
किन शब्दों,बिम्बों के मधुमास पर 
शब्द हो गए विलुप्त या विस्थापित 
या गये शब्द विधान के अभ्यास पर ,

कैसे गूंथूं मन का अवसाद 
शब्दाभाव में किस विश्वाश पर
किन शब्द कलेवरों में बेसुध पीर 
रचूं जग के करते हुए अट्टहास पर ,

भाव नदी का सोता सूखा 
कहाँ निष्ठुर हर्फ़ों को आभास पर
देख नयनों में भी जल प्लावन 
मिला निर्मम शब्दों से बस ह्रास पर ,

बिखरते,दरकते,रूठे रिश्तों को
कहाँ करूं वर्णित किस आस पर
कैसे अकथ विरह,वेदना,अंतर्दाह 
रखूं श्रीहीन शब्दों के विन्यास पर ,

कहाँ श्रृंगार का माधुर्य बिखेरूं 
शब्दों के किन अनंत आकाश पर 
कैसे जीवन का वृतान्त लिखूं 
निस्तब्ध शब्दों से मिले हताश पर ,

कर में अधीर,रचना प्रवित्त लेखनी  
शब्दों को रही खराद,तराश पर
शब्दों की चोरी में हैं संलिप्त लुटेरे
ख़त्म होने नहीं देते मेरी तलाश पर ,

पुचला कर आलिंगन भर सहलाया
पर फटके ना तरस खा शब्द पास पर 
शब्दों बिन कितना निरूपाय सृजन 
लगता प्रार्थनाएँ,मिन्नतें गईं कैलाश पर।

गण--टोली,गिरोह,        विभास--चमक,दीप्त
ह्रास--क्षमता,अभाव     विन्यास--सजाना,संवारना
शब्द विधान--निर्माण,रचना

                            सर्वाधिकार सुरक्षित 
                                                       शैल सिंह 


गुरुवार, 26 सितंबर 2019

" निराकार ईश्वर पर कविता "

" मेरे सर्वव्यापी साईं,कहाँ-कहाँ ढूंढी हर घड़ी मैं "


घनघोर  आँधियों से  लड़ता  रहा दीया
सारी रात तेरी याद में जलता रहा पिया,

चैन दिन नहीं नींद आती नहीं है रात
रूतों ने ख़ूब ठगा है दे दे के झूठी आस
भरा आँखों में समन्दर बुझती नहीं है प्यास
प्रभु दरश को तेरे  क्या-क्या लगाती रही कयास,

प्राणों की  दे दे आहुति  घुलता रहा दीया
सारी रात तेरी याद में पिघलता रहा पिया
घनघोर  आँधियों  से  लड़ता  रहा   दीया
सारी रात  तेरी याद में सुलगता रहा पिया ।

आकाश में पाताल में,गिरि,कन्दरा,गुफ़ा में
पर्वत,शिखर में हेरा रे कण-कण चहुँदिशा में
उपत्यका में ढूंढा प्रभु दिग्-दिगन्त मधु निशा में
किस गह्वर में है समाधिस्थ,बता दे किस विभा में,

निर्वस्त्र  बारिशों  में  भींगता  रहा  दीया
सारी रात तेरी याद  में गलता रहा पिया
घनघोर  आँधियों से  लड़ता  रहा  दीया 
सारी रात तेरी याद में तड़पता रहा पिया ।

वेदों में तुझको ढूंढा,गीता,बाइबिल,कुरान में
प्रतिध्वनि में घण्टियों के,ढूंढा आरती,अजान में
गुलों से जंगलों से पूछा प्रभु मेरे हैं किस जहान में
विलख गंगा तट पे ढूंढा विक्षिप्त उर्मियों की तान में,

चाँद-तारों के संग-संग  चलता रहा दीया
सारी रात  तेरी याद में  ढलता रहा पिया 
घनघोर  आँधियों  से  लड़ता  रहा  दीया
सारी रात तेरी याद में कलपता रहा पिया ।

नब्ज़ धर सके ना,कोई वैद्य और हक़ीम 
जाने ये मर्ज़ कैसा,करे कोई काम ना तावीज़ 
आत्मा के देवधाम में,वक्ष के देवालय पे काबिज़ ,
धुनि रमाते बैठे उर की तलहटी में प्रभु मेरे अज़ीज़,

कैसे  कैसे  द्वन्द्वों से  झूझता  रहा दीया
सारी रात तेरी याद  में ऊंघता रहा पिया
घनघोर  आँधियों  से  लड़ता  रहा  दीया
सारी रात तेरी याद में मचलता रहा पिया ।

श्वासों की कड़ी में,धड़कनों की हर लड़ी में
मेरे सर्वव्यापी साईं,कहाँ-कहाँ ढूंढी हर घड़ी मैं 
व्याप्त लोम-लोम में,बसे हृदय निलय में,अँतड़ी में 
देखी मन का चक्षु खोल स्वामी,रह गई ठगी खड़ी मैं,

खुद के लौ की आँच में सिंकता रहा दीया
सारी रात  तेरी  याद  में तपता  रहा पिया
घनघोर  आँधियों   से   लड़ता  रहा  दीया
सारी रात तेरी याद में सिसकता रहा पिया ।

उर्मियों--तरंग,लहर    अज़ीज़--प्रिय   काबिज़--कब्जा,

               सर्वाधिकार सुरक्षित
                      शैल सिंह

शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

" हर आहट लगे जैसे तुम गए "

" दास्तां कली की जुबां "

 हर आहट लगे जैसे तुम गए


तन-मन सजाए संवारे हुए
करके सिंगार आई तुम्हारे लिए
यौवन के मय से छलकती हुई 
खोली कलियों के घूँघट तुम्हारे लिए ।

एक भौंरा गली से गुजरकर मेरे
रूप की माधुरी ही चुरा ले गया
चूस मकरंद वहशी गुलों के सभी
सुर्ख़ अधरों की लाली उड़ा ले गया ।

हर बटोरी से तेरा पता पूछती
हार तेरे लिए पुष्प के गूंथती
दृग को प्रतिपल प्रतिक्षा रही देवता
दौड़कर द्वार पर हर घड़ी देखती ।

रो रही साधना हँस रही बेबसी
ज़िस्म मुर्दा लिए फिर रही बाग़ में
तारिकाएं विहंसती रहीं हाल पर
मनचली कामिनी मिल ख़ाक़ में ।

दर्द घुल-घुल बहे अश्रु सैलाब में
मन का हिरना भटकता रहा चाह में
वक्त कंजूस है प्यास बुझती नहीं
सब्र शर्मसार होती रही राह में ।

ईल्म होता बहारों के यदि ज़ुल्म का
बंद कोंपलों की सांकल नहीं खोलती
तान पत्तों की धानी चंदोवे सी छतरी
झूमकर डाल पर बाग़ में डालती ।

मस्त मौला हवा का बेशर्म झोंका
ख़ुश्बू सारी चमन की बहा ले गया
हर आहट लगे जैसे तुम आ गए
वो आशिक़ आवारा दगा दे गया ।

भान होता घटाओं की शोख़ियों का
इठलाती नहीं शाख़ पर इस क़दर
दुष्ट बादल उमड़कर बरसता रहा
तुम आए लगा स्वाती की बूँद बनकर ।

महरूम हुई कोकिला कंठ से
नर्तकी कुञ्ज की मोरनी रूठी हमसे
हिक़ारत भरी हर नज़र देखती
बादशाहत गई जूझती हर क़हर से ।

सादगी पे नियति चोट करती रही
खूबसूरत बदा,वाटिका बिक गयी
भरी बाज़ार में इक नीलामी हुई
अरमानों की बोली लगा दी गयी । 

सर्वाधिकार सुरक्षित
                    शैल सिंह

सोमवार, 16 सितंबर 2019

" तेरा अस्तित्व क्या शहर गाँवों के बिना "

तेरा अस्तित्व क्या शहर गाँवों के बिना


मेरे गाँव की सोंधी  खुश्बू ले आना हवा
शहर में खरीदे से भी कहीं मिलती नहीं
ईमारतें तो गगनचुम्बी शहर में बहुत सी
धूप की परछाईं तक कहीं दिखती नहीं ।

बीत गई इक सदी देह को धूप सेंके हुए 
भींगी लटें तक घुटे कक्ष में सूखती नहीं
खुले आँगन के लुत्फ़ को तरसता शहर
लगे व्योम से चाँदनी कभी उतरती नहीं ।

शहरी सड़कों से भली गंवईं पगडंडियाँ
आबोहवा गाँव सी यहाँ की लगती नहीं
लगे दिनकर को आसमां निगल है गया
किरणें मोहिनी सुबह की बिखरती नहीं ।

भाँति-भाँति के शज़र यहाँ तनकर खड़े
किसी टहनी पर परिन्दों की बस्ती नहीं
क़िस्म-क़िस्म के गुल यहाँ खिलते बहुत
फज़ां में महक़ रातरानी सी तिरती नहीं ।

लाना जमघट पीपल के घनेरे छांवों का
वैसी मदमस्त पवन शहर में बहती नहीं
वो पनघट की मस्ती झूले  नीम डाल के
बुज़ुर्गों के चौपाल की हँसी  गूँजती नहीं ।

ना नैसर्गिक सौन्दर्य ना समरसता कहीं 
स्वर्ग जैसा है,वास्तविकता दिखती नहीं
तेरा अस्तित्व क्या  शहर गाँवों के बिना
बसती नीरसता आत्मीयता दिखती नहीं ।

शुद्ध जलवायु प्रकृति का  आकर्षण भी
लाना,शहरी पर्यावरण में जो रहती नहीं
दम घुटता शहर में लाना अमन संग भी
बड़ी खुशियाँ भी उत्सव सी लगती नही ।

सर्वाधिकार सुरक्षित
                      शैल सिंह

शनिवार, 14 सितंबर 2019

कविता " कब तक सूरत संवारती रहूँ आइने में

कब तक सूरत संवारती रहूँ आइने में 


दुधिया  आँचल  फैलाए जवां  रात है
रेशमी स्मृतियों की  निर्झर बरसात है
खोल घूंघट घटा की चाँदनी चुलबुली
सजाई टिमटिम सितारों की बारात है

ख़ाब रूपहला सजाए हुए पलकें मूंद
स्वप्न की आकाशगगंगा में तिरती रही
गदराई चाँदनी छिटककर अंगना मेरे
मृदु-मृदु  स्पन्दन प्राणों में  भरती रही ।

मद्धिम हो जायेगी चाँदनी की उजास
आलम खो जायेगा ये भोर की गर्द में
रंग बिखर जायेगा हुस्न औ ईश्क़ का
कब तक सूरत संवारती रहूँ आइने में ।

तेरे बाड़े में भी हो ऐसी दिलक़श रात
मची हलचल ख़यालों की बस्ती में हो
हर लम्हा गुजारा जैसे तेरे एहसास में
तेरी भी रात जग आँखों में कटती हो ।

लफ्ज़ गूंगा तराशूं किन उपकरणों से
कि बयां कर सकें बेचैनियां ऐ बेवफ़ा 
बड़े ही तहज़ीब से  यादें पहलू में बैठ
देतीं जख़्म ज़िगर को भी दर्द बेइंतहा ।

उर में कोलाहल सन्नाटा फैली फिज़ा
खुशी कुहराम मचा बैठी हड़ताल पर
बेसबब इन्तज़ार का शामियाना लगा
रचातीं आँसुओं से हैं स्वयंवर रात भर ।

आख़िर कबतक नज़रबंद दिल में रहें
रतनारी आँखों में घटा बनी घिरतीं रहें
छुपा रखी जिसे दुनिया की निग़ाहों से 
उमड़ कर बरसीं शोर बरपा आँखों से ।

सर्वाधिकार सुरक्षित
                   शैल सिंह

मंगलवार, 27 अगस्त 2019

" अहसासों के विभिन्न रंग "

अहसासों के विभिन्न रंग 

उड़ानों को पंख तो लगा है दिया
हवा परवाज़ों को बना लो दुल्हन
करें श्रृंगार ख़्वाहिशों की चोटियां 
तोड़कर बंदिशों की सभी बेड़ियां .

जब-जब हुए अकेले
कह सके किसी से कुछ ना,
जब-जब खली तन्हाई
बोझिल लगा एकाकीपन,
बेबाक कह दिया ग़म से
आँखों से दोस्ती कर ले,
आँसुओं के रस्ते बह
कह तुझे जो है कहना 
जज़्बातों को शब्दों की
पहना दी झबरीली पोशाक,
कलम को दे दी जुबान
कह तुझे जो है कहना 
हर्ष,विषाद,आनंद को
अपनी चित्रलेखा बना,
थमा दिया तूलिका को  
अहसासों का विभिन्न रंग,
कागज का विस्तृत कोरा
कैनवास दे कह दिया,
उकेर रंगों के अन्तर्जाल से
मन के बवण्डरों का चित्र,
मन के बोध के लिए
तोड़ दिया बेबस बन्दिशों को,
थकान,सुकून,चाहत,विश्राम की,
विश्वास की,भरोसे की,
संगी,साथी,मित्र बन गई
गजल,गीत,रूबाई,कविता,
कण्ठ को सुर,मधुर तान दे
गुनगुना ली अकथ व्यथा,
पा लिया हजारों लाखों सुख
वसंती रूत जैसा आह्लाद,
विषाद का क्रूर शिल्पी भी
वक्त के हथौड़े से
प्रहार करे,ग़म नहीं,
भीतर का गीला सुखाने के
अनेकों संसाधन हैं,
मोहताज नहीं भावों की लतिका
तारीफों की,अनदेखी होने की
लेखनी सतत हल जोतती रहेगी
पन्नों की उर्वरा छाती पर,
हृदय के भूगर्भ में कल्पनाएं
शब्दों के बीज बोती रहेंगी ,
और अंकुरित होती रहेंगी
राग,द्वेष,दर्द,क्लेश,सुख-दुख
आनंद,हर्ष,खुशी के खाद पानी से,
सोचों के फलक पर
आत्मबोध की फसलें ।

अन्तर्जाल--कसरत करने वाली लकड़ी

सर्वाधिकार सुरक्षित
                     शैल सिंह

रविवार, 18 अगस्त 2019

" अव्यक्त रहने दूं उन्हें या "

" विरह श्रृंगार पर कविता "

सूरज  निकल   चला  गया
दिन  बीता  साँझ  ढल गई
जलतीं  रहीं  दो  पुतलियां
जिसमें झुलस  मैं जल रही।

आये    ना   प्रियतम   तुम
चमन  के   भरी   बहार  में
छोड़कर    विरानियां   गईं
बहारें   भी  इन्तज़ार    में।

नयन     घटा      हुए    हैं
सांसें    उखड़     रही    हैं
यशोधरा सी बैठी गुन रही
बेबस आँखें  उमड़  रही हैं।

वेदना को है कसक ये भी
असहनीय    मौन      तेरा
निर्मोही   हो  गये  हो  तुम
वियोगी  मन बना  के मेरा।

प्रेम    का    प्रसंग    लिखूं
या   दावानल    विरह  का
विलाप   ग़र  समझ  सको
खोलूं  राज  की गिरह  का।

भावनाओं  की आबरू भी
यवनिका  में  रख  सकूं ना
हृदय  तो  ले  गये  हो  तुम
तंज स्पंदन के सह सकूं ना।

असंख्य  किश्तें  हैं  अपूर्ण
आवेग    के    विधा    की
अव्यक्त  रहने  दूं  उन्हें  या
चढ़ा  दूं  भेंट  समिधा  की।

आ   स्वयं   सम्भालो   तुम
राजगद्दी   इस   वजूद  की
रियासतें  ना  जीने  दे  रहीं
सूने  दिल  के दहलीज़  की।

वो    कौन   सी   विवशता
है   कौन   सी   वो  सरहद
जो   राह   रोके   है  खड़ी
बढ़ा  रही  है  पीर  अनहद।

तपेदिक  सी  तेरी  याद  में
तपा   कर सुकोमल  वदन
सागर  सा गहरा  दर्द संजो
रहूँ पर्वत सी  पीर में  मगन।

ना  छज्जे  पर   बैठे   कागा
ना आए हारिल  नजर कहीं
पाती   लिख   मृदुभाव  की
कैसे प्रेषित करूं खबर नहीं।

दिन-दिन  हो  रही   धुमिल
तेरे    रंग   में   रंगी    चुनर
तुझे कैसी अदा करुं मैं पेश     
मुझमें  नहीं  टसन वो  हुनर ।

यवनिका--परदा
समिधा--हवन की लकड़ी

सर्वाधिकार सुरक्षित
                        शैल सिंह

शुक्रवार, 16 अगस्त 2019

" वीर रस की कविता "

 " वीर रस की कविता "

लहराता हुआ सागर कलकल फुफकारती नदी
गरजता हुआ हिमालय खड़ा  ललकारती धरती
केसरिया करे सिंहनाद सरजमीं हुंकार है भरती
हो प्यारे देश पर परवानों कुर्बां शम्मा भी कहती ।

बारूदी शोलों सा फटो शूरवीरों राणा के संतान
तूफान भी ना रोक सके लो संकल्प मन में ठान
विनाश लीला कर विध्वंस करो पूरा पाकिस्तान     
कि शौर्य का तुम्हारे करे श्रृंगार सारा हिन्दुस्तान ।

ध्वस्त कर शत्रुओं के किले,गढ़ श्मशान बना दो
शहादतों का कर हिसाब क़ौम की आन बढ़ा दो
ध्वजा गर्ज करे शंखनाद सपूतों रणभेरी बजा दो 
फन आतंकियों के कुचलो घिनौने मंसूबे ढहा दो ।

मातृभूमि के गौरव लिए हो ग़र गर्दन भी कटानी
हँसते-हँसते सूली चढ़ना माँ की उधारी उतारनी
वतन पर वार दो फौलादी  ज़िस्म चढ़ती जवानी 
स्वर्णाक्षरों में गढ़ी जाए अमर शूरता की कहानी ।

स्वदेश लिए मरना जीना यही उद्देश्य हो हमारा 
जो धृष्ट आँख उठे राष्ट्र पर वो शिकार हो हमारा 
कश्मीर हिंद का सिरमौर झूमता झंडा हो प्यारा 
करांची लाहौर भी हम लेंगे हर जुबां का हो नारा  ।

उठे भूचाल सा हृदय में ज्वार,ज्वाला धधक रही 
दहक आँखों में बिफरे शोला अंगारा भभक रही
सौंप कर में कृपाण भाल चूम मां,बहनें कह रहीं
शीश शत्रुओं के काट ला ज़ख़्म सीने अहक रही ।

मुस्तैदी से डटो सीमा पे मक्कारों को धूल चटाने
अहर्निश खड़े शिखर रहो गद्दारों की चूल हिलाने
भारतीय फौजों की तोपें दागें तान अचूक निशाने  
जो गिद्ध,कायरों की लगा दें लाशें  घसीट ठिकाने ।

फिर केसर की ख़ुश्बू वाली घाटी जन्नत करना है
मरघट से वक्ष में धड़कन भर सर उन्नत करना है
राष्ट्र की सम्प्रभुता  लिए प्राण हथेली पर रखना है
फ़ख़्र मृत्युंजयी वीरों पर हवा,फिजां का कहना है ।

सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह

मंगलवार, 6 अगस्त 2019

" तकिया पर कविता "

           तकिया पर कविता 


कितना  बदनसीब दामन है तकिया तेरा
नि:शब्द करवटों से कभी उकताती नहीं
होती गलगल हो अश्रुओं की हमदर्द बन
दर्द ख़ुदके सिरहाने से कभी बताती नहीं ।

हिलकतीं सिसकियों से बेतरतीब बिस्तर
सिलवटों की एकमात्र तूं चश्मदीद गवाह
इत्मिनान,सुकून,निश्चिन्तता की तूं हितैषी 
ईश्क़ के मारों से करती मुहब्बत बेपनाह ।

तोड़ सब्र का तटबन्ध आँसू नदी की तरह 
बसर ढूंढ़ते मन का समंदर हो तुम्हीं जैसे 
सबकी अन्तरंग खुशी भी भींच आगोश में
बन जाती  राजदार हमराज़  हो तुम्हीं जैसे ।

अनन्त पीर सह रखती स्मृतियां सहेजकर 
नितान्त एकान्त क्षणों की बन सहभागिनी
भर आग़ोश में तूं करती अद्भुत करिश्मा 
संग रोती दर्द का अवलंब बन सहचारिणी ।

माँ की ममता सरीखे है तकिया आँचल तेरा
दे थपकियां सुलाती सीने से लगा गा लोरियां
रोना,हंसना,खुशी,दर्द,ग़म,जुदाई,ज़ख़्मों पर
तकिया होती है निहाल लुटा नेह की झोरियां ।

तूं ज़ख़्म-ए-ज़िगर की एकमात्र अंकशायिनी
खुद को दबोचे जाने पर कभी कराहती नहीं
परिचारिका सी लवलीन जुती प्रेम रोगियों में
दर्द महसूसती खुदको कभी पुचकारती नहीं ।

बहुत ही खूबसूरत शहर  तकिया तन्हाई का
दरके रिश्तों से नाना किले निर्मित होते जहाँ
दिल पे चोट खाये आते खरीदने मरहम यहीं
कुछ दरबार सजा हैं मनाते रोज उत्सव जहाँ ।

  शैल सिंह

सोमवार, 29 जुलाई 2019

" सावन पर कविता "

       सावन पर कविता 


  न जाने तुमसे लगी ये कैसी लगन
  बुझा पाये न सावन ये ऐसी अगन
  झीनी- झीनी फुहारें भिंगोयें वदन
  सावन तुम बिन बीता जाये सजन ।

नहीं बरसो रे सावन झरने लगेंगे नयन
जो हैं एहसासों के तोहफ़े सहेजे नयन
भींगे रहना मंज़ूर अनुरागी एहसासों में
संग बह जायेंगे जो ऐसे ये बरसेंगे नयन ।

उनके अनुरक्ति में जितना भींगा है तन
रत्ती भर भी नहीं सावन में दिखा है दम
उनके स्पर्श की तरिणी में तैरने दो मुझे
भींगो दे आँखों का समन्दर भले पैरहन ।

सुहानी शामें वही मंजर याद आ जायेंगे
जो उनके संग देखीं बरसातें छा जायेंगे
जाके उनके शहर भी बरसकर बता दो
ऋतु है सावन का जल्दी घर आ जायेंगे ।

बोले कुहू-कुहू पिक,पिऊ-पिऊ पपिहा
वैसे पुकारती पी कहाँ  विकल हो जिह्वा
दिन-रैन,चित्त अधीर विषधर विरहा हुई
बिदके दर्पण सिंगार जब निहारती पिया ।

तुम्हारी याद में हुआ बारहो मास सावन
झड़ी अश्रुओं की देख हार जाता सावन
मन का मधुवन जले पी भरी बरसात में
पड़ी आँखों तले झांईं राह देखते साजन ।

तृषित विरहन का आँचल सुहागिन धरा
मेघ,मल्हार,रूत,मौसम,फुहारें,औ हवा
इनकी आवारगी औ शरारत परेशां करे
ऐसे व्याधि के हो प्रीतम बस तुम ही दवा ।

पैरहन-- वस्त्र पोशाक
              सर्वाधिकार सुरक्षित
                                    शैल सिंह

गुरुवार, 25 जुलाई 2019

" एक वेश्या का दर्द "

मैं जिस्म बेचती हूँ चन्द नोटों की खातिर
नाचती कोठों पर हूँ चन्द नोटों की खातिर
रातें रंगीन करने वाली मैं इक बेबस नायिका
हँसके दर्द सहती वेश्या बन चन्द नोटों की खातिर ।

करती संगीन जुर्म चन्द नोटों की खातिर
बदलती हर रात शौहर चन्द नोटों की खातिर
नित नये ग्राहकों संग खेलती जिस्म निलाम कर  

पोषती हूँ धंधा विरासत का चन्द नोटों की खातिर ।

घर टूटता है किसी का ग़र वजह से मेरी

जग लानत न दे नहीं होता सब गरज से मेरी

रूह की भी सजाती शैय्या हाय जिस्म के बगल

सफेदपोश कहते बदचलन खेल कर जहन से मेरी ।

जब्त अधरों की लाली में मुस्कुरा कर
छलकते आँसूओं को पलकों तले ढाँपकर 
मन की पावन वेदी पर करती जमीर का हवन

पालती आजीविका कसबिन,पतुरिया के नाम पर ।

न कोई हमदर्द मेरा ना हमसफ़र कोई
भूखे भेडियों के शौक की लजीज स्वाद हूँ
सुलगते अरमानों पर हवश के जुटाती संसाधन 

वहशत के बिस्तर पर लेटी जिन्दा सजीव लाश हूँ ।

मैं हूँ गम का ईलाज मैं ही दर्द की दवा
कहते लोग अय्याशी का अड्डा कोठा मेरा

बन समाज का मुखौटा नाची पांव बाँध घुँघरू
महफिलों के महानायक रखते नाम तवायफ मेरा ।

करके सोलह सिंगार भी अधूरी दुल्हन
कर वदन की नुमाइन्दगी वसूलती रकम
रईसजादों के खिलौनों का बाजार मैं अभागन
वे अपना सौदा कर बनें दूल्हा मैं बदनाम सुहागन ।

सर्वाधिकार सुरक्षित                
                            शैल सिंह

बुधवार, 17 जुलाई 2019

" संस्कारी पिता के दर्द को बयां करती रचना "

अंतर्जातीय विवाह करने वाली बेटी पर 
संस्कारी पिता के दर्द को बयां करती रचना 

नेह इक बाप का यूं ठुकरा कर तुम
घर बसा ली  किसी बेग़ैरत  के संग
तूं भी मेरी तरह हर-पल तड़पती रहे
जी रहा जिस तरह मैं ज़िल्लत के संग ।

जिस बाग़ की थी नाज़ुक़ कली तूं कभी 
फूल बनने तलक जिस आँचल में थी
उसी आँचल का ईक-ईक रेशा उघाड़
कर गई नग्न खेली जिस आँगन में थी ।

डग भरने से लेकर  यौनावस्था तलक
घर की इज्जत बनाकर रखा किस तरह
तुम तो शोहरत की भूखी थीं पा वो गईं
तोड़ सोने का पिंजरा उड़ीं किस तरह ।

ताक पर रख मर्यादाएं बड़बोली तुम  
सहानुभूति की जो निबौरियां चुन रही
धम्म से इक दिन गिरोगी महा ग़र्त में
श्राप देती कलपती माँ सीना धुन रही ।

क्यूं लगीं अंकुशों की पांव में बेड़ियां
तुम भी जानती तुम्हें सब बखूबी पता
बैठ मंचों पर तूं घड़ियाली आँसू बहा
सोच बदलो पापा,कहती करके ख़ता ।

आसमान भी जमीं से मिला क्या कभी
चाँद सूरज को मिलते क्या देखा कभी
पत्थरों पर कभी दूब  उगते देखा क्या
कृत्य पे ऐसे जश्न मनते क्या देखा कभी ।

मान्यताओं,आदर्शों की तूं सीमाएं लांघ
कर दी मिट्टी पलीद कुल,खानदान की
सदियों तक हर जुबां की दास्ताँ बनेगी
की ना परवाह कलंकिनी तूं अंज़ाम की ।

इस दु:साहस की मिले तुझे ऐसी सजा
ज्ञान देने वालों के घर भी हों कुलटा पैदा
दईया युवा पीढ़ी को जाने है क्या हो गया
प्रेम अँधा हुआ पानी आँखों का मर गया ।

  शैल सिंह
सर्वाधिकार सुरक्षित

बुधवार, 10 जुलाई 2019

" भीषण जलावृष्टि पर कविता "

         भीषण जलावृष्टि पर कविता 


अब तो लेले सन्यास कुढ़-कुढ़ इस क़दर बरस ना
हिलस गये बूढ़े वरगद भी कुछ तो खाले तरस ना ।

बड़ी मुंहजोर हुई बरखा तटबन्ध तोड़ कर अपना
जल आप्लावन चहुँओर विध्वंस हुआ सारा सपना
सभी जलाशय उफन रहे हैं दरिया में उठा सैलाब
बरबाद बुने ताने-बाने घटा अब तो छोड़ बिफरना ।

टूटे चौपायों के छप्पर घर हुए ज़र्जर ढहे धराशाई
कुपोषण को दे गई न्योता प्रलयंकारी बाढ़ कसाई
जिस मचान पे करते मस्ती उड़ाये सुग्गे औ बगुले
तेरे विनाश में उजड़े घरौंदे लाड़ तेरा बड़ दुखदाई ।

घुसा चौहद्दी में पानी दूभर कीं किच-किच दालानें
अनुष्ठान हुए थे वृष्टि लिए अब नभ से ओरहन ताने
औषधि खालो घटाओं अजीर्ण की बवाल ना काटो
कर दिया नगर-डगर जलमग्न छोड़ो कहर बरपाने ।

जाने किये कहाँ पंछी पलायन घुसा बसेरों में पानी
उखड़ गईं शाखें वृक्षों की खोई अमराई की रवानी
बाज आओ ना करो दुःखी ना करो ऐसी बदगुमानी
सुनो भला नहीं भौकाल तेरा ना अति की मनमानी ।

नेस्तनाबूद हुए पुस्तैनी घर मरघट सी लगती बस्ती
कहीं अतिवृष्टि कहीं अनावृष्टि शुष्क जमीं है परती
कहीं वर्षाती ओले कहीं इक बूंद को मोती तरसती
किसी दिन ऐ मेघा जरा तुम भी उपवास तो रखती ।


                    शैल सिंह

शुक्रवार, 14 जून 2019

छोड़ दे रूठना बरस झमाझम

छोड़ दे रूठना बरस झमाझम 

श्यामल-श्यामल मेघराज जरा
शुभग श्याम पताका फहराओ
मेघ लगाकर सूरमा मंडरा कर
जिद्दी धूप पर नैना बान चलाओ ।

आग बबूला  हो उग्र प्रभाकर  
हौले-हौले  आसमान से उतरे
प्रचण्ड ताप  संग तप्त  हवाएं
भरी दोपहरी  व्योम से बिफरे ।

बरसा कर  ज्वाला वर्चस्व का
धमक चक्रवात का दिखलाए
स्वेद निथारे आर्द्रता शरीर की
जगती का कण-कण तड़पाए ।

आकुल धरती का मर्म ना जाने
करती बिजली गिराकर घायल
गर्मी का प्रकोप उत्पात मचाये
छले पर्वत से टकराकर बादल ।

छप-छप कर के लुत्फ़  उठाएं
कागज की नाव चला कर हर्षें
चाय की चुस्की  गरम पकौड़ी
खायें खूब झूम  घटा ग़र बरसे ।

किस विरह में डूबी कारी घटा
क्यूं न रिमझिम फुहार बरसाए
छोड़ दे रूठना बरस झमाझम
नथुनों में सोंधी  ख़ुश्बू भर जाए ।

शुभग--सुन्दर

                  शैल सिंह

शुक्रवार, 31 मई 2019

" वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मेरी कलम से "

लहर-लहर लहराया है परचम
भगवा का हिन्दुस्तान में
हर्ष रहा चहुँओर केसरिया
कंवल खिला है रेगिस्तान में
हो मोदी,की चर्चा है सारे जहान में ।

सबका विकास साथ सबका है नारा
इसी विश्वास पर दिल जनता ने वारा
मोदी है तो सबकुछ मुमकिन सुनो भाई
देश है सुरक्षित चौकीदार के संज्ञान में
कंवल खिला है रेगिस्तान में
हो मोदी,की चर्चा है सारे जहान में ।

मोदी की सुनामी ने ऐसी बाढ़ लाई
वंश,परिवारवाद का धड़ा धराशाई
इक नये भारत का अभ्युदय हो रहा है
धुरंधर दामोदर के तत्वावधान में
कंवल खिला है रेगिस्तान में
हो मोदी,की चर्चा है सारे जहान में ।

महाशक्ति बनकर उभरेगा भारत मेरा
अटल के संकल्प का होगा नव सवेरा
देशद्रोही,गद्दारों सुन लो कान खोलकर
कसेगा शिकंजा तुमपे अबके अभियान में
कंवल खिला है रेगिस्तान में
हो मोदी,की चर्चा है सारे जहान में ।

सर्जिकल स्ट्राइक से हड़कंप मचाया
हौसला बुलंद सेना का पावर थमाया
सारे रिश्ते तोड़कर पापी पाक घातियों से
खलबली मचा है दिया पाकिस्तान में
कंवल खिला है रेगिस्तान में
हो मोदी,की चर्चा है सारे जहान में ।

ठठ्ठा मार कर जो संसद में विहँसे थे
एक वोट गिरने पर अटल जी कहे थे
इक दिन जनादेश होगा पाले में हमारे
तुम मुँह छुपाकर बैठोगे म्यान में
कंवल खिला है रेगिस्तान में
हो मोदी,की चर्चा है सारे जहान में ।

निडर सब पर भारी कद्दावर अकेला
कितने महारथियों का सिंहासन डोला
जाति,धर्म,भेदभाव मिट गये स्वयं ही
विजय का पताका फहरा स्वाभिमान में
कंवल खिला है रेगिस्तान में
हो मोदी,की चर्चा है सारे जहान में ।

                                         शैल सिंह

रविवार, 5 मई 2019

नई बहू का आगमन पर मेरी कविता

         नई बहू का आगमन 


छोड़ी दहलीज़ बाबुल का आई घर मेरे
बिठा पलकों पर रखूँगी तुझे अरमां मेरे ।

तुम्हारा अभिनंदन घर के इस चौबारे में
फूल बन कर महकना भवन ओसारे में
आँगन उजियारा हो चाँदनी जैसा तुमसे 
पंछियों सा चहकना घर कानन हो जैसे ।

लो ये चाभी के गुच्छे संवारो घर अपना
बस ये ही गुजारिश सबका मान रखना
नया परिवार,परिवेश नया घर यह सही
रखना सामंजस्य यहाँ कुछ पराया नहीं ।

सबसे सौभाग्यशाली समझना खुद को
तुम भी मूल्यमान हो है जताना मुझको
पुत्रवधू कह पुकारूं तुुझे अन्याय होगा
जोडूं माँ-बेटी सा रिश्ता तो साम्य होगा ।

न कोई बंधन यहाँ न कुछ थोपना तुझपे
करना इज्ज़त सबका बस कहना तुझसे 
पल्लवित,पुष्पित हो चहचहाना तूं आँगने
ताकि बाँट सकूं सुख-दुःख मैं तेरे सामने ।

अक़्स देखना तुम मुझमें अपनी मातु का
दूंगी खुशियां दुगुनी आँचल की छांंव का  
कुछ सिखलाऊं,समझाऊं दूं मैं नसीहतें
खुशी से स्वीकारना अनुभव की ये नेमतें ।

शताब्दी से प्रचलित नकारात्मक चर्चों पर 
डालें नया आवरण सास-बहू के रिश्तों पर 
ससुराल,पीहर में हो ना फ़र्क़ महसूस तुझे 
वात्सल्य के सानिध्य से हो तूं अभिभूत ऐसे ।

हो दुविधा,आशंका कभी संशय या रूसवा
सुलझाना आत्मियता से सब गिला,शिकवा
इक दूजे से आहत ना हों ऐसा सम्बन्ध रखें 
सौहार्द्र परस्पर मेें हो आत्मीय अनुबंध रखें ।

                                    शैल सिंह



बुधवार, 20 फ़रवरी 2019

कहीं चाहत न खता बन जाए

कहीं चाहत न खता बन जाए  


अँधेरे पूछते कौतूहल से  
शमा  किसने जलाई है 
पूनम के चाँद सा रौशन 
कर रही मेरी तन्हाई हैं ।

शय्या के हर सलवट में 
सुगन्ध   तेरी  समाई है
अन्तर्मन जड़ चेतन में 
जीवन्त तेरी परछाई है ।

हृदय के अनंत सागर में
लहराते तुम लहरों सा
दमकते कुमकुम जैसे हो
दिवाकर  के किरणों सा ।

घायल हुई दीदार से तेरे 
मन रहता मेरा अवश सा
इंद्रजाल रूपी झील में तेरे
खिला रहता रूप कंवल सा ।

जब भी करती हूँ कोशिश  
लिख तेरा नाम मिटाने की
लगती पेंग मारने प्रीत तेरी
जब करूँ हठ तुझे भुलाने की ।

मन ही मन हूँ लगी पूजने
चेष्टा की जबभी ये बताने की
कहीं चाहत ख़ता न बन जाए
डरा दीं आँखें जमाने की ।

मादक सी आँखों में मेरे 
माज़ी बादल बन घुमड़ता है
बेमौसम बारिश की तरह 
टपाटप अनायास बरसता है ।

कैसे बहलाऊँ पगले मन को
बावरा मन नहीं बहलता है
इस क़दर बसा है तूं सांसों में 
धड़कन बन धड़कता है ।

बेबस बहुत  मोहब्बत है 
उलझन में बहुत है राहत
दुनिया से टकराने की भी 
नहीं उल्फ़त में है साहस ।

तूं घुला धमनियों,शिराओं में 
कहाँ से गले पड़ी मेरी आफ़त
खफ़ा होऊं तुझसे या खुद से
है असमंजस में बुरी हालत ।

      माज़ी--अतीत    
                           शैल सिंह

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2019

" देश का अन्तरद्वन्द "

         " देश का अन्तरद्वन्द "

न मोती है न ओस की बूंदें हैं,
ये खारे आँसू अन्तस के शान्त समंदर की
विकराल,वीभत्स उफनती हुई लहरें हैं,
जो पाकिस्तान की तबाही का
खौफनाक इतिहास रचेंगी।
देश अपने कलेजे के टुकड़ों की
शहादत पर मातम नहीं मना रहा
बल्कि अन्तर का कोलाहल और चित्कार देशवासियों
के दिलों में पाक की बर्बादी का जुनूनी जोश भर रहा,
शहीदों की वीरगती पर हम नम आँखों से श्रद्धांजली नहीं,वरन प्रतिशोध की ज्वाला से पाकिस्तान को
नेस्तनाबूद करने की कहानी लिख रहे हैं।
तिरंगे से सुशोभित हमारे शहीदों की ये कुर्बानी नहीं,
बल्कि देश को जगाने की उनकी जुबानी इबारत है ,
वतन के दुलारों का बलिदान शोक मनाने के लिए नहीं
अपितु देशभक्त देशवासियों के लिए एक शपथपत्र है,
कि अब तक जितने भी लालों के खूं से भारत माँ का
आँचल लाल हुआ है उनका सूद समेत कर्ज उतारना है,
हम अपने शहीदों की अन्तिम यात्रा पर उन्हें सलाम नहीं
बल्कि वादा कर रहे हैं कि आपके वलिदान का जश्न मनायेंगे पाकिस्तान को बर्बाद कर,तबाह कर लातों के भूत पाकिस्तानी कायर सियारों की लाशों को आग के हवाले कर उसकी लपटों से उनके गद्दार आकाओं को
जलायेंगे,कुढ़ायेंगे। पहले तो घर में पाले संपोलो की आंतें निकाल उनकी मांओं की हथेली पर रखना है
जिनकी नाक के नीचे उनकी औलादें हमारे देश का
खा पीकर डकारें लेते हैं और पाकिस्तान जिन्दाबाद
के नारे लगाते हैं हमारे टुकड़ों पे ही पलकर हमारे
फौजी भाईयों को आँखें तरेरते हैं,धिक्कार है देश के गद्दारों को भी जो अपनी माँ का नहीं किसी और का क्या होगा।
          जयहिन्द जय भारत 

नव वर्ष मंगलमय हो

नव वर्ष मंगलमय हो  प्रकृति ने रचाया अद्भुत श्रृंगार बागों में बौर लिए टिकोरे का आकार, खेत खलिहान सुनहरे परिधान किये धारण  सेमल पुष्पों ने रं...