बेटियों पर कविता
अँधेरों को कर ना दें बेपरदा ख़ामोशियाँ मेरी
जोश के पर पे उड़ने को बेचैन परियां मेरी
ख़ुद चमकूँ जुगुनू सा मैं दे दूँ चाँद को भी मात
लहरों का नज़ारा बैठ साहिल पर देखें क्यों
भंवरों से करें अठखेलियाँ दो कश्तियाँ मेरी ,
दे दो हक़ हमें भी,आजादी हमें भी मर्दों सी
ग़र मज़लूम ना होतीं न लगतीं बोलियां मेरी
उड़ना हमें भी हवाओं में उन्मुक्त पाँखी सा
अस्मत की ना खायें नोंच दरिंदे बोटियाँ मेरी ,
हमें खुल कर सांसों को लेने की इजाज़त दो
करतब खूब दिखाएंगी हुनरमंद बेटियाँ मेरी
नहीं होना उत्सर्ग कनक पिंजरों के वैभवों में
बग़ावत पे उतर ना जायें कहीं दुश्वारियां मेरी ,
ख़ुद को जला घर के अँथेरों को किया रौशन
किरण बाहर भी बिखरानी फैलें रश्मियाँ मेरी
अबला और ना बन देनी हमें हैं अग्निपरीक्षाएँ
अँधेरों को कर ना दें बेपरदा ख़ामोशियाँ मेरी ,
ख़ुद चमकूँ जुगुनू सा मैं दे दूँ चाँद को भी मात
बातें करें गगन के तारों से मुख़र हस्तियाँ मेरी
खोलूं मन के परत का पुर्ज़ा आवाज उठाने दो
घायल मन के हंसा की दिखाऊँ झांँकियां मेरी ,
क़तर के डैनों को रखा है रस्मों की तिज़ोरी में
बंधन तोड़ें रस्मों-रिवाज़ के दे दो कुँजियाँ मेरी
क़तर के डैनों को रखा है रस्मों की तिज़ोरी में
बंधन तोड़ें रस्मों-रिवाज़ के दे दो कुँजियाँ मेरी
परवश सृजन की कलियाँ हृदय में मचलती हैं
सुलग ज़िद्दी ना उफ़नायें दबी चिनगारियाँ मेरी ।
शैल सिंह
शैल सिंह
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