शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018

" भोली तस्वीरें उद्वेलित कर देती हैं "

 भोली तस्वीरें उद्वेलित कर देती हैं 


उन्हें भूल जाने की जबसे है जिद ठान ली
यादें और ज्यादा मुखर हो सताने लगीं ।

कभी चंचल पवन खोल अन्तस के द्वार
ज़िस्म की उनके ख़ुश्बू महका गई
कभी अम्बर से आँगन उतर चाँदनी 
मन गुदगुदा तन को दहका गई ।
जिन यादों के संग जीने की आदत सी है
वही पलकों पे शोख़ हो झिलमिलाने लगीं
उन्हें भूल जाने की जबसे है जिद ठान ली
यादें और ज्यादा मुखर हो सताने  लगीं ।।

कभी एहसास उनके छुवन की मेरी
सोई आँखों को झकझोर जगा देती हैं
कभी अधरों पे चुम्बन की देकर मुहर 
यादें सहला विभोर कर सुला देती हैं ।
नेह से चूम भरना उनका आलिंगन में 
यादें फिर तारिकाओं सी जगमगाने लगीं
उन्हें भूल जाने की जबसे है जिद ठान ली
यादें और ज्यादा मुखर हो सताने  लगीं ।।

कभी संग बिताए हुए लम्हों की
स्मृतियां ताजा हो बिचलित कर जाती हैं
कभी जज़्बात ख़ुद के ही ख़ुद से पिघल
दृगों को अश्रुओं से सिंचित कर जाती हैं ।
कुछ सहेजी हुई दराजों से तहरीरें झांक
चुहल करती हुई फड़फड़ाने लगीं
उन्हें भूल जाने की जबसे है जिद ठान ली
यादें और ज्यादा मुखर हो सताने लगीं ।।

कभी मानस पटल पर आच्छादित हो 
भोली तस्वीरें उद्वेलित कर देती हैं
कभी ख़यालों में उद्यंड परछाईयाँ भी 
अवतरित हो उत्तेजित कर देती हैं।
कल्पनाओं में स्मृतियों का मेला लगा   
यादें हर रात महफ़िल सजाने लगीं
उन्हें भूल जाने की जबसे है जिद ठान ली
यादें और ज्यादा मुखर हो सताने लगीं ।।

                                          शैल सिंह 

मंगलवार, 11 सितंबर 2018

वफ़ा की धवल धार में नहला दोगे ना 

वफ़ा की धवल धार में नहला दोगे ना 


आजकल बहुत आतीं मुझे हिचकियाँ
ज़िक्र महफ़िलों में मेरी किया ना करो
ओढ़ चादर सन्नाटे की सांवली रात में
छुपकर सरगोशियां भी किया ना करो ,

ग़र करते हो मुझसे शिद्दत से उल्फ़त 
इस रिश्ते को खुलकर इक नाम दे दो 
लुका-छुपी कर पहलू में ना बैठा करो      
ग़र परवाह मोहब्बत का है नाम दे दो ,

मिश्री घुली बातों से यूँ भरमाकर तुम
उलझी लटों से ना मन बहलाया करो
भोली अरमां को अपने मोहताज़ कर
सैर स्वप्निल संसार के ना कराया करो , 

मन-मस्तिष्क पर दर्ज़ उपस्थिति कर
तेरी आहट की प्रतिध्वनियां तरंग भर
कहीं कर ना दें मुझे इस कदर बावरी
कि लग जाए जमाने की बदरंग नज़र ,

चूम पलकें दिया शह जरा ये बता दो
ज़िन्दगी भर पनाहों में जगह दोगे ना
प्रेम की बरखा में अंतर्मन है भिंगोया 
वफ़ा की धवल धार में नहला दोगे ना ।

बड़ी शातिराना यक़ीन चलती है चाल  
सलाह मशवरा कर अब मुहर लगाओ
और छुपा लो आग़ोश में सदा के लिए
भरो चंपई रंग प्यार दहर को दिखाओ ।

दहर--संसार   
          शैल सिंह
सर्वाधिकार सुरक्षित

मंगलवार, 4 सितंबर 2018

" बस चितवन से पलभर निहारा उन्हें "

कविता मेरी कलम से

तुम जो आए तो आई चमन में बहार
सुप्त कलियाँ भी अंगड़ाई लेने लगीं
चूस मकरंद गुलों के मस्त भ्रमरे हुए
कूक कोयल की अमराई गूंजने लगीं ।

फिर महकने लगी ये बेरंग ज़िन्दगी
जब से ख़ुश्बू तेरी मिल गई साथ है
हरसू लगने लगीं अब तन्हाईयाँ भी
जबसे उर घुला मखमली एहसास है ।

फासले ऐसे नदारद हुए ज़िन्दगी से
खुशनुमा-खुशनुमा हर पल आज है
जबसे आए हो इस वीरां ज़िन्दगी में
तब से सारा शहर लगता आबाद है ।

भयभीत होती नहीं हो घनेरा तिमिर
चाँद सा हसीं महबूब का अन्दाज़ है
उनसे रूठना भी अब ना गवारा लगे
बाद अरसे के सुर को मिला साज है ।

हर आहट पे हृदय के ऐसे हालात हैं
लगे उर्वी से मिलने उतरा आकाश है
अब तो विराम दो मेरी आकुलता को
चौखट थामें खड़ी आतुर भुजपाश हैं ।

फिर हृदय में अभिप्सा उमगने लगीं
नयन में चित्र फिर संजीवित हो उठे 
मृदु स्पन्दन,उन्मुक्त सिहरनें गात के
पा आलिंगन पुन: पुनर्जीवित हो उठे ।

स्वप्न पलकों के आज इन्द्रधनुषी हुए
निशा नवगीत सप्तस्वर में गाने लगी
उर के द्वारे आह्लाद का मज़मा लगा
चाँदनी और शोख़ हो मुस्कराने लगीं ।

अधर प्यासे जो सींचे अधर सोम से
मन के अंगनाई शहनाई बजने लगी
बस चितवन से पलभर निहारा उन्हें
भोर की तत्क्षण अरुणाई उगने लगी ।

अभिप्सा--प्रबल इच्छा, गात--देह,  उर्वी--पृथ्वी
                                  शैल सिंह
सर्वाधिकार सुरक्षित

मंगलवार, 28 अगस्त 2018

" विरहवर्णन एक विरहणी का "

" विरहवर्णन एक विरहणी का "


निष्प्रभ हो गए उद्विग्न दो नयन
मगर तुम न आए तो मैं क्या करूं।

मन के आंगन में चौका पुराये हुए
तन की देहरी रंगोली खिंचाये हुए
निशी-बासर प्रत्याशा की ताक पर
नेत्र की वर्तिका नित जलाये हुए
मग जोहती रही पलक-पांवड़े बिछा
हृदय के द्वार तोरण सजाये हुए
मगर तुम न आए तो मैं क्या करूं।

सावन की रिमझिम फुहारें बरस
कर गईं धरणी का आँचल सरस
उर अदहन सरिखा खदकता रहा
कर सकी ना तरल तन बरखा हरष
वसंतदूती की कूक से उठी हूक हिय
यामिनी भी कसकती रही खा तरस
मगर तुम न आए तो मैं क्या करूं।

वियोग में तप रही दीपिका की तरह
प्रज्वलित हो जल रही शिखा की तरह
म्लान तरूनाई मुख कान्ति कुम्हला गई 
ज़िन्दगी स्याह लग रही निशा की तरह
विरह के यज्ञ में स्वाहा हो रही उमर
वक्त छल रहा नि:शब्द व्यथा की तरह
मगर तुम न आए तो मैं क्या करूं।

दर्द दिल के सभी भावों ने ले लिए
भावों को शब्दों की मोती में पिरो लिए
शब्दों को सुर में ढाला गीत बन गये
मर्म के गीत गा ख़ुद से ख़ुद रो लिए
सांसों के साज़ पर साध अहसासों को
बज्म़ पीर की सजा हम सजल हो लिए
मगर तुम न आए तो मैं क्या करूं।

निष्प्रभ हो गए उद्विग्न दो नयन
मगर तुम न आए तो मैं क्या करूं।

निष्प्रभ--प्रभाहीन
वसंतदूती--कोयल

                         शैल सिंह
सर्वाधिकार सुरक्षित


'' अहसास तुझको भी होता,गर इस तरह जुदाई का ''

 अहसास तुझको भी होता,गर इस तरह जुदाई का       


घटा आँखों में छाई है
अधर मजबूर हँसने को
गहन अंधियारा अन्तर में
किरण मजबूर चमकने को
तेरी तस्वीर निग़ाहों में है
अम्बर यादों का उर में
विच्छिन्न सांसों की सरगम
हृदय मजबूर धड़कने को ,

इक परछाई से चिपटी
टूटे ख़्वाबों को लेकर
सहेजूं जोड़कर किरिचें
माज़ी की यादों से लड़कर
वो ढलती सुरमई शामें
सुहाना मौसम बहारों का
तिरे आँखों में हर लम्हा 
अश्क़ मजबूर छलकने को ,

कुहरे,धुंद,धुआँ को चीर
मुखर परछाईयाँ तेरी
कितने शक्लों में करतीं
विरक़्त तन्हाईयाँ मेरी
कैसे कैसे निभाती किरदार
लिपटा रूह से तुमको
जी रही दर्द को शब्दों में
शब्द मजबूर पिघलने को ,

प्यासी चातकी सी व्यग्र 
बन बादल बरस जाओ
कहीं निर्बाध न बह जाए
नेत्र का काजल चले आओ
किस लिबास में दिखलाऊंँ
उच्छृंखल मन की तस्वीरें
विघ्न तमाम चक्षु शमा को 
पथ मजबूर जलने को ,

आलम बेकरारी का 
कहूं किन लफ़्जों में आख़िर 
तोहफ़ा यादों का ले जाओ 
यादों से निज़ातों की ख़ातिर 
अहसास तुझको भी होता 
ग़र इस तरह जुदाई का 
ख़ामोश ऐतबार मेरा रहता  
हूँ कित मजबूर कहने को। 

विच्छिन्न--काटकर अलग किया हुआ
माज़ी --अतीत ,शमा--रौशनी 
                          शैल सिंह 
सर्वाधिकार सुरक्षित 



सोमवार, 13 अगस्त 2018

वियोग श्रृंगार का गीत "कौन सा हठयोग कर रोकूं पथ परदेशी की "

वियोग श्रृंगार का गीत --
" कौन सा हठयोग कर रोकूं पथ परदेशी की "


क्या जतन कर पिया को रिझाऊँ हे सखी
कौन सा मद पिला के भरमाऊँ हे सखी
बसें नैनन मेरे वो बसूं नैन उनके मैं
कौन सा भंग घिसकर पिलाऊँ हे सखी 

मांग भर ली सितारों से उनके लिए 
कर ली सोलहो सिंगार सखी उनके लिए 
बाँहों पर उनके नाम का गुदवा गोदना 
पीर सह ली असह्य सखी उनके लिए 

मुझे कर के सुहागन मिला के नैना चार 
अपने रंगों में रंग दिए रूप को निखार
चाहूँ पलकों तले रखूँ ढाँप पी को हे सखि             
छवि निहारूं अपनी दिखें वोही दर्पण के द्वार,  

वो नेपथ्य से निहारें इसका भान मुझको हो
उन क्षणों का गवाह दो एकान्त मन को हो
अलाव सदृश जलूँ उलीचें पी ओस प्रीत की
दम-दम दमकूं गमक से गंध पी के तन की हो,

जादू,टोना ना जानूं ना वशीकरण मंत्र
चलाऊं नैनों के बान का कहो तो एक यंत्र
कौन सा हठयोग कर रोकूं पथ परदेशी की
स्वांग में और क्या मिला रचूं सम्मोहनी षड्यंत्र,

क्या जतन कर पिया को रिझाऊँ हे सखी
कौन सा मद पिला के भरमाऊँ हे सखी
बसें नैनन मेरे वो बसूं नैन उनके मैं
कौन सा भंग घिसकर पिलाऊँ हे सखी ।

नेपथ्य --पर्दे के पीछे से
अलाव--आग , सदृश-जैसा
                 शैल सिंह
सर्वाधिकार सुरक्षित ,

शनिवार, 11 अगस्त 2018

प्रेम रस की कविता ,प्रेम गीत '' विरहाग्नि में जली हूँ जैसे रात-दिन मैं सखी ''

'' विरहाग्नि में जली हूँ जैसे रात-दिन मैं सखी ''


उनके आने की खबर जबसे कर्ण में घुली
हे सखि षोडशी हो गईं इन्द्रियां
जलतरंगों सी लहरें उठें तन-वदन
रातें लगने लगी भोर की रश्मियां,   
उनके आने की खबर जबसे कर्ण में घुली
हे सखि षोडशी हो गईं इन्द्रियां,

प्रीत की इक छुअन से परे होंगी जब 
लाज,संकोच,शर्म की पारदर्शी चुन्नियां
नेह भर नैन से बस निहारूंगी उन्हें
दृश्य अद्वितीय होगा मिलन के दरमियां,
उनके आने की खबर जबसे कर्ण में घुली
हे सखि षोडशी हो गईं इन्द्रियां,

गर्म सांसों के स्पर्श जब चूमेंगे नर्म ओष्ठ
दहकेंगी आलिंगन से वदन की टहनियाँ
नस-नस में होगा जब प्रवाहित प्रेमरस
मरूस्थल से तन की खिल उठेंगी कलियां,
उनके आने की खबर जबसे कर्ण में घुली
हे सखि षोडशी हो गईं इन्द्रियां,
    
करूंगी उनको विह्वल मौन संवाद से
मोहिनी चितवनों की गिरा-गिरा बिजलियाँ
विरहाग्नि में जली हूँ जैसे रात-दिन मैं सखी 
मुख पे डाल तड़पाऊंगी घूँघट की बदलियाँ ,
उनके आने की खबर जबसे कर्ण में घुली
हे सखि षोडशी हो गईं इन्द्रियां,

सजी नख से शिख तक मैं रिझाऊंगी उन्हें
खनका रंग-बिरंगी कलाईयों की चूड़ियां
कस कर बांँधूंगी प्रणय की रेशमी डोर में 
रखूंगी पलकों बीच ढांप जैसे दोनों पुतलियाँ
उनके आने की खबर जबसे कर्ण में घुली
हे सखि षोडशी हो गईं इन्द्रियां।

चुन्नियाँ--ओढ़नी 
सर्वाधिकार सुरक्षित
                     शैल सिंह

मंगलवार, 7 अगस्त 2018

कब आओगे खत लिखना

" कब आओगे खत लिखना "


निसदिन राह तकें सखी 
दो प्रेमपूरित नैन 
उन्हें कहाँ सुध थाह कैसे 
कटती विरह की रैन,

पाती प्रिय को लिखने बैठी
व्यथा उमड़कर लगी बरसने
पीर हृदय की असह्य हो गई
कलम क्लान्त हो लगी लरजने
अभिव्यंजना व्यक्त करूं कैसे ,

चाँदनी छिटकी गह-गह आंगन
यादें मुखर हो कर गईं विह्वल
अन्तर्मन फिर से संदल हो गया
भ्रान्तचित्त हो गए हैं प्रियवर 
भावप्रणवता व्यक्त करूं कैसे ,

अश्रुओं की जलधार में प्रीतम 
प्रीत की स्याही घोलकर
उर का अंतर्द्वंद लिख रही
पढ़ना मन की आंखें खोलकर 
रससिक्त भाव व्यक्त करूं कैसे ,

आँखों में अंजन बनकर
दिन-रात समाये रहते हो 
अन्तर में कर वसन्त सी गुदगुदी 
हृदय पात्र में कंवल खिलाये रहते हो
तुम बिन सपने अभि‌सिक्त करूं कैसे ,

सूख-सूख केश की वेणी सेज झरे  
निरर्थक अमृत-कलश अधर के
कैसे समझाऊँ प्रीत की रीत तुम्हें
लिख चार पंक्ति में पीर हृदय के
अतिरिक्त और जो व्यक्त करूँ कैसे

कितना और करूँ मनुहार काग की
कब आओगे ख़त लिखना
पगली पुरवा पवन बहे चंचल
कैसे रोकूं मन का अतिशय बहकना 
शेष अभिव्यक्ति व्यक्त करूँ कैसे ,

तूलिका ने रंग समेटा
मन का चित्रण अभी अधूरा
शब्द हठीले हो गए प्रियवर
रचूं किस रूप में वक्ष की पीड़ा
अनकही हृदय की व्यक्त करूं कैसे ।

भ्रान्तचित्त---बेखबर
सर्वाधिकार सुरक्षित
           शैल सिंह

गुरुवार, 2 अगस्त 2018

नशीली आंखों पर ग़ज़ल

        " नशीली आंखों पर ग़ज़ल "


नशीली आंखों के चर्चे सुना था बहुत
क़शिश ऐसी कि देख बेसबर हो गया
मदिरालय से बढ़ कर कमसिन नयन
कुछ सोचा ना था इश्क़ मगर हो गया  ,

झुक गयी  पलकें जो शर्म से आपकी
साक़ी सा छलका पैमाना तर हो गया
यूं लड़खड़ाने लगे बिन पिए ही कदम
मय सी आँखों का ऐसा असर हो गया ,

आपके शोख़ हया के शोख़ अंदाज़ ही
ज़ुल्म ढाये कि ज़ख़्म-ए-ज़िगर हो गया
इस अदा की रज़ा क्या कह भी दीजिए
जिसपे दिल मेहरबां इस क़दर हो गया ,

समन्दर हैं दरिया या तेरे चश्म मयक़दा
था ना मयकश मैं उन्मत्त मगर हो गया
मस्त आँखों का आशिक़  बना ही दिया
इतना बोलतीं हैं वाकिफ़ शहर हो गया ,

गुलाब की पांखुरी सा टहक लाल अधर
क़ातिल मुस्कान मदहोश अगर हो गया 
जाने बेगुनाह दिल का होगा अंज़ाम क्या 
आँंखें संवाद कीं दहर को खबर हो गया ,

हब्शी आँखें लूटीं दिल का चैना औ सुकूँ 
लुटा आशनाई में क़रार मैं बेघर हो गया
ज्यूँ बंद करूँ आँखें आतीं तुम ख़्वाबों में         
बेतरह रतजगा में भोर का पहर हो गया ।

मयकदा--शराब पीने का स्थान
मयकश--शराबी ।

  शैल सिंह


शनिवार, 28 जुलाई 2018

कविता, विरह श्रृंगार पर, '' किस प्रवास भूले सुधि तुम मेरी प्रिये ''

कविता,  विरह श्रृंगार पर,

 '' किस प्रवास भूले सुधि तुम मेरी प्रिये ''

पवन के प्रवाह से पट खुले यूँ द्वार के
झट मैं चौख़ट पे आकर खड़ी हो गई
बढ़ गईं बेतहाशा कलेजे की धड़कनें 
निगोड़ी बावली पांव की कड़ी हो गई ,

हर ख़टक तेरी आहट का आभास दे
तुम आये लगा वहम भी छली हो गई
जो पथ निहारा किये बावरे नित नयन 
आस की निराश झट वह घड़ी हो गई ,

उर में उठते हिलोर की तरंगें भांप के 
चपल पछुवा छिनाल चुलबुली हो गई 
किस प्रवास भूले सुधि  तुम मेरी प्रिये
घर पता नहीं या अन्जान गली हो गई ,

गंध गजरे की खोई दमक श्रृंगार की
आँखें कजरारी मेंह की झड़ी हो गईं 
दृग जला दीप सा तन जली बाती सी
नैनों में अकाल नींद की लड़ी हो गई ,

हूक हिय में उठे कुंके वनप्रिया कहीं   
तृषा चातक सी और मनचली हो गई
सुन कानन में पी-पी पपीहा की पीक     
आयी मधुयामिनी याद पगली हो गई ,  

मन का हंसा विकल है दरश को तेरे
विरह में अधीर देह अधजली हो गई
प्रीत की धूप से सोख लेते सिक्त मन
खाक़ कचनार की शैल कली हो गई ,

करें अभिसार नित्य करवटें पीर संग
बही सर्द हवा सुधि फुलझड़ी हो गईं 
जी लगाने के लाखों  जतन कर लिये
यादें राह रोक रास्ते पर खड़ी हो गईं । 

प्रवाह--झोंका,   चपल-चंचल 
कानन--वन,जंगल, वनप्रिया--कोयल
मधुयामिनी--वरवधू के प्रथम मिलन की रात ,

शैल सिंह
सर्वाधिकार सुरक्षित 

शुक्रवार, 13 जुलाई 2018

नारी व्यथा पर कविता

नारी व्यथा पर कविता--
हे ईश ! मेरी मृगतृष्णा मिटा दो,


थक गई हूँ विषम भार ढोते-ढोते 
ज़िम्मेदारियां जो कांधे पर रखे तुम,
पूँजी सौंप तुम्हें उन कर्तव्यों की 
अब मुक्त होना चाहती हूँ ,
कह रहा मन खिन्न हो जो 
उस व्यथा का जरा संज्ञान लो,
खो चुकी सर्वस्व निज का 
तमाम रिश्तों के जंजाल में,
बेटी,मां,बहन,भार्या,बहू से  
खुद को परित्यक्त कर , 
इन संबोधनों से रिक्त होना चाहती हूँ ,
कुलटा,बेशरम,चरित्रहीन,पतिता 
की उपाधि का विभूषण ,
जो ठप्पा कंचन कामिनी पर 
तुम्हें उदारता से सहृदय दान कर  
उन्मुक्त होना चाहती हूँ,
मेरे त्याग ने लूटा मुझे 
मेरी करूणा ने किया छिन्न-भिन्न,
की ममता की धरा लज्जित मुझे 
वात्सल्य ने निचोड़ा बहुत,
बीच चौराहे पर हुई तार-तार
मुझे मेरे आँचल ने किया नंगा धिक् 
आत्मबल मृतप्राय सा 
नाज़ुक पंखुरी से घायल हुई,
अब नहीं कोमल भावनाओं में 
पुनः संलिप्त होना चाहती हूँ,
ना ही अब देवी रही मैं
ना ही चण्डी, दुर्गा,भवानी,
तेरी संरचना ने कर निढाल मुझको
वहशियों का निवाला बनाया,
कद्र नहींं तेरे सुन्दर अनुकृति की 
जब इस नश्वर, विभत्स संसार में,
ढंक सकती नहीं लाज अपनी
जब जन्मदात्री ही लुट रही बाजार में,
तेरी कलाकृति और तूलिका ने
पूरी जिन्दगी दोज़ख किया,
अबोध सी मुस्कान चाहती अब
तेरा चुटकी भर स्नेह पा,
जब कुंदन सा अपरूप गढ़ा  
तो अपराजेय भी बनाते ,
सदा दपदपाती ही रहूँ
सबल लौह अवयव ही बनाते ,
आज पिंजर की कनक तीलियों का 
भ्रामक मोहबन्धन छोड़कर,
बस तेरे विस्तृत गगन का एक कोना 
पा तृप्त होना चाहती हूँ ।

                       शैल सिंह

सर्वाधिकार सुरक्षित 



शुक्रवार, 29 जून 2018

गजल " पीछा करेंगी तेरा ताउम्र बेजुबां परछाईयां मेरी "

पीछा करेंगी तेरा ताउम्र बेजुबां परछाईयां मेरी


मुझमें ख़ामियां ढूंढ़ते-ढूंढ़ते
भूल गए तुम मेहरबानियां मेरी,

वक़्त बदला जरूर बदली नहीं मैं
कब मिटा पाये तुम निशानियां मेरी,

सुना है चर्चे जुबान पर सबके आज भी 
सुनाते बड़े चाव से हो तुम कहानियां मेरी,

इतना आसां नहीं भूल जाना इस नाचीज़ को 
पीछा करेंगी तेरा ताउम्र बेज़ुबां परछाईयां मेरी,

चांँदनी रात में जब होगे तनहा छत की मुंडेर पर
तड़प कर रह जाओगे आयेंगी याद अंगड़ाईयां मेरी,

खुला रखना गुजरे वक़्त के यादों की सारी खिड़कियां
बेआवाज़ देंगी दस्तक़ क्यूँकि बेवफ़ा नहीं तन्हाईयां मेरी,

वक़्त औ हालात लेकर चले थे साथ,दिल पर हुकूमत करने
मापे न हद मेरे चाहत की,उर में उतर उर की गहराईयां मेरी,

तकेंगे दरों-दीवार तुझे अजनवी की तरह मुझसे बिछड़ने के बाद
संजीदा हो बयां करना बेबाक़,चंद अल्फ़ाज़ में सही अच्छाईयां मेरी।

                                                                शैल सिंह



गुरुवार, 28 जून 2018

kavita '' एक सैनिक की चिट्ठी माँ के नाम ''

एक सैनिक की चिट्ठी माँ के नाम 

ख़त के मजमून क्या हैं
पढ़ने की स्थिति में होते नहीं
धैर्य का पुलिन तोड़ बहा मत करो
इस तरह खत माँ लिखा मत करो,

टपकी हुई बूंदें,छितरी हुई स्याही
बिखरे हुए शब्द अस्पष्ट 
कातरता से भींगे सिमसिम से पन्ने
माँ एक भी हर्फ़ पढ़ ना सकूं
इस तरह विक्षिप्त हो जाता हूं माँ 
वात्सल्य से सींचा,भावनाओं से भींगा
अहसासों में पिरोया,जज्बातों से गीला
अबसे सादा कागज लिफाफे में भर भेजना
तेरीे हर अभिव्यक्तियां महसूस कर लूंगा माँ ।

तेरी नसीहतों का पालन करता हुआ
मुस्तैदी से ड्यूटी निभाता हूँ माँ
तेरे स्नेहिल हाथों का निवाला महसूस कर
रूखा सूखा कुछ भी निगल लेता हूँ माँ 
मुंह पोंछ लेता हूं आभास कर तेरे आंचल का छोर
सीवान,बियाबान जंगल में भी
खुले आसमान तले सर्दी-गर्मी में भी
कहीं भी सो लेता हूं,नरम गलीचा समझ
तेरे हाथों की थपकियों का कर अहसास माँ ।

इस तरह आद्र होकर मत हाल पूछा करो
खत का स्वरूप देख आंदोलित हो जाता हूँ मांँ
गडमड हो जाते हैं हर्फ़ आंसूओं के तालाब में
आड़ी-तिरछी लगतीं तहरीर की हर पंक्तियां
बयां करते हैं ख़त हाल तेरा जो माँ 
बिखर जाऊंगा मैं हौसला मुझको दो
देश की रक्षा लिए है शत्रुओं का संहार करना
लम्बी उमर की रब से दुआ बस करो
इस तरह खत माँ लिखा मत करो।

ऋण तेरे दूध का आया अदा करने माँ 
उस अनमोल दूध की दुहाई ना देना
कहीं विचलित ना हो जाऊँ महान कर्म पथ से
देश पर मंडरा रहे घातों के बादल घेनेरे
चौकसी में तैनात दिन-रात सीमाओं पर
प्राण रखकर हथेली पर हम लाल तेरे
शत्रुओं का विनाश करने की मन में है ठानी
ऐसी रवानी पे माँ फख्र किया बस करो
इस तरह ख़त माँ लिखा मत करो।

                                       शैल सिंह 

शुक्रवार, 25 मई 2018

एक व्यंगात्मक कविता '' पाक भी आंख तरेरेगा बन्धु ''

एक व्यंग्यात्मक कविता 
'' पाक भी आंख तरेरेगा बन्धु ''


चलो देखें अजूबा प्रेमानुराग
चालू भतीजे,फूफीजान का
फूफी बैरी से हाथ मिला भूलीं
किस्सा गेस्टहाऊस अपमान का ,

इक मंच साझा कर बहरूपिये सारे
नौटंकी करने को मजबूर हुए
देख मोदी जी का बजता डंका
बौखलाहट में भस्मासुर हुए
इसी विरोध के सुर,राग,लहर में
मोदी जी देश-विदेश मशहूर हुए
मोदी रोको एक ही मकसद
इस गठबंधन के अभियान का
बेच जमीर कुकुरमुत्तों ने
खो दी इज्ज़त मान-सम्मान का ।

शामिल तीन खातूनें भी पाखंड में
माया,ममता,इटली वाली हैं 
देखें कितना दिन निभता है
दोस्ती भी देशद्रोहियों की जाली है
मोदी जी की शोहरत का भय
इन अमलों को डंसता खाली है
येचुरी,केजरी,चाराचोर सपूत,नायडू
आदि का मिलन जमीं आसमान का
देख जोकरपन पप्पू संग भांडों की
आ रही हँसी सच में आप मान का ।

खड़ी हुईं खिलाफ़त बीजेपी के 
एक साथ गद्दारों की टोलियां
साम्प्रदायिकता का ठप्पा जड़जड़
दाग़ें अनर्गल प्रचार की गोलियां
इस सियासत में चर्च भी कूदा
छेदतीं भ्रष्ट जमातों की बोलियां
देखो मंडराता हिंदूत्व पर खतरा
सवाल हिन्दुस्तान के स्वाभिमान का
जागो देश की उन्नींदी जनता जागो
मत सोओ ऐसी नींद इत्मिनान का ।

ग़र देश को अपने शीर्ष पर देखना
छोड़ना होगा आपसी मतभेद की बातें
किसी के बरगलाने में गर आओगे
सहना होगा घातक गद्दारों की घातें
पाक भी आंख तरेरेगा बन्धु 
छोटी सी भूल की कीमत पर आके
है संघ को भी लेकर साथ में चलना
जो मेरूदंड हिन्दूत्व की आन का
इक विनती समर्थकों सन उन्नीस में
रखना मान नरेन्द्र मोदी की शान का ।

शैल सिंह
सर्वाधिकार सुरक्षित
                         

सोमवार, 14 मई 2018

गजल रूपी कविता

ऐ मेरे ख़ुदा--

जब-जब दस्तक दीं उम्मीदों पर आहटें
वज्र आकर गिरे तब-तब उन आहटों पर ,

घात बहुत सहीं मेरी मासूम चाहतें मग़र  
दुआ दे मुहर लगा दी तूने मेरी चाहतों पर ,

अति विश्वासों ने छल मुझे आहत किया
कृपा कर मरहम लगा दी तूने आहतों पर ,

हो गईं नाक़ाम साज़िशें मेरे क़ातिलों की 
रब ना करना रहम इन ग़द्दार क़ातिलों पर ,

मुद्दतों बाद मिली आज मुझसे है मन्जिल 
ऐ ख़ुदा करना करम बस मेरी इबादतों पर ।

                            
                               शैल सिंह


रविवार, 8 अप्रैल 2018

ग़ज़ल। " कैसे मच गई गदर हवाओं में "

कैसे मच गई ग़दर हवाओं में 

कैसे मच गई ग़दर हवाओं में 
महकी ख़ुश्बू जो थी चमन के लिए। 

बिस्तर की सलवटों से पूछिए
गुजारी है रात किस तरह
शब-ए-हिज्राँ क्यूँ टपके शबनम
जो तकिया नम हुआ है इस तरह,

इक बार देख जाईए
दिलक़श तन्हाईयों का मंज़र 
बेआबरू सा कर दिये हैं
उमड़ के यादों का समंदर,

कैसे बहलाने छत पर जाऊं 
ले ख़्वाबों का बवण्डर 
कर देगी और दिल को छलनी
चाँदनी की गहनाईयों का खंजर, 

बेक़रार सब्र,अब्र सी आँखें 
तमन्ना बस दीदार की है
अक्स उभरते हैं ख़यालों में 
सहना बेरूखी ना प्यार की है,

कशमकश में ढल ना जाए उम्र  
छोड़िए नाराजगी है किस लिए   
खाई कसम वफ़ा की क्यूँ
हाथ थाम हर जनम के लिए,

पट खोला घूँघट का ज्यों कली ने
मिले नयन क्यूँ दो इक वदन के लिए 
दिल में गाड़ बीज प्रीत का 
छोड़ा तन्हा दहर में क्यूँ ग़म के लिए 


कैसे मच गई ग़दर हवाओं में 
महकी ख़ुश्बू जो थी चमन के लिए ।

                         शैल सिंह



शनिवार, 31 मार्च 2018

" कमर कस लो कोई बाकी कसर ना रहे "

आँधियों का चट्टानों  पर असर नहीं होता
हवाओं का जड़-तनों पर सफ़र नहीं होता
चाहे जितनी चाल चल लें ये बागी दिशाएं
हर एक टहनियां कहर  से हिला लें बलाएं
सुगंध फैली ख़िज़ाँ में भी है जिस फूल की
उस महक पर बलाओं का बसर नहीं होता ।

तपाकर अग्नि में निखारे हुए स्वर्ण जैसा
गिन्नी,गिलट में असली चमक नहीं होता
जौहरी होते ग़र सभी हीरे की परख लिए
तो लहरों पर तूफ़ानों का डगर नहीं होता
कमर कस लेना कोई बाकी कसर ना रहे
भटके मुसाफ़िर का कोई शहर नहीं होता ।

ठोकरों ने जब स्वर्णिम अवसर है दिया
तो बांट रहे हो ज़हन को क्यों हिस्सों में
चमन सर्वोपरि बन्धु हमारे, तुम्हारे लिए
सोचो कि हरदम सुन्दर पहर नहीं होता
चलो,गूनें,मथें लें संकल्प सदा के लिए
गद्दारों से घातक कोई जहर नहीं होता ।

                                 शैल सिंह

गुरुवार, 8 मार्च 2018

महिला दिवस पर मेरी रचना

सदियों पुरानी तोड़ रूढ़ियां
आजाद किया है खुद को,
परम्पराओं की तोड़ बेड़ियां,
कुशल सफर क्षितिज तक का
दिखा दिया है जग को,
देखो हमको अबला कहने वालों,
सबल,सशक्त बना लिया है खुद को,
रोक नहीं सकतीं हमको
अब श्रृंगार की जंजीरें,
देखो हर कालम में नारी की
उभरती हुई सफल तस्वीरें
आंचल में हमारे जन्नत है
हम ममता की मूरत हैं
हमसे ही है सृष्टि सारी
रची हमने ये दुनिया खूबसूरत है।
                शैल सिंह

रविवार, 4 मार्च 2018

होली पर कविता--रोम-रोम हुए टेसू पलाश

होली पर कविता--रोम-रोम हुए टेसू पलाश 


आया होली का त्यौहार
बरसे रंगों की फुहार
बहे ठगिनी बयार बड़े शान से
फागुन बरसाए गुलाल आसमान से ,

ग्वालबाल संग सांवरे
मधुर बांसुरी बजावें
नाचे ग्वालिनें अलमस्त
राधा बावरी हो गावें

लेकर ढोलक,झांझ,मंजीरे
चले पीकर भंग जमुना के तीरे
करें विश्राम कदम की छईंया
जहाँ रंभाती गोकुल की गईंया ,

अल्हड़ सी करते मौज मस्ती
मचाते हुड़दंग हुरियारों की
चली बस्ती-बस्ती,गली-गली 
टोली रसिया गाते हुए यारों की ,

बैर,भाव,द्वेष भूला कर सब
दूर मन के कर मलाल
रंग-बिरंग प्रीत के रंगों से
गालों मलें अबीर गुलाल ,

करें हास-परिहास सब सखियां 
गहि-गहि मारें ऊपर पिचकारी
उन्मत्त,उमंगों में डूब भिगोतीं 
चोली,अंगिया,अंग मतवारी ,

हुआ नगर-डगर सतरंगी
गढ़-गढ़ का आलम रक्ताभ
मस्ती,रोमांच और उत्साह
अभिभूत करे अल्हड़ अंदाज ,

बहका मन वैरागी फागुन में 
संयम के टूटे सारे प्रतिबन्ध
रोम-रोम हुए टेसू पलाश
जोड़ वसन्ती हवा संग अनुबंध  ,

कहें बुरा न मानो होली है बुढ़वे 
मुँख दबा गिलौरी,नैनों के बान से
देख घर,आंगन,चौपाल में रौनक
झूमें धरती,फिजां अभिमान से ।

                       शैल सिंह


शुक्रवार, 2 मार्च 2018

गुलजार हुआ है आंँगन

गुलजार हुआ है आंँगन 


मेरी रौशन हुई है देहरी
गुलजार हुआ है आंँगन
खिला नन्हा सुकुमार सुकोमल
इक फूल है घर के प्रांगण।

कितना सुखद ये पल है
लगे बेटी का लौटा शैशव है
महके नवागंतुक से फुलवारी
मिली सौगात हृदय को प्यारी।

कानों में मिश्री घोलें 
नन्हें की किलकारी
मासूम से भोले मुखड़े की
मुस्कान लगे अति न्यारी
भींच लूं भर के अंक में अपने
भरि-भरि नैन निहारी ।

मेरी रौशन हुई है देहरी
गुलजार हुआ है आंँगन
खिला नन्हा सुकुमार सुकोमल
इक फूल है घर के प्रांगण। 

नाना लेते मुन्ने की बलैंयां
बलि-बलि जाऊं मैं बलिहारी
मामा मगन हो मंगल गाएं
गूंज रही सोहर से ओसारी
नानी बटुवा खोल उड़ावें
गावें गोतिनें मंगलचारी ।

मेरी रौशन हुई है देहरी
गुलजार हुआ है आंँगन
खिला नन्हा सुकुमार सुकोमल
इक फूल है घर के प्रांगण ।

फूले न समाएं दादाजी
झूमें अति प्रसन्न हो दादी 
ताऊ-ताई बजवाएं बधाई
झुलावें झूलना दोनों भाई
नेग लुटायें फूफा पाहुने
बुआ हुलसें कजरा लगाई ।

मेरी रौशन हुई है देहरी
गुलजार हुआ है आंँगन
खिला नन्हा सुकुमार सुकोमल
इक फूल है घर के प्रांगण ।

फुर्र से वक़्त गुजर जाता
मुन्ने की मेहमाननवाजी में
बाँध लिया है मोहपाश में 
नवजात से शिशु पाजी ने
चाकरी में उसके दिन कट जाता
सोता जागता अपनी राजी में ।

मेरी रौशन हुई है देहरी
गुलजार हुआ है आंँगन
खिला नन्हा सुकुमार सुकोमल
इक फूल है घर के प्रांगण ।

मन मुराद हो गई पूरी
पाकर चाँद सा टुकड़ा
नजर दिठौना लगा ललाट मैं
निरखूँ अपलक मुखड़ा 
बाल सुलभ हरकतें ललन की
देख काफ़ूर हो जाता दुखड़ा ।

मेरी रौशन हुई है देहरी।
गुलजार हुआ है आंँगन
खिला नन्हा सुकुमार सुकोमल
इक फूल है घर के प्रांगण ।

                    शैल सिंह

बुधवार, 28 फ़रवरी 2018

कविता--शहीद की विधवा की होली

शहीद की विधवा की होली


देश लिए प्राण न्यौछावर कर 
पिया खून की होली खेल गये ,

घाव लगी गम्भीर हृदय पर 
कुदरत ने दी ऐसी पीर है
कैसे सजे तन रंग फागुन का 
हरे ताजे नयन के नीर हैं ,

चाव नहीं कोई भाव नहीं
ना कोई खुशी रंगोत्सव की
अभी सूखे नहीं आंचल गीले
फाग फीके होली महोत्सव की ,

कैसे भाये साज होरी का
बुझी नहीं राख अभी सजन की
सबकी शुभ-शुभ होली होगी 
मैं भई दुखिया जनम-जनम की ,

मांग हुई सूनी रोली बिन
किन संग खेलूं होली उन बिन
धूप अनुराग की चली गई
ख़ुशी जीवन की छली गईं ,

किनके गाल गुलाल मलूं मैं 
सुनसान लगे विरान घर
हँसि,ठिठोली वो संग ले गये  
दे वेदनाओं का दुःखान्त प्रहर। 

                       शैल सिंह

मंगलवार, 6 फ़रवरी 2018

शहीदों पर कविता-- सबर का हमारे वो इम्तहान ले रहे हैं

शहीदों पर कविता-- 

सबर का हमारे वो इम्तहान ले रहे हैं 

ख़त में लिखा था घर आने का
मंसूबें गिनाया था छुट्टियां मनाने का
मन पसंद की सूची व्यंजन पकवान की
बनी रह गई,खबर आई प्रिये के बलिदान की।

मैं पलक पांवड़े थी विछाई डगर पर
संग लाव-लश्कर तिरंगा तन ओढ़कर
दर आई अर्थी पिया की लुटा संसार मेरा 
हुई कल अभी बात थी अवाक़ इस खबर पर।

सबर का हमारे वो इम्तहान ले रहे हैं
हम हैं कि सबर पे सबर किये जा रहे हैं
जिस दिन ठनेगी सबर से सबर की हमारी
कहर ढायेंगे सबर ही सबर जो किये जा रहे हैं।

तुम्हें धूर्तों है आख़री चेतावनी हमारी  
हम अतिशय तुम्हारी जो सहे जा रहे हैं
फिर देखना तुम्हारी तुम तबाही का मंजर
भड़काया आज ज्वार जो कबसे सहे जा रहे हैं।

मूर्खों समझो ना सुस्त जवालामुखी है
त्यागेंगे अहिंसा के पाठ जो पढ़े जा रहे हैं
असहनीय कर दीं हैं करतूतें अब शांत रहना
कैसे शत्रुओं तुम्हें बेंधना तिलिस्म गढ़े जा रहे हैं।

वतन के रखवाले हैं हमें प्राण प्यारे 
तन तिरंगा लपेटे रतन ये चले जा रहे हैं
देशवासियों तुम्हें सौगन्ध है वन्देमातरम् की
इंतक़ाम लेना ज़रुर इनसे योद्धा कहे जा रहे हैं।

                                          शैल सिंह

'' ग़ज़ल '' '' बची अबभी मुझमें शराफ़त बहुत है ''

बची अबभी मुझमें शराफ़त बहुत है 

मिलीं नेकी करने के बदले हैं रुसवाईयां  
पेश अज़नबी से हैं आते मन आहत बहुत है।

वक़्त जाया क्यों करना कभी बेग़ैरतों पर
सख़्त मुझसे ही मुझको भी हिदायत बहुत है।

कैसे एहसान फ़रामोश होते मौका परस्त
पेश अज़नबी से हैं आते मन आहत बहुत है।

जिनके लिए छोड़ सबको आज़ तन्हा हुए
ख़ेद,वही करते अब मुझसे कवायद बहुत हैं।

परख से मिली कुछ सीख ग़र मेरी आदतों
ख़ुद लिए करना वक़्त की हिफ़ाज़त बहुत है।

मुश्क़िल घड़ी में सदा साथ जिनके खड़े थे
वही स्वार्थसिद्ध होते करते सियासत बहुत हैं।

करें तौहीन,मानभंग जो भलमनसाहत की
ऐसे ही ख़ुदग़र्ज़ों से मुझको हिक़ारत बहुत है।

ज़रुरतमंदों को अब थोड़ा अनदेखा करना
चूक होती जरा भी मिलती ज़लालत बहुत है।

बह जज़्बातों की रौ में ग़म बाँटे थे जिनके
बदले उनके ही सुर मुझको मलानत बहुत है। 

अब अज़नबी जैसे हो गए हम उनके लिए 
भीड़ संग क्या चले आ गई नफ़ासत बहुत है।

जज़्ब दामन में किये जिनके हर राज़ हम   
वे ही दिखाते नये यारों संग नज़ाक़त बहुत हैं।

चोट खाकर सीख शैल अपनी कद्र करना
तवज्ज़ो देने में लोग करते किफ़ायत बहुत हैं।

गर चाहूँ तो कर दूँ सरेराह नंगा उनको मैं 
बची मगर  अभी भी मुझमें  शराफ़त बहुत है।


                                       शैल सिंह

शनिवार, 3 फ़रवरी 2018

'' गजल '' ऐसा मय पिला गईं दो आँखें चलते-चलते,

ऐसा मय पिला गईं दो आँखें चलते-चलते


शेर..
हर्फ़ उल्फ़त के पढ़ लेना ग़ौर से
लफ्जों की पोशाक पेन्ही हैं ऑंखें
अल्फ़ाज़ भले रहते हों मौन मग़र  
हृदय की आवाज़ होती हैं आँखें ।

अफ़साने दिल के सुना देते आँखों-आँखों
ज़ुबां कंपकंपा गयीं जो बात कहते-कहते,

बेसाख़्ता मिलीं बज़्म में जो निग़ाहें हमारी
कुछ तो बुदबुदा गईं पलकें झुकते-झुकते,

सूनी इक दूजे के धड़कनों की नाद हमने 
जाने क्यूँ लड़खड़ा गये क़दम बढ़ते-बढ़ते,

मस्ती सांसों में छाई मुस्कराये है ज़िन्दगी
ऐसा मय पिला गईं दो आँखें चलते-चलते,

सजा रखी रात-दिन ख़्यालों की महफ़िल
दबे पांव आता है कोई रोज महके-महके,

मढ़ा कर नयन के फ़्रेम में तस्वीर उनकी
लुत्फ़ खूब उठा रही हूँ ख़्वाब बुनते-बुनते,

उकेरुं रोज रेखाचित्र दिल के कैनवास पे
क्या-क्या सोचूँ तूलिका से रंग भरते-भरते,

डर न होता ज़माने का चाहत के दरमियाँ
खोल रख देता ग्रन्थ यह दिल हँसते-हँसते।

                                   शैल सिंह


शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2018

वैयक्तिक द्वेष से किसी की मेधा को चुनौती देने वालों पर कविता --

वैयक्तिक द्वेष से किसी की मेधा को चुनौती देने वालों पर कविता --


जिसने सोच लिया परिस्थितियाँ अनुकूल बनाने की
बाधाएं पुल बना देतीं उसे मन्जिल तक पहुँचाने की,

जिसकी संकल्पनाएं बिछातीं लक्ष्य का गलीचा सदा
वह बार-बार की पराजयों से हताश नहीं होता ख़ुदा, 

जिसके नज़रिये में जीत हासिल करने का जज़्बा हो
सामर्थ्यवान साथ ईमानदार निर्णायक का कुनबा हो,

इच्छा शक्ति सकारात्मकता को निराश नहीं करतीं
असफलता जीवन में प्रयास के नित नया रंग भरतीं,

जिसने हार को चुनौती दे दिया हराकर पछाड़ने की
उसकी जीत सुनिश्चित है विजेता बनकर उभरने की,

दांव खेलने वाले चाहे जितनी,जैसी विसात बिछा लें 
हथेली में खींची लकीरें चाहे जितने भी बार मिटा लें,

इक दिन ईश्वर लिखी रचना का स्वयं ही संज्ञान लेंगे
जिसलिए तराशे थे उसी मुक़ाम पर पहुँचा दम लेंगे,

विधि पर ग्रहण लगा कर विश्वास से छल करने वाले
वैयक्तिक द्वेष से किसी के जीवनवृत्त से खेलने वाले

देख क़ायनात पुष्प वर्षाती ख़ुद फलित अरमानों पर
दुश्मन भी अचंभित दाता के अकस्मात् वरदानों पर ।

                                            शैल सिंह

बुधवार, 31 जनवरी 2018

वसंत पर कविता " मन पांखी हो देख आवारा "


 " मन पांखी हो देख आवारा "


कोयल कूंके पंचम सुर में
नवविकसित कलियाँ लें अंगड़ाई
भृंगों का गुंजन उपवन गूंजे
बहुरंगी तितलियाँ थिरकें अमराई ,

तन-मन को दें सुखानुभूति तरावट
घासों पर पड़ी ओस की बूंदें
वसंत के मादक सौंदर्य से
विरहिनियों की जाग उठी उम्मीदें ,

ऋतुराज पाहुन ने दर्शन देकर
अद्द्भुत उत्साह,आनन्द बढ़ाया है
वृक्षों की मर्मर ध्वनि से आह्लादित 
रोम-रोम वासंती वैभव भरमाया है ,

मन पांखी हो देख आवारा 
हर्षित क्रिड़ायें करते कानन की
झकझोरें सुरभित पवन देव
चहुंओर आगाज़ करायें फागुन की ,

तरूवर नव पल्लव पा हुलसें
डूबी हर्षोल्लास में दशों दिशाएं
स्नेहिल वसन्त अमृतरस घोलें
चहकें चहुंदिशा कलिकाएं ,

रमणीय लगे धरा का आँचल 
छवि नील गगन की न्यारी
मस्त पवन का झोंका भरता
मानस में रंग-विरंगी खुमारी ,

बूढ़ों,बच्चों,नौजवान युवकों के
रोआँ-रोआँ नवोत्कर्ष है छाया
होली का हुड़दंग चमन में
मधुमासी गंध अलौकिक भाया ,

पनघट पनिहारनें डगर निरेखें
छलिया ने कैसी प्रीत निभाई
परिणय का दो संदेशा फागुन
बेला सुमिलन की प्रितम से आई ।

                            शैल सिंह






शुक्रवार, 26 जनवरी 2018

वसंत ऋतु पर कविता '' शिरोमणि वसन्त ''

   '' शिरोमणि वसन्त ''


जन-मन में गुदगुदी प्रकृति में छाया हर्ष 
शीतल,मंद,सुगन्धित,समीर का पा स्पर्श ,

बीत गया ऋतु शिशिर,आई ऋतु वसन्ती
बड़ी सुहानी मनमोहक,लगे ऋतु वसन्ती ,
प्रकृति का उपहार ले,आयी ऋतु वसन्ती
मन करे मतवाला ये रूमानी ऋतु वसंती ,

फूले गेंदा,गुलाब,सूरजमुखी फूली सरसों
अमुवा के मञ्जर पर मुग्ध कुहुकिनी हरषे ,
कोयल कूके कुहू-कुहू गायें गुन-गुन भौंरे
मयूर नाचें मग्न,उड़तीं तितलियां ठौरे-ठौरे ,

गुलाबी मौसम में मस्ती भर दिए मधुमास
घोल दिए अमृतरस दिशा-दिशा ऋतुराज ,
भर दिए नथुने मधुमाती स्नेहिल सुगन्ध से
नव सिंगार कर इठलाती प्रकृति उद्दंड से ,

छजें टहनियां हरित पल्लव के परिधान में
धरा लगती नवोढ़ी दुल्हन धानी लिबास में ,
मखमली चादर लपेटे धरित्रि अंग-अंग पर
मानव मन मुग्ध झूमे वसन्त के सौन्दर्य पर ,

वृक्ष,लतायें और पुहुप सज-धज प्रफुल्ल हैं
भ्रमरे करें अठखेलियां पी मकरंद टुल्ल हैं,
प्रकृति पूरे यौवन पर डुबी हास-विलास में
चारों तरफ वसंतोत्सव मन रहे उल्लास में। 

                                    शैल सिंह

इश्क़ की दीवानगी

इश्क़ की दीवानगी 

दीवाना किया आशिक़ी ने
बेइंतहा प्यार में
तप रही है देह सारी
इश्क़ के बुख़ार में ,

बस में नहीं दिल जरा भी
होश नहीं ख़ुमार में
निग़ाहें टकटकी साधे रहें 
किसी के इंतज़ार में ,

ख़्वाब बुनते बीतते दिन
दिल लगे ना कारोबार में
आँखें इक झलक भी चार हों
खिल जाते दीदार के बहार में ,

वफ़ा भी करे ग़र बेवफ़ाई
आनन्द आए तक़रार में
मनाना,रूठना शिकवे,गीले
रोज मनुहार करते प्यार में ,

भय बदनाम होने का भी
लब कर देता ज़िक्र बेक़रार में
गढ़ते तारीफ़ों के क़लमें सदा
इशारों से बेनाम के बाज़ार में ,

इश्क़ में मौजे हैं,तूफां है लेकिन
इश्क़ इक सजा भी है पठार में
दिल ये नादान जानता ही नहीं
काँच ही काँच प्यार के दयार में ,

फासला नहीं फूलों,काँटों में
अड़चनें मोहब्बतों के ज्वार में
मुरादें पूरी हो मर्ज़ी ख़ुदा की
बेतहाशा ग़म भी है इक़रार में।

                          शैल सिंह






शनिवार, 20 जनवरी 2018

दैनिक जीवन में प्रयुक्त होने वाले विलुप्त हो गये जो शब्द

'' जिन शब्दों को सिरे से भूल गए ''


थपुवा,नरिया,खपड़ा,मड़ई,टाठी,भीत 
गोईंठा,कंडा,कर्सी,इन्हन,चिपरी,छान्हीं
गोहरऊला,कोल्हुवाड़ा,खरिहान,मचान 
ये सब उच्चारण जाने खो गए कहाँ ।

सनई,संठा,खरहरा,झंगड़ा,हरेट्ठा,सोटा 
छिट्टा,खाँची,फरुहा,बरदउल,भुसहुला 
घूर,कतवार,पण्डोहा,बढ़नी,सेनहना, 
ये सब उच्चारण जाने खो गए कहाँ ।

कुरुई,मउनी,डाली,सूप,ओसउनी
माठा,कचरस,होरहा,खरवन,लउनी
दाना,चबैना,कुचिला,भुकूनी,भरसांय
ये सब उच्चारण जाने खो गए कहाँ ।

ढील,उड़ुस,मस,लीख,चिल्लर,किलनी
चइला,फल्ठा,लवना,खोईया,खुखूड़ी 
रेह,रहंट,मोठ,हेंगीं,ढेकुल,लेहड़,घाम 
ये सब उच्चारण जाने खो गए कहाँ ।

कड़िया,ढेकी,पहरूवा,ओखरी,मूसर
जांता,चाकी,सील,लोढ़ा,थुन्ही,कोतर 
गोड़,मूड़ी,केहुनी,कर्हियांय,कपार 
ये सब उच्चारण जाने खो गए कहाँ ।

बीड़ो,बोरसी,धुईंहर,कउड़ा,भुकुरी 
पहल,पोरा,कोठिला,शुज्जा,टेकुरी
कन,भूसी,चूनी,चोकर,जुठहड़,पिसान
ये सब उच्चारण जाने खो गए कहाँ ।

कोठा,ताखा,भड़सर,दिवट,भड़ेहरी
टोड़ा,मुड़ेरा,ओरी,करनी,धरन,बल्ली
गदबेला,मकुनी,डुग्गी,सतुवान,नेवान 
ये सब उच्चारण जाने खो गए कहाँ ।

भरूका,कोहा,मेटी,कुण्डा,ढकनी
दीया,परई,कंहतरी,ठिल्ला,मटकी
शईल,जाबा,जुवाठ,कोईड़ार,मचान
ये सब उच्चारण जाने खो गए कहाँ ।

जाने और भी कितने ही ऐसे शब्द हैं
जो प्रयुक्त होते थे अब छोड़ दिए हैं।

                             शैल सिंह

बुधवार, 3 जनवरी 2018

'' चार जवानों की शहादत पर कविता ''

 चार जवानों की शहादत पर कविता 

जाते-जाते साल के आखिरी दिन सन सत्रह
दे गया ज़ख्म गहरा,कैसे मनाएं साल अट्ठरह ,
दर किसी के आयी सज अर्थी कोई जश्र में डूबा 
देश के लोगों का जश्न मनाना लगे बड़ा ही अजूबा ,
ऐसे ताजा तरीन ख़बर पे भी किसी ने नज़र न डाली
चार जवानों के शोक पर लोग कैसे मना रहे खुशहाली ।

मन बिल्कुल नहीं लगता नव वर्ष का जश्न मनाने में
सरहद पर हुए लाल शहीद देश की गरिमा बचाने में ,
बन्द ताबूत में ओढ़ तिरंगा कितनों के लाल आये हैं घर
जश्न मनाने वालों तुझपर भी तो इसका होता कोई असर ,
रो-रो तेरा भी होता बुरा हाल ग़र खुद का नयन सूजा होता
तब भी तुम जश्न मनाते क्या निज के घर का दीप बुझा होता ,
जिनकी मेंहदी,महावर,बिंदिया,सिन्दूर धुल दिए गये हैं पानी से
जिनके सुहाग ने दी शहादत देश लिए अपनी अनमोल क़ुर्बानी से ,
उन घरों में पसरे सन्नाटे,सूनी चौखट का दुःख तो आभास किये होते
आह ऐसी मर्मान्तक पीड़ा का ओ हृदयहीनों थोड़ा अहसास किये होते।

जिनके घरों में अर्थी भेज नए साल ने दी है दस्तक़ 
बलिदानियों पे संवेदनहीनों नवाना चाहिए था मस्तक , 
शत-शत नमन शहीदों,देश तुझे शोकातुर होना चाहिए
जिस घर में मातम का आलम,भान ग़म का होना चाहिए , 
जिनके बच्चे बिलख रहे हैं आज़ रो रहीं खा-खा पछाड़ें माँ
फट जाता सीना दहाड़ पर मूर्छित हो भार्या गिरती जहाँ-तहाँ ,
नव वर्ष पे दी सौग़ात जो पाक ने उसे ईश्वर कभी ना माफ़ करे
घातियों पे इतना बरपायें क़हर कि ताक़त की आंक के थाह डरे ,
पाक तेरा भी घोर हो अमङ्गल नव वर्ष में हम सबकी कामना यही
बुझाना तेरे हर घर का चराग़,करना नेस्तनाबूद है मनोकामना यही।


                                                                   शैल सिंह


बड़े गुमान से उड़ान मेरी,विद्वेषी लोग आंके थे ढहा सके ना शतरंज के बिसात बुलंद से ईरादे  ध्येय ने बदल दिया मुक़द्दर संघर्ष की स्याही से कद अंबर...