मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

हरियाई लगे है मुरझाई लता द्वार की

हरियाई लगे है मुरझाई लता द्वार की


कहां आया भटकता हुआ तूं अजनबी 
हूर का दीदार करने हीर की इस गली ।

तेरी निग़ाहों ने ऐसा क़तल क्यों किया
कि ज़िबह होते गए दिल के रुतबे मेरे
हाथ खड़े कर दिए रसूखी प्रहरी सभी 
टूटते गए इख़्तियार के सभी क़ब्ज़े मेरे ।

तुमने दीदा से दिल का हरफ़ पढ़ लिया
नाम अपने वसीयत ज़िगर की लिखाई
जादूई रंग भर दिया खाली कैनवास में
कि हाथ मैंने मोहब्बत की मेंहदी रचाई ।

कोई अक़्स देखे न चश्म में महबूब की
दुनिया से कटकर फ़र्लांग भरने लगी हूँ
जमीं पर चांद गगन से उत्तर आया लगे
तांत हसरतों के दिन-रात बुनने लगी हूँ ।

चुपके आके पवन कान कुछ कह गई
हरी लगने लगी मुरझाई लता द्वार की
भर लिया फाग का रंग ओढनी में सब
छू रहा अम्बर चरन पूछ पता प्यार की ।

ज़माने की परवाह पीछा ना करती रहे
तोड़ आई रिश्ते सभी पाषाणी नगर से
किस्मत की लकीरों पे दास्ताँ छोड़कर 
अस्त सूरज के पहले चली आई घर से ।

चोरी के अब तक पड़े हैं जालिम निशां
नकब सीने में आँखों से तूने लगवाई जो
देख वदन की उधेड़कर के चिन्गारियाँ
जिस्म की हांड़ियां अदहन खदकाई जो ।

जिन टहनियों पे तेरे नैनों की आरी चली
खैर-ख़ैरियत से बौर और पत्ते खिला दो
जमाने की तोहमतें समेट बांहों में सनम
चरमराती पसलियों की दुनिया बसा दो ।

                                    शैल सिंह




सोमवार, 21 दिसंबर 2015

माँ लौट आऊँगा जब भी दोगी सन्देश

माँ लौट आऊँगा जब भी दोगी सन्देश


संग ले गया वह घर की रौनक़ें सारी
बुढ़ापा संग सांय-सांय करे फूलवारी,

सावन भादों सी झर-झर बरसें आँखें
जबकि बरसात का मौसम बीत गया
सरहद पार बसे किसी और मुल्क़ जा
उन औलादों के विषय में क्या कहना ,

किस मोहपाश में बांध रखी फिरंगन
कि भूला गाँव,गली शहर अपना देश
आँखों में सपने भर जो कह गया था  
माँ आ जाऊंगा जब भी दोगी सन्देश ,

बूढ़ी हो गईं आँखें अब तो इंतजार कर
शिथिल पड़े उमड़ता ममता का सागर
जाने कब बाती गुल हो जाये दोनों की
हृदय के ख़्वाब सुनहरे रह जाएँ क़ातर 

पहले यदा कदा पाती भी आ जाती थी
अब तो वह कड़ी भी धीरे-धीरे टूट गई
जाने कब आएंगे परदेश को जाने वाले
सांसों की डोर शनैः-शनैः अब छूट रही

अपनी मंज़िल छोड़ मंज़िल तलाशने
निकला था घर से अपनों से दूर बहुत
माँ-बापू का कांधा भूल खो गया कहाँ
कभी न मुड़कर देखा हृदय शूल बहुत ,

जमीन,ज़ायदाद,मकान जिनके लिए,
किये,यत्न से तृण-तृण पाई-पाई जोड़
उस घर का देखो उजड़ा वीराना मंज़र
जहाँ सुनाई दे उल्लू,चमगादड़ के शोर ,

                                    

बुधवार, 9 दिसंबर 2015

नाता तुड़ा दिया नईहर के सारे

अभी-अभी बेटी की शादी करके लौटी हूँ बेटी विदा करने का उद्वेलन क्या होता है बेटी वाला ही जान सकता है ,मैं भी अपने बाबूजी की बेटी थी ,अपने प्रियजनों से जुदा होते समय बेटी के मन में क्या आन्दोलन होता है ,वही हृदयस्पर्शी भाव मेरी कविता में व्यक्त है ,यह  हर बेटी की पीड़ा का असह्य व्याख्यान है ।


पिता ने लाड़ की नदी बहाई
माँ ने ममता का सागर
भैया के स्नेहिल बाँहों  की
बड़ी हुई ओढ़कर चादर ,

परम्परा के निर्वहन में, मैं
रीति की भेंट चढ़ा दी जाऊँगी
कोई घोड़ी चढ़कर आएगा
डोली में बिठा दी जाऊँगी ,

गाजे-बाजे साथ बाराती
वर आया धूमधाम मेरे द्वारे
चुटकी भर सिंदूर मांग भर
नाता तुड़ा दिया नईहर के सारे,

फूट-फूट रोई माँ मेरी
पिता ने रुँधे गले दी ढाढ़स
भैया विलख दिए कांधा
सौंप दी अपनी पूँजी पारस ,

आँसुओं की छछनी बाढ़ भी
जुदा करने से रोक नहीं पाई
सर पे डाल ओहार चूनर की
कर दी गई मेरी विदाई ,

जब से जनम लिया है
सुनती आई पराई धन हूँ
ये कैसी है विडम्बना ,मैं
तुलसी और किसी आँगन हूँ ,

स्वयं लहू से सींचा माँ ने
पिता ने धन दौलत था समझा
भैया ने नाज औ नखरे उठाये
फिर क्यों गैर की ड्योढ़ी बख़्शा ,

सब कहते शुभ घड़ी आई
शुभ लगन तेरा है आया
मेरे दुःख का दंश है क्या
सर,चन्द घड़ी बस सबका साया ,

टार ओहार जब निरखूँ
कोई पीहर का नहीं दिखता
धीरे-धीरे पी की देहरी पास
दिल जोरों से मेरा धड़कता ,

घर से विदा हुई डोली में
कहते सूना ससुराल ही मेरा घर
कैसे समायोजन बैठाऊँगी
नया नगर है डगर नया है घर ,

                                             शैल सिंह








रविवार, 15 नवंबर 2015

कुछ पंक्तियाँ बिखरी-निखरी

१--

कभी काजल के मानिन्द बसे
हम उनकी बेजार निगाहों में
अब नौबत कि नजरें चुराकर
बगल से गुजरा करती उनकी ,
२--
मेरे ख़्वाबों में दबे पांव आता है कोई
आकर मुझे  नींदों से जगाता है कोई ,
३--
कम्बख़्त नज़र एक सी आग लगाई दोनों तरफ
वहाँ करार उन्हें नहीं इधर चैन बेक़रारी को नहीं ,
४--
जल कर मोहब्बत में दिन-रात दिल खाक़ कर लाए
न बहारों का लुत्फ़ ले पाये न ख़िज़ाँ के साथ रह पाए ,
५--
वायदों का अलाव जलाकर इन्तज़ार किया बहुत
ऐतबार ने मगर क़त्ल किया है क़यामत की तरह ,
६--
पाठ मोहब्बत का क्या पढ़ाया सबको भूला दिया
तूने तो मासूम दिल पर  ऐसा कब्ज़ा जमा लिया
पिला कर मय  निग़ाहों की दिखा  अदा के जलवे
दूर ज़माने से किया  नकारा निकम्मा बना दिया ,
७--
वहाँ घर उनके आई डोली इधर सर मैंने भी सेहरा बाँधा
कितनी मजबूर मोहब्बत दुनिया से कर ना पाये साझा
घर दोनों के रखना आबाद खुदा इतना तो रहम  करना
जैसे राधा संग कांधा, इक दूजे के दिल में बसाये रखना ।

8--
सूना कदम्ब सूना जमुना किनारा
सूखकर देह राधा की हुई छुहारा
गोपी,गाय,ग्वालों की हालत बुरी
9--
तेरी बेरुखी पे तुझको कभी सदा न दूँगी
तेरे लिए इस दिल को कभी सजा न दूंगी
10--
जान पर आ बनी है धरम की सियासत
कैसे चाँदनी रात भी अब डराने लगी है
भय आतंक से दहलता शहर दर शहर
ऑंख पूर्णिमा की भी रात चुराने लगी है ,
11--
सत्य बोलना कड़वा होता है
झूठ बोलना पाप होता है
तो फिर बोलें  तो क्या बोलें
पाप वाला सच बोलें
या कड़वा वाला झूठ बोलें
नहीं ये मुझसे नहीं हो सकता
गर्दन पे आरी चले तो भी
हवा के साथ नहीं हो सकती ,
12--

मन से मन हैं सबके फटे हुए,
वाट्सएप,फेसबुक से हैं बस जुड़े हुए,
लाईक कमेंट भर है रिश्ता बस,
गूगल महाराज के कृत्रिम गिफ्टों से,
बर्थडे,एनीवर्सरी,पर्वों पर केक,फूल से
फेसबुक वॉल है पटता रहता बस,
प्रात के आरम्भ से लेकर दोपहर तक 
सोती रात से गई रात तक
गुडमार्निंग,गुडनाईट से कुटकुट-टुकटुक
वाट्सएप है कहता रहता बस ।
13--
इश्क़ क्या है 
इश्क़ करना खता नहीं खता करवा देती है
बिना दुश्मनी के भी तलवार चलवा देती है
ज़ायज़ नाज़ायज़ इश्क अंधा करवा देती है
घर-परिवार से बग़ावत पर उतरवा देती है
ख़ुदा भी नज़र आता नहीं महबूब के सिवा
ज़माने की जखम से बेपरवा करवा देती है
इश्क़ तूफान सा बहता बेतरतीब दरिया है
इज्जत पे आंच आये हैवान बनवा देती है
इतिहास पलट के देखो इश्क़ के मतवालों
दुनिया दीवारों में ज़िंदा भी चुनवा देती है ।
                                                              शैल सिंह




हम सबकी परी नन्हीं परी
कितनी प्यारी-प्यारी है
माँ-पिता की राजकुमारी
दादी-दादा घर पधारी है
नानी-नाना की दुलारी
नर्म फूलों सी सुकुमारी है
मह-मह महकी फुलवारी
सूने घर में ये अवतारी है
बाँहें पालना नाना ने
नन्हीं के लिए संवारी है
नानी की सुन-सुन लोरी
परी करती किलकारी है
दीदी,भैया,मामी-मामा ने
अंक भर नेह से पुचकारी है
ताई-ताऊ सभी मौसियों ने
परी की आरती उतारी है ।
                          शैल सिंह

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2015

गले लग प्रेम का सूता सुलझाओ तो जानें

गले लग प्रेम का सूता सुलझाओ तो जानें


ओ भारत के युवा प्रहरी जाबांज़  सिपाही
कभी ना होना गुमराह बेतर्कों के झांसों में ,

बो कर नफ़रत का बीज भीड़ जुटाने वालों
प्रेम मोहब्बत की ख़ुश्बू बिखराओ तो जानें
क्यूँ निस्प्रयोजन तुम उलझाते हो आपस में
गले लगा प्रेम का धागा सुलझाओ तो जानें ,

जन-मन की पूछ रही हैं सवालिया निग़ाहें 
कहाँ गयी पहले वाली रौनक़ त्योहारों की
सहमे भय,आतंक से बच्चे,बूढ़े,जवां पूछते 
कहाँ गयी पहले वाली धूमधाम बाज़ारों की ,

कैसे ग्रहण लगा जीवन के मुस्काते रंगों को 
कहाँ गया सम्मोहन हरे खेत खलिहानों का 
खुद जीओ देश ,समाज ,पड़ोस को जीने दो
होली जला,उपद्रवी कुंठित सोच विचारों का  ,

सपनों का महल बनेगा सजेगा,संवरेगा तब
जब रक्षा करना सीखोगे दर औ दीवारों की
अनेकता में एकता क्या होती  दिखलाना है   
आवश्यकता है बेहतर जीवन में सौहर्द्रों की ,

प्रेम मोहब्बत इतना प्रगाढ़ बलवान बनायें
सामाजिक समरसता के लिए आह्वान करें
इंसान,दोस्ती की तस्वीर उजागर कर देखें
मिलकर नफ़रत की खाई को शर्मसार करें ,

भारतीय समाज की मानवीयता औ रिश्ता
सहेज कर हमें तार-तार होने से बचाना है
सांस्कृतिक, सहिष्णुता का अखंड धरोहर 
है हिन्दुस्तान, हमें दुनिया को दिखलाना है,

मुश्किलों के समक्ष बुज़दिली नहीं दिखाना
शेर गर्जना सा हथियारों पर धार चढ़ाना है
भूल अतीत की कड़वी यादें धूमिल मन के   
पुराने जख़्मों पर मरहम का लेप लगाना है ,

                                             शैल सिंह










वाह रे मिडिया वाले

वाह रे मिडिया वाले ,तेरी अच्छाई और बुराई दोनों ही चरम पर हैं ,सच्ची बातों के लिए आवाज़ बुलंद करते हो और कभी-कभी तिल का ताड़ बनाने में भी माहिर ,आजाद भारत में व्यक्ति को अपनी अभिव्यक्ति भी स्वछंद और स्वतन्त्र रूप में व्यक्त करने की आजादी नहीं है ।किसी के मुँह से वकार क्या निकली कि तोड़-मरोड़कर  गलत तरीके से गुमराह करने और मतलब निकालने का महारत भी पास रख लेते हो । खैर बुद्धिजीवियों और समझदारों पर तो इसका कुप्रभाव नहीं पड़ता । एक बात तो सत्य है की मोदी की लोकप्रियता और प्रसिद्धि विरोधियों के गले की हड्डी बन गई है ,वरोधी पार्टियां तिलमिला-तिलमिला कर जल भून रही हैं । इसीलिए अनाप-शनाप गुद्दी में गुद्दी निकालती रहती हैं ,लालू इतना घटिया स्तर का भाषण देता है किसी पर जूं तक नहीं रेंगता और कोई सही बात भी बोले तो बवाल हो जाता है राबड़ी जैसे लोग विहार की वागडोर थाम सकते है , बोलने के लिए बहुत कुछ है पर बवाल और टीका टिप्पड़ी सहने की क्षमता नहीं है उददंड और उजड्ढ लोगों की की बेसिर पैर बातें सुनने के लिए ।
                                                               शैल सिंह
                                                      

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

सोनिया गांधी ……  ,
अपने घर से रुख़सती क्या ली भारत के राजकाज पर काबिज हो गई
दो चार भाई होगी छोड़ी यहाँ भाइयों के रूप में हजारों सेवक पा गई
घर की रहगुजर क्या भूली यहाँ हर रहगुजर पर तेरी तस्वीर लग गई
ओ चिड़िया तूं जिस शज़र पर बैठी उस शजर पर और चिड़िया नहीं बैठी
तुझे भारत में मोहब्बत ही नही मिली बल्कि सर आँखों पर बिठाया लोगों ने
हम ये कैसे कहें तुम्हें हुकूमत प्यारी नहीं क्या हुकूमत बिन चाहे ही मिल गई
तेरे चहरे ने इस सर जमीं का भाई चारा छिना एक से एक महारथियों का बाड़ा छीना
तेरे पास जो था वो तुझसे ज्यादा हमारा था तेरे प्रेम जाल ने हमसे हमारा छिना
यहाँ बहुत से बच्चों के सर का साया नंगा है बच्चों को भारत की संतान बनके रहने दे
तूने गिरिजा छोड़ दिया जो तेरा था तूं शिवाला का क्या कभी हो पायेगी
तकदीर बदलने के और भी रास्ते हैं  भारत की बहू-बेटी बनके रह वरना सम्मान से चूक जाएगी
इक तूं ही बेवा नहीं हुई यहाँ हजारों लाखों बेवाएं हैं जो घर छोड़कर कभी मायके नहीं गईं
तेरी वजह से नफ़रतों की दीवार खड़ी हुई बस चन्द नासमझों चाटुकारों की मसीहा बनके रह गई 
तूं यहाँ के मुसीबत की चिंता ना कर यहाँ ऊंचे कद वालों की कोई कमी नहीं
यहाँ के लोगों को तुझसे भी ज्यादा अपना देश प्यारा है
सियासत तुझसे नहीं तुझे लेकर सियासतजदां सियासत करते हैं क्योंकि वो
गुमराह हैं खुद को अलग कर इस घर को अपना घर नहीं समझते हैं ,
तूं इस मिट्टी को गर समझेगी अपनी धरती तो धरती का सीना तेरे लिए बड़ा हो जायेगा ।

                                                                                 शैल सिंह



शनिवार, 17 अक्तूबर 2015

मेरी ये फ़ितरत नहीं दोस्तों

मेरी ये फ़ितरत नहीं दोस्तों 


बहारों का आनन्द लेती हूँ
मेरी ये फ़ितरत नहीं दोस्तों 
कि हवा के संग-संग बह जाऊँ ,

लोग सूखे पत्रों के मानिन्द
बहक,हवा के साथ उड़ते हैं
जिधर का रूख़ हवा का हो
उधर ही हवा के साथ चलते हैं

माहौल के अनुरूप देखा है
कि हैं कुछ लोग ढल जाते
जैसी जिस जगह की मांग
वैसी तुरुप की चाल चल जाते ,

कड़वा सत्य बुरा होता मगर 
मेरी ये फ़ितरत नहीं दोस्तों 
सच से बहस में मैं मुकर जाऊँ ,

भला एक ही इन्सान कैसे
जब-तब कुछ नज़र आता
जुबां होती तो है एक मगर
तरह-तरह की बात कर जाता ,

लिबास आचरण के उनके
आश्चर्य,पल-पल बदलते हैं
लोग भलीभांति जानते फिर 
क्यूँ कसीदे तारीफ़ों के गढ़ते हैं

मैं अडिग सही बात पे होती
मेरी ये फ़ितरत नहीं दोस्तों 
गिरगिटों का चोला पहन आऊँ ,

कहें भले लोग बुरा मुझको
इसकी परवाह नहीं करती
ईश्वर क्या देखता ना होगा
चालबाज़ी चाल में है किसकी ,

चटुकारता की दुर्गन्धों से
भभक उठते हैं नथुने मेरे
उबटन लगाकर तेल संग
क्यों उंगलियां मालिश करें मेरे ,

सच-झूठ का बाँधूँ कलावा 
मेरी ये फ़ितरत नहीं दोस्तों 
आत्मा का क़त्ल कर जीत जाऊँ ।

                       शैल सिंह















गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015

ओ परदेशी

          ओ परदेशी 


   क्या बतलायें शहर की कोई भी चीज
   अपने प्यारे न्यारे गाँव सी नहीं लगती
   चाहे जितना खायें पिज्जा,बर्गर,नूडल
   माँ के व्यंजन के स्वाद सी नहीं लगतीं ,

कच्ची गलियाँ अम्मा-बापू रखना याद घराना
कैसे फड़फड़ायें देख परिंदे वीरां आशियाना ,

शहर को कूच करने वाले गाँव के मुशाफ़िर
गाँवों की पगडण्डियां हृदय में बसाये रखना
हिफाज़त से बुजुर्गों के नसीहत की पूँजी भी
शिद्दत से सहेज कर आँखों में सजाये रखना ,

निशानियाँ मत करना जाते वक़्त की विस्मृत 
उमड़ा रेला परिजनों का आँसू भरा ख़जाना 
कहीं भूल ना जाना परदेश की आबोहवा में
आँगने का छायादार नीम का दरख़्त पुराना ,

कभी ग़र याद में तड़पे दिल लड़कपन वाला
वनवास छोड़ दहलीज़ अपने लौट आ जाना 
रौशन हो जाएँगी फिर बेनूर हुयी बूढ़ी आँखें 
रौनक पनघट पर भी जो बिन तेरे सूना-सूना ।

                                          शैल सिंह





आदतों में करना शुमार अकड़ मजबूरी मेरी

आदतों में करना शुमार अकड़ मजबूरी हुई 



मुझे क्या नाम,शोहरत,ओहदा कमाये कोई
ज़मीर बेचकर हमने कभी समझौता ना की ,

मोम सा दिल बनाने की पाई मैं ऐसी सजा
ठौरे-ठौर मोमबत्ती के मानिन्द जलाई गई
मेरी सादगी ही बस आई ज़माने को नज़र
मेरी हर बात हँसकर हवा में यूँ उड़ाई गई ,

मेरे आदर्शों उसूलों और सत्य की राहों को
पग-पग पर भुगतना पड़ा ख़ामियाजा सदा
भला साँच को आंच की कब परवाह हुई है
झूठ की बुनियाद नहीं करना ईमारत खड़ा ,

पढ़ सकूँ चेहरों के पीछे की दोगली इबारतें
हुनर सीखते-सीखते गुज़र गया इक जमाना
झूठ फ़रेब का मोटा मुलम्मा चढ़ा अक़्स पर 
लब पर आती हँसी नहीं काईयाँ सी दिखाना ,

आदतों में शुमार करना अकड़ मजबूरी हुई 
वरना इज्ज़त से जीने के हक़ सभी छीनकर
दुनिया कभी सिद्धान्तों पे तो चलने देगी नहीं
करवाएगी मनमानी,बेईमानी भी मजबूर कर ,

मुझे क्या नाम,शोहरत,ओहदा कमाये कोई 
ज़मीर बेचकर हमने कभी समझौता ना की ,

                                         शैल सिंह



बुधवार, 14 अक्तूबर 2015

ऐ जान-ज़िगर के टुकड़े मेरे प्राण तुझी में बसा रहता है


''  ना  जाने क्यों मन आज उद्द्वेलित है ''

जज़्ब कर नीर नैन का लाल दर्द सीने में ज़ब्त किया था
कदमों में बिछा दुनिया की नेमतें सीने से जुदा किया था ,

क्यूँ मन की मौन तलहटी में ऐसी हलचल हो रही आज
लगता कोई पीड़ा मथ रही लाल को जो छुपा रहा राज ,

भींचकर गम सीने में गुमसुम मत कभी रहना चुपचाप
तेरे बेचैन साँसों के स्वर की भी माँ सुन लेती है पदचाप ,

तेरे अवयव की हर धड़कन मुझसे ही हो के गुजरती है
गर बदली तुझ पर घिरती है तो वारिश मुझ पर होती है ,

माँ के व्यंजन की खुश्बू तेरे नथुनों तक भी जाती होगी
माँ देख सामने थाली दृग से,छह-छह धार बहाती होगी ,

तूं जबसे दूर गया नयन से,मन अंदेशों में घिरा रहता है
ऐ जान-ज़िगर के टुकड़े मेरे प्राण तुझी में बसा रहता है ,

एक-एक निवाला हलक में मैं मुश्किल से उतार रही हूँ
इक-इक दिन काट इंतजार में बाट बेसब्र निहार रही हूँ ,

जाकर परदेश में बबुवा मत परदेशी फिरंगी बन जाना
माँ ताक रही रस्ता शिद्दत से जल्दी घर अपने आ आना ।

                                                              शैल सिंह 

बुधवार, 23 सितंबर 2015

जब-तब यादों का सोता उमड़ कर

जब-तब यादों का सोता उमड़ कर


कहावत है तन बूढ़ा तो हो जाता है
पर सच ,मन कभी बूढ़ा नहीं होता ,

पछुवा,पूरवा,भाटा,तूफान,बवण्डर
आँधियाँ ना जाने कैसी-कैसी आईं
फिर भी हृदय में जलता स्मृति का
कभी अड़ियल दीया बुझा ना पायीं  ,

हिफ़ाज़त से अतीत को तस्वीरों में
घर की दरों-दीवारों सजाये रखा है
मैंने बचपन की यादों के हरेक पन्ने 
ह्रदय के तलागार में दबाये रखा है ,

जब-तब उमड़कर यादों का सोता
एकान्त में आर्द्र नयन कर जाता है
खोल झरोखा दिखा परछाईयों को  
खुशियों से सूना कोना भर जाता है ,

जीवन में जाने कितने आये गए पन
पर सबसे सुन्दर अपना बचपन था
यौवनपन की कुछ मीठी यादें साथ 
संग इस पन में केवल चिन्तन आह,

दिल बहका जी देख पुरानी तस्वीरें
दिखा करते कैसे जवानी में हम भी
पर सामने खड़ा यह हठात आईना 
बता गया सच कहाँ आ गए हम भी ,

कैसा-कैसा विभिन्न रूप और रंगत 
धारा है जीवन में यह माटी का तन
पर परिस्थितियों के हर कैनवास पे 
ख़ुद को सजा निख़ार कर रखा मन  ,

चाँदी सी सफेदी चमक रही केश में
तन कृशकाय हुई मलिन यह काया
मद्धिम हो गई रौशनी भी आँखों की 
पर मन पर अभी भी ख़ुमार है छाया ।

                                             शैल सिंह








मंगलवार, 22 सितंबर 2015

हिंदी नहीं तो हिंदुस्तान कैसा

हिंदी नहीं तो हिंदुस्तान कैसा

जब दूर होगी हमसे,हिंदुस्तान से हिंदी
फिर अंग्रेज़ी के साथ हमारा क्या होगा
गंगा,जमुनी तहज़ीब संस्कृति,सभ्यता
हमारे सनातन,धर्म का आगे क्या होगा ,

चन्द हिमायती अंग्रेजी को आबाद कर
राष्ट्रभाषा का अनादर करते हैं कितना
हमारी सांस्कृतिक विरासतों के गढ़ से 
इसी मुई लिये लापरवाह रहते हैं इतना,

अंग्रेजों को तो इस मुल्क से दिया खदेड़ 
ये अंग्रेजी यहाँ ठाठ से पोषित होती रही
ग़फ़लत में हमारी इस सौतन भाषा संग  
सनातनी धर्म पग-पग शोषित होती रही,

अंग्रेजी की वक़ालत करने वालों की बस     
मुश्किल से भारत में  मुट्ठी भर तादात 
हिंदी करोड़ों भारतीयों के जुबां की रानी  
भला कैसे करें पराई भाषा यहाँ बरदाश्त,

न रंग-ढंग चाल-चलन रत्ती तहजीब ही  
आदर-सम्मान छोटे-बड़ों का भाव नहीं
ख़ाक़ करेगी बेअदब मुकाबला हिंदी का
जिसमें देशप्रेमी रखते रंच भी चाव नहीं ,

मानते हैं अवांछनीय नहीं है कोई भाषा
अनेक भाषाओं का ज्ञान बुरा नहीं होता  
राष्ट्रभाषा का अनादर हो इस बीना पर
ये ससुरी आँख तेरेरे स्वीकार नहीं होता ,

हिंदी का प्रचार-प्रसार कर पोषण संवर्धन 
मातृभाषा अर्श पे ला दुनिया को दर्शाना है  
भारतीय संस्कृति के सनातनी प्रवाहों को 
भारतवासी कोटि-कोटि अक्षुण्ण बनाना है।

                                             शैल सिंह 


शुक्रवार, 18 सितंबर 2015


'' हिंदी की महत्ता '' 

                                       
जय हिंदी ,जय भारत ,

      हिंदी पर लेख लिखने में अपार हर्ष और आनंद की अनुभूति हो रही है । हिंदी का सम्यक ज्ञान यदि मैं अपने लेख द्वारा थोड़ा भी जन मानस को दे सकूँ तो यह मेरे प्रयास की थोड़ी सी उपलब्धि होगी और अपनी लेखनी की कुशल शैली पर संतोष  और प्रसन्नता की अनुभूति भी होगी ।
            बताते चलें कि विश्व में ८० करोड़ लोग हैं जो हिंदी को अच्छी तरह समझते हैं ,और ६० करोड़ विश्व में हिंदी बोलने वाले लोग हैं ।१४ सितम्बर १९४९ को वैधानिक रूप से हिंदी को राजभाषा का दर्ज दिया गया । संबिधान में अनुच्छेद ३४३ में यह प्रावधान किया गया है कि देवनागरी के साथ हिंदी भारत की राजभाषा होगी । हिंदी के माध्यम से आज रोजगार तथा कारोबार व्यवसाय के बड़े बाजार भी तमाम सम्भावनाओं के लिए दस्तक दे रहे हैं । यह भी शुभ लक्षण है कि आज हिंदी को लेकर प्रचलित हीनता की ग्रन्थि से धीरे-धीरे हम उबर रहे हैं ,भाषा की मजबूती ही चहुँमुखी विकास का मूलमंत्र है ।हिंदी अब प्रौद्योगिकी के रथ पर सवार होकर विश्वव्यापी बन रही है । अपने मुनाफे के लिए विश्वस्तरीय कम्पनियाँ भी हिंदी प्रयोग को बढ़ावा दे रही हैं ,जैसे माइक्रोसॉफ्ट ,गूगल ,याहू ,आईबीएम तथा ओरेकल इत्यादि ।
        हिंदी केवल भाषा ही नहीं वरन भारतीयों की आत्मा है, भाषा ही अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है, और वह भाषा है हिंदी, जो दिलों पर अपनी गहरी छाप छोड़ती है । हमारे प्रधानमंत्री जी भी हर जगह हिंदी में ही भाषण देते हैं चाहे देश हो या विदेश ,और हर जगह इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा हो रही है । पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी बाजपेई जी ने भी संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में ही भाषण दिया था ,जिसे आज भी लोग याद करते हैं ।अंग्रेजी बोलने वाले दुराग्रह के कारण हिंदी नहीं बोलते जबकि उन्हें अच्छी तरह हिंदी बोलने और समझने आती है , ये लोग `हिंदी फिल्में तो बड़े चाव से देखते हैं ,फिर हिंदी अपनाने में दुर्भाव क्यों । हमें अपनी हिंदी भाषा पर गर्व करना चाहिये ,सच्चे हिंदुस्तानी होने का स्वाभिमान होना चाहिए । 
        हिन्दी इस राष्ट्र की पुरातन संस्कृति का एक अटूट हिस्सा है । हिंदी भारतीय समाज को जोड़ने की एक कड़ी है ,हिंदी देश की प्राचीन सभ्यता और आधुनिक प्रगति के बीच की एक मजबूत जंजीर है। हिंदी भारतीय चिंतन और संस्कृति की वाहक है ,यह भाषा हमारे पारम्परिक ज्ञान की खान है ,दुनिया के कोने-कोने में बसे लाखों करोड़ों प्रवासियों की हिंदी ही सम्पर्क भाषा है,हिंदी को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक नई पहचान मिली है । हिंदी की समृद्धि से देश की समृद्धी है । इस राष्ट्र ने जब-जब किसी विपत्ति में स्वयं को घिरा हुआ पाया ,हिंदी भाषा ने चारों दिशाओं में स्थित विविध संस्कृति से युक्त राज्यों को एक सूत्र में पिरोकर राष्ट्र को संगठित किया एवं विपत्ति से राष्ट्र को बाहर निकाला । चाहे अंग्रेजों के विरुद्ध ४०० वर्षों तक चला स्वतंत्रता संग्राम हो या उसके पूर्व मुगलों और यवनों के अत्याचारों से आक्रांत १००० वर्षों का अविरल संघर्ष हो ,राष्ट्र भाषा हिंदी ने हर युग और काल में एक मंच प्रदान करने का अविस्मरणीय कार्य किया है ।किन्तु विगत वर्षों में इस भाषा को पल्ल्वित पुष्पित करने के मार्ग में जिस तरह की बाधाएं आई हैं ,या कह सकते हैं बाधाएं उत्पन्न की गई हैं,वह एक विचित्र स्थिति है अब तक विदेशियों ने हिंदी को पनपने से रोका ,राष्ट्रकवियों को राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत कवितायेँ करने से रोका ,तुलसी और मीरा के भक्तिपदों तक पर तरह-तरह के अंकुश लगाये गए ,वह इस बात का द्योतक था कि भारतीय संस्कृति की प्राचीन उन्नत परंपरा को नष्ट करने के उद्देश्य से विदेशियों ने ऐसा किया ,क्योंकि यही एक मार्ग था जिसके द्वारा वे इस राष्ट्र की एकता ,अखंडता को खंडित कर सकते थे । किन्तु यही कार्य जब स्वयं भारतीय करें ,और वह भी स्वातन्त्रयेत्तर भारत में ,तो इसका कारण कुछ अस्पष्ट सा प्रतीत होता है । अंग्रेजी भाषा सार्वभौमिक रूप से सर्वमान्य एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा है एवं उसका अपना एक कार्यक्षेत्र है,क्षेत्रीय भाषाओँ की भी अपनी एक महत्ता है । किन्तु एक राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी के अतिरिक्त हमारे पास विकल्प क्या है ? भारत के हर कोने में बोली समझी जाने वाली यह एक व्यापक साहित्य से युक्त मीठी और सहज भाषा है ,यह अलग बात है कि अपने स्वार्थ की अंधी परिभाषाओं में स्वयं को बद्ध कर कुछ लोग अलगाववादी मानसिकता के कारण हिंदी का विरोध आदिकाल से करते आये हैं ,किन्तु ऐसा करने वाले स्वयं जानते हैं कि यदि हिंदी का विरोध है तो उनके देश से दूसरे प्रदेश जाकर काम करने वाले लोगों का जीवन यापन असंभव हो जायेगा । अर्थात भाषा की व्यापकता का लाभ तो वे लेना चाहते हैं ,किन्तु इसका प्रतिफल देने की बजाय वे हिंदी के विरोध में ही स्वर मुखर करते हैं ।
     यह प्रश्न मात्र हिंदी दिवस तक ही सीमित नहीं है बल्कि एक शाश्वत सोच का विषय है कि हमें अपनी ही मातृभाषा से दोयम दर्जे के व्यव्हार की क्या आवश्यकता है ? विश्व की हर भाषा का ज्ञान हो इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं है ,किन्तु अपनी ही मातृभाषा की सतत उपेक्षा कर हम संस्कृत को कहाँ ले जा रहे हैं, मंथन का विषय है । अंग्रेजी समेत किसी भी भाषा में हमारी निष्ठा हो किन्तु वह हिंदी के प्रति उपेक्षा की कीमत पर कत्तई स्वीकार्य नहीं है। यह समय है जब हमें समझना होगा कि हमारा राष्ट्रध्वज मात्र कपड़े का टुकड़ा नहीं,वरन सम्पूर्ण राष्ट्र की आत्मा का प्रतीक है । हमारा राष्ट्रगान मात्र कुछ शब्दों का समंजन नहीं ,अपितु प्रत्येक भारतवासी के हृदय की गूंज है । इसकी महत्ता हमारे स्वयं के अस्तित्व से कदापि कम नहीं । अंग्रेजों ने इस महत्ता को समझा था इसीलिए सबसे पहले उन्होंने अपने पैर ज़माने के लिए भारतीय संस्कृति,स्थानीय बोलियों और राष्ट्रभाषा पर प्रहार किया और लोगों को अलगाववादी मानसिकता की धारा में बहाने का प्रयास किया । किन्तु अब स्थितियां विपरीत हो चुकी हैं । अब अपने ही राष्ट्र के मूर्धन्य उत्तरदायी लोग हिंदी की अस्मिता को सुरक्षित रखने के प्रति उदासीन हैं । अगर भारत की भाषाओँ को विधायिका ,कार्यपालिका व न्यायपालिका और साथ में शिक्षा व्यवस्था  खासकर उच्च शिक्षा व शोध ,वाणिज्य-कारोबार ,सूचना प्रौद्योकि आदि में स्थान नहीं दिया जायेगा तो हम कैसे उम्मीद करें कि दुनिया हमारी भाषा को सम्मान देगी । अपनी मूल संस्कृति का सर्वनाश करके किसी भी विकास की कल्पना करना मृगमरीचिका के सामान है । अतः यह प्रयास मात्र हिंदी दिवस तक सीमित न हो कर हर पल अनवरत चले ,तभी हिंदी दिवस की सार्थकता है । हिंदी दिवस हिंदी के लिए कुछ करने हेतु प्रारम्भ करने का दिन नहीं है ,वरन वर्ष भर हिन्दी के उन्नयन के लिए किये गए प्रयासों की समीक्षा का दिन है ।आइये हम भी अपने वर्ष भर के प्रयासों की समीक्षा करें एवं यदि हमारा प्रयास शून्य रहा है तो आज ही आत्मविश्लेषण करें कि अपनी संस्कृति व भाषा के महत्त्व को न समझकर हमने क्या खोया है ?
      ' हिंदी ' साहित्यकारों के मन की ,कलम की वह पूंजी है जिसके द्वारा वह जन-जन के मन की ,समाज की ,परिवेश की भावनाओं को दर्शाता है । यह कहने में अतिश्योक्ति नहीं इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि आज के दौर में हिंदी साहित्य के शौक का भी पुनर्जन्म हुआ है । दुनिया में दिनोंदिन हिंदी का रुतबा बढ़ रहा है, आज तकनीकी प्रगति की संचार प्रकाशन संवाद की अनेकानेक खिड़कियाँ खोल रही है । वैश्विक मंच पर भारत की बढ़ती शाख ने कई देशों को हिंदी जानने व समझने को विवश कर दिया है ।
      हिंदी भाषा का प्रश्न मात्र एक भाषा के उत्थान-पतन का प्रश्न नहीं है ,हिंदी देश की पहचान ,उसके गौरव ,कला और सांस्कृतिक धरोहर से भी जुडी है । हिंदी का अर्थ है देश की अपनी भाषा में देश का आह्वान करना ,भारतीयों के लिए हिंदी से जुड़ना देश से जुड़ना है । यदि हिंदी जीवित है तो अपनी जीवन शक्ति से ,क्योंकि राजभाषा,मातृभाषा ,संपर्क भाषा की यह संजीवनी है । हिंदी में आगे उज्जवल भविष्य की संभावनाओं का आसार नजर आने लगा है ।वह समय जल्द ही आने वाला है जब हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा की मान्यता मिलेगी और हिंदी का मान-सम्मान विश्व फलक पर पताका की तरह लहराएगा ।
     बड़े दुःख के साथ यह कहना पड़ रहा है कि अपनी राष्ट्र भाषा हिंदी को हिंदी दिवस के रूप में मनाकर हम अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं । हिंदी दिवस मना लेना ,हिंदी पखवाड़ा मना लेना मात्र ही हिंदी के प्रति आस्था नहीं दर्शाता ,बल्कि अपनी राष्ट्र भाषा के लिए हमें प्रतिबद्ध होना चाहिए । राष्ट्रीय व्यव्हार में हिंदी को काम में लाना देश की उन्नति के लिए बेहद आवश्यक है । हिंदी भाषा एक ऐसी भाव तरंगिणी है जो सीधे आत्मा में उतरती है ,हिंदी विचारों की सुन्दर पोशाक है ,जिसके द्वारा हम अपनी अभिव्यक्ति को बहुत ही आकर्षक तरीके से दर्शा सकते हैं ।अब समय आ गया है जब हम नई पीढ़ी के लोगों को यह समझायें कि हिंदी में बात करने में उनमें हीन भावना नहीं आनी चाहिए ,अपनी भाषा पर गर्व करना चाहिए। अपनी भारतीय संस्कृति का दर्शन करायें ताकि ये पीढ़ी अपनी परम्पराओं से अनभिज्ञ ना रह जाय ,भारतीय मूल के लोगों को इस दिशा में गम्भीर प्रयास करना चाहिए ,कहीं ऐसा ना हो कि अंग्रेजियत के फैशन में एक,दो पीढ़ियों बाद ये लोग ये भी भूल जाएँ कि हमारे पूर्वज किस गांव या शहर से आए थे यदि घर में हिंदी को सम्मान नहीं देंगे तो विदेशों में हिंदी का सम्मान कैसे होगा ? यह एक अत्यंत ही गंभीर और विचारणीय विषय है ।   
       आप सबको हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं । जय हिन्द। 
                                                                         शैल सिंह 

शुक्रवार, 4 सितंबर 2015

बह गए रेत से सपने सारे

    बह गए रेत से सपने सारे 


सोंधी ख़ुश्बू वातायन में बिखरा तो दी हो बरखा रानी

टूटही छान से रिस-रिस कर घर में टपक रहा है पानी

महलों के बाशिंदों को देती रिमझिम सावन की फुहार

हम गरीबन पर गाज गिराती भसकी छप्पर हुए उघार

जगह-जगह दरकाती धरती बेकाबू बरखा मूसलाधार

बंगलों की बगिया महका के गमलों में फूल खिलाई हो

यहाँ गुरबत की बखिया उधेड़ जंगल की बाड़ लगाई हो

बजबजा रही हो घाव मनमाने उद्दंड बारिश की बूंदों से

टीसों में भर दी हो सिहरन, तेज हवा साथ इन झींसों से

डगमग मंझधार में जीवन नैया नहीं यहाँ कोई खेवनहार

हम ही सहते हैं मार सूखा की हमें ही करती बाढ़ बेजार

कर्ज़ों में धँसी है हड्डी पसली घुन सा शरीर में लगा बुखार ,

आग उदर की भड़काती झोंपड़ी के चूल्हे की ठंडी राख

आँखें आसमान टकटकी लगा काटीं जाग के कारी रात

महलों के सब दिन लगें गुलाबी हमारे सब फीके त्यौहार

कजरी,विरहा भूल गए,आल्हा,उदल बिसरा गीत मल्हार

चाँदनी फिसलती रही रैन में बंगलों,मेहराबों,गलियारों से

छलक रही आँखें असहायों की टकराकर ढही दीवारों से

दूधिया चाँद में चमक रहे नहा घर बरखा की बौछारों से

हम बरसाती में दुबके पड़े डर के घिग्घी बांधे सियारों से

कहीं तो बालकनी से झाँके बत्ती कोई पहरों पे लेता साँस

बह गए रेत से सपने सारे भला बदहाली कैसे भरे हूँआंस ।

गात -- शरीर                                                    शैल सिंह


बुधवार, 2 सितंबर 2015

अफ़सोस ये भारत देश के वासी हैं

अफ़सोस ये भारत देश के वासी हैं 


हमारा देश ' कृषि प्रधान देश ' के नाम से
सबको मालूम,विश्व विख्यात है
इसी देश के नौनिहाल अन्न उत्पाद
कैसे होता अज्ञात हैं ,
अहाते की छोटी सी फुलवारी में
पिछवाड़े की छोटी सी क्यारी में
तड़ी पड़ी थी धान की
बेटी सयानी पूछी मम्मा ये कैसी घासें
हरी-हरी परिधान की
मैंने बोला जरई है ये
बोल रही क्या होता है ये 
मैंने बोला रोपनी होगी
बोली रोपनी क्या होता है
मैंने बोला धान की रोपाई होगी
बोली धान रोपाई क्या होता है
मैंने बोला शर्म करो तुम
राईस ब्रीडर की बेटी हो
इसी घास को खाकर सब
मटियामेट कर देती हो
कृषि प्रधान देश में रहती हो
केवल खाती पीती सोती हो
रोपाई का मौसम है
निहुर-निहुर रोप रही थीं मूल्यानी
खेत ले जाकर उसे दिखाया
देख ले खेती होती कैसे अज्ञानी
जिन्होंने पढ़ते-लिखते कॅरियर बुनते
गाँवों को कोसों पीछे छोड़ दिया
क्या जानेंगे नवयुग के आज के बच्चे
जिनने सब रिश्तों से मुँह मोड़ लिया
जिनने खोली शहर में ऑंखें
सुख वैभव की जिन्हें मिली विरासत
उत्पादन कितने चरणों से होके गुजरता 
क्या जाने ये लोग इनकी ऐसी नफ़ासत
बेटी की सहेली और उसकी माँ ,
इक बार मेरे घर आई थीं
कैम्पस में घुमा-घुमा कर
बेटी ने उन्हें भी फील्ड दिखाई थी
धान की कई प्रजाति की किस्में
चिन्हित के लिए स्टिक में टैग लगाकर
छोटी-छोटी क्यारियों में अलग-अलग
सलीके से रोपी गयी थीं रो में सजाकर
देख अचंभित हुईं थीं माँ-बेटी 
विस्मय से फटीं रह गई ऑंखें
कह बैठीं इस संस्थान में
कितने करीने से उगाई गई हैं घासें
और हठात कह बैठीं सुन पारो
इन घासों पर तूं नंगे पांव
सुबह शाम टहलाकर
पावर तेरा कम हो जायेगा 
चश्मा आँखों से उत्तर जायेगा
सुनकर हँसी मैं ठठाकर
बेटी बोली आंटी ये घास नहीं है धान है
ये संस्थान अनुसन्धान की खान है
यहाँ वैज्ञानिक करते इसी पर काम है
धान से ही निकलता चावल
चावल ही विश्व का मूल खाद्यान्न है
कुछ गाँछों में धान की देखीं बालियाँ
पहली बार हुआ था दिग्दर्शन
बोलीं क्या धान ऐसा होता है
क्या चावल इसका ही है परिवर्तन
पहली बार फसल से हुआ दीदार था
ऑंखें हुईं थीं देख विस्फारित
दऊरी,दुकान है जिनकी रोजी-रोटी
जिनका जीवन विजनेस पर आधारित
क्योंकि दोनों थीं मारवाड़ी
कहाँ होती है उनके खेती बाड़ी
अफ़सोस ये भारत देश के वासी हैं
कृषि प्रधान देश के निवासी है ।

मूल्यानी ---खेतों में काम करने वाले मजदूर
तड़ी ,जरई ----धान की नर्सरी
                                     
                                     शैल सिंह 

सोमवार, 31 अगस्त 2015

खुद को सेंक दीए की लौ में ,

सींकती रही दीए की लौ में 


अम्मा क्यूँ नहीं मुझको भी तूने 
भैया सा घर में अधिकार दिया 
हक़ मेरे हिस्से का काट-कपट 
भैया को ही केवल प्यार दिया ,

मुझको भी गर ' पर ' मिलता 
उड़ती-फिरती मुक़्त गगन में 
माँ डाल सूरज के शहर बसेरा 
सुर्ख़  सी उगती नील गगन में ,

स्वप्न सुनहरे ऊँचे-ऊँचे बूनती
लिखती नित नई-नई इबारत
दुनिया को दिखलाती क्या हूँ 
किसमें हासिल मुझे महारत ,

मुक़्त पखेरू सी फ़िजां-फ़िजां
माँ विचरण करती जी भरकर
साँझ,भोर का डर,भय ना होता 
चलती बेख़ौफ़ राह पर डटकर ,

चील,कौओं की घूरतीं निग़ाहें 
शीशे से वदन को बेंधती ऑंखें
कंचन तन ढाला कांच में क्यों 
कुतर दी गईं उड़ानों की पाँखें ,

बाबुल के घर जन्मी पली बढ़ी
ससुराल पिया का घर कहती 
है कौन सा घर मेरा बतलाओ
माँ कहाँ बता मेरी निज धरती ,

कोई  भी मोल ना जाना मेरा 
तोली गई जाने कित रूपों में
जली दीया सी सबके लिए मैं
खुद को सेंक दीए की लौ में ,

फरियाद करूँ किस अदालत 
कैसी कुदरत तूने रची कहानी
क्यूँ देकर ऐसी अनमोल ज़िंदगी  
दिया आँचल में दूध दृग में पानी ।

                                     शैल सिंह 




रविवार, 30 अगस्त 2015

हौसलों का दीप ना बुझने पाये

हौसलों का दीप ना बुझने पाये 


भारत माँ के वीर जवानों तेरी जननी आज ललकारे
बहा दो खून की होली जला दो जगमग दीप सितारे ,

रंग-रंग में तेरी जमा है इस धरती का खून पसीना
स्वराज्य करो सपूतों खड़ी रहूँ मैं गर्व से ताने सीना
सर झुके न बैरी के आगे मेरी अभिलाषा वीरों प्यारे
बहा दो …… ।

इस पावन धरती पर गैरों का पदचाप न पड़ने पाये
ओ वीर सिपाही तेरी धरती माँ न कभी तड़पने पाये
ऋण अदा करना गौरव से भर आँचल माँ का दुलारे
बहा दो  .......।

कभी ना मानना हार पुत्रों ना पग पीछे कभी हटाना
स्वतन्त्र रहे ये भारत भूमि दुश्मन के छक्के छुड़ाना
जलता रहे निरन्तर हौसलों का दीया ना बुझने पाये
बहा दो  ….…।
                    शैल सिंह 

'' काश कलम ग़र होती मेरी तलवार ''

काश कलम ग़र होती मेरी तलवार 

मन में जब-जब जितने फूटे ज्वार
बस हम बस कागज का पेट भरे
कितने लाचार,मजबूर ,विवश हम
जबकि खूँ में गर्मी जोश में है दम
कैसे करें क्षरण इन उल्लुओं के उत्पात
जो नहीं समझते सीधी-साधी बात
छल ज़मीर में इनके संस्कार बदजात
तभी तो करते बार-बार विश्वासघात
हमने बस ईमान का पाठ पढ़ा
और शांति,सद्भाव का यज्ञ किया
नैतिकता में बंधे रहे ,संविधान का मान किया
ताजीवन दूध पिलाते रहे संपोलों को
और खुद बार-बार विषपान किया
कितने हुए शहीद सपूत यहाँ के
कितने अभी और शहादत देंगे लाल
अभी और कितनी बार सहेंगे वार
काश कलम ग़र होती मेरी तलवार
हौसलों को मसि बनाकर
शब्दों को देती तीखी धार
{ दाँत पीसकर }कर देती बदज़ातों का बंटाधार
कोई अलगाववाद की बात करे
और कोई मांगे हमसे मेरा कश्मीर
सीने पर बैठकर दल रहे मूंग
छुपकर घाव कर रहे गम्भीर
अन्न,जल ग्रहण करें इस धरती का
रुबाई गायें पापी पाकिस्तान की
हमारे प्रेम सौहार्द को मटियामेट कर
जाल बुनें बैठकर गोद में हिंदुस्तान की
कोई अल्ला-मुल्ला के नाम पर
दे रहा समस्त जगत को पीर
काश कलम ग़र होती मेरी शमशीर
ऑंखें निकाल हाथ पे रखती,देती सीना चीर
कुछ कठमुल्लों कुछ बद्दिमाग़ों ने
कर दिया है क़ौम का नाम बदनाम
क्षिक्षा,समृधि,प्रगति की बातें दरकिनार कर
करते फिर रहे कत्लेआम सरेआम
अकल पर परदा डालकर अपने
कर दिया है विश्व का चैन हराम
विफल होती जा रही सभी वार्ता
अपमानित होते सभी प्रयास
घुसपैठिये राह हैं ढूँढ निकालते
पहरों के चाहे जितने लगे कयास
काश कलम ग़र होती मेरी तलवार
और शब्द होते जैसे वृक्ष कपास
फाग सी विखेर देती रुई के फाहों को
विश्व में फैला देती नई उजास
काश कलम ग़र होती मेरी तलवार ।

                                                शैल सिंह 

सोमवार, 17 अगस्त 2015

'' अमर अब्दुल कलाम ''

  अमर अब्दुल कलाम 

तेरी सच्ची देशभक्ति तिरे किरदार को सलाम
सफ़र के नेक इरादों वाले तहे दिल से परनाम  ।

क़बा-ए-जिस्म छोड़ कर कब तस्वीर बन गया
हर जुबां पे अपने नाम का वो कलमा गढ़ गया
कली,फूल रो रहे बिछड़ तुझसे माहताब सितारे
समां,फ़िजां सदायें दे रहीं तुझे अहबाब तुम्हारे ।

हिन्दू चाहिए ना हिन्दुस्तान को मुसलमां चाहिए
तुझसा नेक दिल हिन्दोस्तां को रहनुमां चाहिए
जिसे जाति,घर्म ,किसी मज़हब से ना हो राब्ता 
तेरे रूपों में ढला तुझसा जुनूनी इन्सान चाहिए ।

जीस्त सरफ़रोश कर दिया जिसने देश के लिए
उसके कितने शाहकार हुए ख़ुलूस,वेश के लिए
जगी आँखों में जिसने ख़्वाब के जुग़नू जला दिए
सपने वो नहीं जो देखो नींद में,ऐसे गुर बता दिए ।

जो थका,हारा,न रुका कभी,रहा ख़ाब को जीता
कंकरीली,पथरीली,पगडंडियाँ सदा रहा चलता
कभी बुझ न सकेगी जो उसने दिखाई है रौशनी
उसकी दिखाई राह पर चलेगा ये मुल्क़ है यकीं ।

जिसकी ज़िंदगी का सरापा देश का विकास था
जिस मिसाईल मैन ने रचा अद्द्भुत इतिहास था
जिस व्यक्ति की हस्ती-ए-मालूम में सादगी भरी
शख़्सियत औ शोहरा  जहने-रसा  सोने सी खरी ।

तसव्वुरात से लबरेज रहा तेरे हयात का सफ़र
बहिश्त को सिधारा हैरां हैं सभी सुनकर ये खबर
तेरे ही नक़्शे-कदम पे चलेगा देश का हर नौजवां
आने वाली नस्लें करेंगी पूर्ण तेरे सपनों का कारवां  ।

साधा अमूल्य जीवन खुद से लड़कर हर कदम
शील,ध्यान,ज्ञान,प्रज्ञा प्राप्ति में सदैव रह निमग्न
जो निष्ठावान रहा मिशन की कामयाबी के लिए
किश्ते-दिल जिसका तड़पा मातु भारती के लिए  ।

तिरे कारे-हुनर ने ख़ल्क़ में पहचान दी कलाम
मज़हबों की पटे खाई बने ग़र हर कोई कलाम
तेरी सच्ची देशभक्ति तिरे किरदार को सलाम          
सफर के नेक इरादों वाले तहे दिल से परनाम  ।

शब्द अर्थ ---
अहबाब--लोग,बाग़,मित्र , क़बा-ए-जिस्म--जिस्म रूपी वस्त्र  ,
जीस्त--ज़िन्दगी , शाहकार -प्रशंसक , ख़ुलूस--सरल स्वभाव ,
हस्ती-ए-मालूम --वास्तविक जीवन , सरापा--सब कुछ ,
जहने-रसा--मस्तिष्क तक , हयात--जीवन , बहिश्त--स्वर्ग ,
ख़ल्क़ --संसार , किश्ते-दिल --ह्रदय भूमि
                                                                      शैल सिंह








बुधवार, 15 जुलाई 2015

रिस्तों की परिधि में अपना ठिकाना

रिश्तों की परिधि में अपना ठिकाना 


पढ़ना-लिखना किसी काम ना आया
डिग्री बक्शा भीतर रखी सहेजकर
ध्यान-ज्ञान हुशियारी सब धरे रह गए
स्त्री धर्म का कड़ुवा मर्म ओढ़कर
कभी-कभी विकल उसे एकाकीपन में
निहार लेती फिर रख देती सहेजकर
महकती कल्पना चहकती चेतना
कभी-कभी कलम उठा लेती है
और रच देती नवगीतों में अंतर्वेदना
कोई ना जाने मेरे अक्षरों की दुनिया
कौन निखारे मेरे मन्सूबों की कोठियां
विचार,विवेक बुद्धि जैसी मीनारें
भीतर ही भीतर दरक उठती हैं
जब कोई करता गुणगान किसी का
लहूलुहान हो जाती प्रतिभा की संजीवनी
झनझना जातीं वजूद की दीवारें
तौहिनिया श्मशाम के सन्नाटे जैसा चिर देती  
ज़िंदगी शनैः-शनैः बीत रही काम के तले
बस बनाते संवारते हुए घर, 
बुहारती मन का विराट चबूतरा
और निहारती निर्मल सपनों पर जमी गर्द और
दूर-दूर तक देखती उन आयामों को
जहाँ ना मैं ना मेरा वजूद ना मेरा नाम
बस हिस्से में काम, मन में सबके लिए मंगल  कामना
खटते रहने का नाम अपने हिस्से में रखना
क्योंकि मैं एक स्त्री हूँ ,इससे इतर मेरा कोई मुकाम नहीं
रिश्तों की परिधि में अपना ठिकाना
सोचती हूँ कब काली रात के बाद वो सुबह आएगी
जहाँ एक स्त्री की बदहाल तस्वीर की जगह
कल्पनाओं का साकार और विशाल आसमान होगा ,
काम से इतर कुछ घड़ी के विश्राम में
जीवन का अनकहा ,अव्यक्त राग उंड़ेल देती हूँ
कागज की छाती पर पोरों के अनुदान से 
कलम और कागज ही जीवन के सच्चे साथी हैं
ये ही सच्चे अर्थों में मेरी अनुभूतियों से परिचित हैं
रूबरू हैं मेरी योग्यता और प्रतिभा के शीशमहल से
मन का निनाद इनके सीने पर अभिलक्षित कर
ह्रदय की अनुकृति का आकार और आकृति
इन्हीं कोरे कागज़ों पर महसूसती हूँ 
शायद ये लेखन ही मेरी डिग्री का पारितोष हो । 

                                             शैल सिंह

गुरुवार, 9 जुलाई 2015

ढलका सूरज भी आस्मा से निढाल हो

       ढलका सूरज भी आस्मा से निढाल हो        

      ( १ )

है कलमा,ग़ज़ल या ये शायर की रुबाई
हांल-ए-दिल सुन तबियत सिहर जाएगी ,

जब भी देखेगी दरपन में अपना ही मुख
भोली मासूम तस्वीर मेरी नज़र आएगी ,

चाहे जितनी जला ले तूं शम्मा इंतजार की
रुत रुठी ना जाने रुठकर किधर जाएगी ,

कुछ कसर छोड़ी होती कर वफ़ा की क़दर
क्या पता था नज़र बावफ़ा तेरी बदल जाएगी ,

कितने आँसू बहाये ज़ज्बे मेरे सितम से तेरे 
इक दिन वही बात आईना रुबरु कराएगी

हजारों मौजें दफ़न कर लीं मेरी खामोशियाँ 
ऐ दोस्त तेरी ऑंखें भी शर्म से झुक जाएगी ,

                   ( १ )

ये आजू-बाजू तेरे जो आज गुंचे खिले हैं
बह मत रौ में किरन सी बिखर जाएगी ,

तेरी पलकों पे टुकड़े कुछ बुलंदी के जो
क्यूँ दिखाती मुझे क्या वो मेरे घर आएंगी ,

बहेंगी मेरे भी परचम की निरंतर आँधियाँ
मेरा रुतबा सुन सारी ख़ुमारी उत्तर जाएगी ,

ढलकता सूरज भी है आस्मा से निढाल हो
अरे सोच पागल तूं ढल कर किधर जाएगी ,

रखना मुझे भी नहीं है तुझसे कोई राबता
ज़िन्दगी में फिर से घोल तूं जहर जाएगी ,

जमीं पर पांव रख चलना सीख जरा ढंग से 
चलन जो तेरी सबके नज़र से उत्तर जाएगी।



                                                शैल सिंह



मंगलवार, 7 जुलाई 2015

फासले मिट गए चन्द मुलाकात में

फासले मिट गए चन्द मुलाकात में 


वह महफ़िल में आये सभी की तरह
पर लगे क्यों नहीं अजनवी की तरह ,

नज़र क्या मिली कुछ घड़ी के लिए
वीरां ज़िन्दगी में जैसे बहार आ गई
जो ना उनने कहा कुछ ना मैंने कहा
वही ज़ज्बात आँखों के द्वार आ गई,

सांसें मस्त हो गईं डूबकर ख़्वाब में
बिन पिए मय जैसी खुमार आ गई
निखर सी गया मेरी दुनिया का रंग
कोई सरगम सी जैसे झंकार आ गई ,

जिस छाया ने पागल किया था मुझे
सामने साया साक्षात् साकार आ गई
करती लाखों जतन ख़ुशी छुपती नहीं  
ज़िक्र बन शायरी लबे-ए-पार आ गई ,

फासले मिट गए चन्द मुलाकात में
करके ऐतबार दिल को करार आ गया 
मिली जबसे नजर रौशनी मिल गई
मोहब्बत भरा ख़त से इक़रार आ गया  ।

                                       शैल सिंह

सोमवार, 6 जुलाई 2015

जालिम करवटें

जालिम करवटें 


बेरहम करवटें जगा कर नींद से
भोर का विभोर सपना चुरा ले गईं ,

चाँद से बात कर रही थी ख्वाब में
पलकों पे तिरते परिंदे उड़ा ले गई ,

सूरज का साया दिखा छल किया
रात सितारों भरी छीन दगा दे गईं  ,

रात भर नींद आई कहाँ याद में ,पर
ख़ुश्बू से तर ये सुबह-ए-समां दे गईं ।

                                 शैल सिंह


रविवार, 5 जुलाई 2015

दर्प का रुख पर चश्मा लगाकर न बह

दर्प का रुख़ पर चश्मा लगाकर न बह


अच्छा इन्सान बन डर ख़ुदा के ख़ौफ़ से 
बेआवाज लाठी में भी होती हैं दुश्वारियां ।

कभी सामने रखकर अपने तुम आईना
पूछ लेना क्या-क्या तुममें हैं ख़ामियाँ 
दर्प का रुख़ पर चश्मा लगाकर ना बह
हवा देखना,पहाड़ साधे है ख़ामोशियाँ ।

शक़्ल  बदलेगी जिस दिन अपना गुमां
साथ अहबाब ना होंगे होंगी तन्हाईयाँ
गुरुर इतना भी अच्छा नहीं रूप-रंग का
दोस्त उम्र भर कहाँ साथ देतीं हैं रानाईयां ।
 
दम्भ,मद-अहं से लबरेज ये मिज़ाज लहज़े
अपने आबो-ए-हवा में देखना तुम वीरानियाँ
ये लाव-लश्कर तुम्हें कभी भी देंगे शिकस्त
रोयेगी फ़ितरत पे याद कर मेरी मेहरबानियाँ


अहबाब--लोगबाग,मित्र,समूह
रानाईयां--सौन्दर्य , फ़ितरत --स्वभाव

                                   शैल सिंह  

शनिवार, 27 जून 2015

मुझे नकारा न समझो अरे दुनिया वालों

एक इंसान जो रोजी-रोटी के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहा है ,असफलताओं ने उसे तोड़कर रख दिया है दुनिया उसे नकारा कहती है ,लोग उसपे तंज कसते हैं,उम्र ढलती जा रही ,जिम्मेदारियां बढ़ती जा रही, सभी कोशिशें नाक़ाम ,उसकी अंतर्व्यथा मैंने अपनी कविता में पिरोया है ,आगे....

मुझे नकारा न समझो अरे दुनिया वालों 

मजबूरियां कोई खरीदकर नहीं लाता
लाचारियां भी बाज़ार में नहीं मिलतीं
अगर मिलती किस्मत किसी मंडी में
मूल्य अदा कर लाता उम्र नहीं ढलती ,

किसी की बेबसी पे मत हंसा किजिए
मजबूरियां कोई खरीदकर नहीं लाता
आप भी डरिये जरा वक़्त की मार से
बुरा वक़्त कभी यूं बताकर नहीं आता ,

अक़्ल का चाहे जितना धनी हो कोई
बिना तक़दीर के मन्जिल  नहीं पाया
बीरबल अक्ल का क्षत्रपति होकर भी
कभी बादशाहत का ताज़ नहीं पाया ,

जीने देतीं आशाएं ना तो मरने देतीं हैं
जाने क्यों रूठा है मुझसे मुक़द्दर मेरा
खुद के कंधे पे सर रख रो सकता नहीं
न गले खुद को लगा दिल बहलता मेरा ,

बेहिसाब ढो रहा जिंदगी औरों के लिए
जो मुझे चाहते ज़िंदगी बस उनके लिए
सुबह-शाम वक़्त उनपे जाया हूँ करता 
जीने का नाम जिंदगी है दूसरों के लिए ,

रिश्ते मोहताज नहीं होते हैं पैसों के जी
अमीर बना देते जरूर बिन पैसों के भी
कुछ रिश्ते मुनाफ़ा नहीं देते पर जीवन
अमीर बना देते पोंछ उदासी के सीलन ,

ओ अमीरों गर बनते हो धनवान इतना 
तो बेशक़ीमती मेरी बदनसीबी खरीदो
लौटा दो मेरी बेहतरीन बिखरी अमानत
बेचारगी,लाचारगी भरी दिल्लगी खरीदो ,

मुझे नकारा न समझो अरे दुनिया वालों
बस प्रारब्ध का मारा हुआ एक इंसान हूँ
उहापोह के चक्र में डूबता उतराता रहा
क्या पता तुम्हें कैसी हस्ती औ पहचान हूँ ।

                                     शैल सिंह


मंगलवार, 23 जून 2015

फ़तह की चिट्ठी सीमा से घर आई है

  •  फ़तह की चिट्ठी सीमा से घर आई है 


डर सताती रही ख़ौफ़ की हर घडी
फ़तह की चिट्ठी सीमा से घर आई है
मन मतवाला गज सा हुआ जा रहा
ख़ुशी चल एक विरहन के दर आई है ,

बिछ गए हर डगर पर पलक पांवड़े
उनके आने की जबसे खबर आई है
सरसराहट हवा की प्रिय आहट लगे
उनके कदमों की ख़ुश्बू शहर आई है ,

महकने लगी आज़ हर दिशा हर गली 
ज़िस्म का उनके चन्दन पवन लाई है
सांसें स्वागत में लीन आज़ पागल हुईं
कोई रोके ना पथ ज़िंदगी भवन आई है ,

उठे निष्पन्द वदन में भी अंगड़ाईयां
सूनी अँखियों में अंजन संवर आई है,
मन का हिरना कुलांचे भरने लगा है
मन समंदर में हलचल लहर आई है ,

भोली आशाएं कबसे तृषित थीं सनम
वही परिचित सा झोंका ज़िगर भाई है
चाँद,तारों,सितारों की बारात का बिंब
लगे नीले नभ से धरा पर उतर आई है ,

मुख मलिन दिखाता सदा रहा आइना
उसी में सौ रंग ख़ुशी के नज़र आई है
तार झंकृत नयन के इक झलक वास्ते
पथ निरख हर बटोही के गुजर आई है ,

सज कलाई में सावन की हरी चूड़ियाँ
बोल अधरों पर कजरी का भर लाई है
कितने कुर्बां हुए सुहाग वतन के लिए
गृह इस सधवा की रोली मगर आई है ,

                                    शैल सिंह





दो क्षणिकाएँ

                            ( १ )

देखिये गौर से अब गरीबी नहीं कहीं देश में
बहरूपियों की आदत गरीबी के चोले में है
अलहदी बना दिया है बी. पी. एल. कार्ड ने
उसपे आरक्षण की सौगात भी  झोली में है ,
असाध्य बीमारी हुआ है आरक्षण का कोढ़
बौद्धिकता का स्तर खतरे की टोली में है                        
जिन्हें मिल जा रहा सब कुछ बैठे बिठाये
उनमें आ गया नक्शा अहंकार बोली में है  ।

                 ( २ )



शनिवार, 30 मई 2015

आज भी कोई प्रेमचंद फिर से लिखे गोदान

आज भी कोई प्रेमचंद फिर से लिखे गोदान


रीढ़ की हड्डी तोड़ रही कर्ज़ का भारी बोझ 
रंगदारी,दबंगई वसूली,की जमात घर रोज   

अन्न अधमरे खेतों में औंधे बेजान निर्जीव
देख दुर्गति फसलों की उड़ गई है नींद 
तपे तवा सी धरती उगले सूरज रोज आग 
कलप रहा है किसान हाथ लिए सल्फास ,

मौसम हुआ हठीला है निर्मम हुई हवाएं 
सारी मेहनत खाक़ हुई हथेली आपदाएं 
लुटा हुआ किसान निरख रहा आकाश 
प्राण आधे रह गए ना भूख लगे ना प्यास ,

बदहाली दुर्दिन की समझे कौन व्यथाएं 
अंतस में दफ़न हुई सूली लटकी वेदनाएं 
जुल्म की पूरी दास्तान कह रही मरुभूमि 
उजड़ा हुआ है माली,बुने सपने हुए यतीम ,

झूठी सांत्वना की पूँजी खोखली संवेदनाएं 
फितूर साबित हो रहीं हैं जन-धन योजनाएं 
मौन का ताला लटके ओहदों की शाख पर 
मर्म पे लेप कौन लगाये पट्टी पड़ी आँख पर ,

अन्नदाता की कुंडली उल्कापात,ओले पानी 
फिर से पुनर्जीवित हुई होरी की नई कहानी 
आज भी कोई प्रेमचंद फिर से लिखे गोदान 
धूल फांकें ठंडे बस्ते बौने आंकड़े औ प्लान ,

क्षतिपूर्ति के समाधान पर टंगा घना अँधेरा 
कोहराम मिटाने कब आयेगा सुखद सवेरा 
राजधानी हृदयहीन यथार्थ पतन का जाने 
जीवन खाली कैनवास रंग भरना ना जाने । 

                                            शैल सिंह 

मंगलवार, 26 मई 2015

बेपनाह मोहब्बत हर शै लुटाने लगी है


बेपनाह मोहब्बत हर शै लुटाने लगी है 

इक तासीर दिल को जब से मिली है
ज़िन्दगी झूम कर मुस्कराने लगी है

अमां का कासा मिला मिली ज़िन्दगी 
गीत ख़ुशी के जुबां गुनगुनाने लगी है

इनाम मुझे मेरी परस्तिश का मिला
सांसों-सांसों में मस्ती समाने लगी है

सप्तरंगों में दुनिया सज़ी ख़्वाबों की
उन्नींदी रातें चांदनी में नहाने लगी है

झनझनाने लगे सुप्त सभी तार मन के
सुर टूटे तारों की वीणा सजाने लगी है

मोतियों में हुईं आँसू की बूंदें तब्दील
वैरागन उदासी नग़मा सुनाने लगी है

खुलुश मिल गया है शाद दिल है मेरा
फिर आरजूवें महफ़िल सजाने लगी हैं

दर्दों में डूबी थी जो आज तक बन्दग़ी 
आकर सपनों में ताबीर पिराने लगी है

रातें सितारों से जगमग मेरी हो गईं हैं 
हिलोरें किनारों से बातें करानें लगी हैं

आकर वाहयातों देखो मेरी नाचीज़ पर
बेपनाह मोहब्बत हर शै लुटाने लगी है

ठहर सी गयी थी ज़िंदगी इक मोड़ पर
अब वो रास्ता कई नये दिखाने लगी है

तलाश में जिसकी बेजां हम दर-दर हुए
आ मकसदें सामने सिर झुकाने लगी हैं

कैसे-कैसे गमें-दौरां से हैं गुजरे हम शैल
सहन-ए-ख़िज़ाँ नूर सबा बरसाने लगी है ।

सहने-ख़िज़ाँ--पतझड़ के देहरी
अमां का कासा--चैन संतुष्टि का कटोरा

                                                 शैल सिंह















शनिवार, 23 मई 2015

बचपन की उन्हीं गुफ़ाओं में

बचपन की उन्हीं गुफ़ाओं में


तन्हाई के पहरों पर जब यादें देतीं हैं दस्तक
बहती यादों की पुरवा में खो जाती हूँ हद तक,

ओ अतीत की खूबसूरत तस्वीरों 
मत आया करो मेरी सुप्त शिराओं में
वक़्त के आईने में ढल सकी ना
भटकती हूँ बचपन की उन्हीं गुफ़ाओं में ।

खुल जाता खुशनुमा पिटारा 
बचपन की उन सँकरी गलियों का
जहाँ न कोई आपाधापी,प्रतिस्पर्धा,ईर्ष्या होतीं 
बस होती अतीत कीअच्छी बुरी झलकियाँ ,
गिल्ली डंडा,कंचे और बाग़ की अमियाँ ,
घनघनाती घंटी सुन कुल्फी,बरफ बेचने वाले की ,
दौड़ पड़ना चोरी से धान,गेहूँ से भरकर डालियाँ ,

यादें पुरानी जब चित्र उकेरतीं मन की दरकती दीवारों पर ,
फिर तो जिवंत हो उठतीं बीते दौर की कितनी बातें ,
दौड़ती भागती जिंदगी की मीनारों पर ,
यादें नहीं देखतीं वक्त मुहूर्त,
संरक्षित रखतीं यादों के सन्दूक में सारे सूत्र ,
डायरी के पन्नों पर लिखे इबारत,
पत्रों की पोटली,कविताओं की कच्ची कड़ियाँ,

सहेजे हुए फोटोग्राफ के सभी पुलिंदे 
जो भारी पड़ते आज के फेस बुक,जीमेल चैट पर 
भावों की भंगिमा खो गई नई-नई तकनीकों की सैट पर
मासूमियत भरे दौर धराशाई हो गए 
ख़्वाहिशों के बड़े-बड़े महलों में दबकर
मुखर हो गयी वही पुरानी याद आज 
फिर ज़िंदगी के शो केस में सजकर
बन फूलों सी कोमल कलियाँ ,

छोटे शहर ,गाँव की पृष्ठभूमि से कभी जुदा 
नहीं होने देते यादों के ख़ुश्बू इत्र
कागज के टुकड़ों पर लिखे भूले बिसरे गीत 
वो पल सुहाने भूले नहीं चलचित्र
घर के पिछवाड़े बाग़ बगीचे की सैर,
नदी,पोखरा घाट नहाना धूल भरा वो पैर,
जामुन की दाग से रंगे लिबास,खेल-खेल में बैर,
हाथ में बाबा का मोटा डंडा  
लुका छिपी खेल की घड़ियाँ,

आज समाज के बंजर मरुभूमि में 
नहीं दिखाई देता वैसा छतनारा सा पेड़
जहाँ बैठ सुकून से लगे ठहाके,गपशप,
कभी ना पता चले गर्मी की छुट्टियां 
दिखें कहीं बकरियां भेंड़,
खुलकर आनन्द लेने के दिन लद गए ,
रह गए बसनिन्यानबे के फेर ,
पूर्वजों की धरोहरें कौन सहेजे ,
जने-जने के शहर-शहर में 
बंगले गाड़ीयों की लड़ियां ,

बन्ना बन्नी के गीत ना भूले ,
दादी,बाबा,चाचा,चाची की प्रीत ना भूले ,
वक्त की भीड़ में भूले खुद को 
पर परम्परा और रीत ना भूले ,
एकल परिवार से सारे रिश्ते गायब ,
निरा अकेलापन तन्हाई का दंश,
सारी जगहें रिक्त पड़ीं हैं जिसे नहीं 
भर सकते मोबाईल कम्प्यूटर के अंश,
आँखों सम्मुख फीकी-फीकी लगे,
अतीत के आगे ये पर्याप्त सामग्रियाँ ,

रीति रिवाज संस्कार हुए गुम 
नई पौध ने बदल दिया समाज ,
ये कैसा आगाज़ बिखरते परिवार की देख मलानत 
अब मौसम में भी नहीं बहती पहले सी बयार
नेह प्रेम के भावों में भी सच्ची नहीं फुहार,
सांय-सांय दोपहरी खेल ताश का 
नीम तले बैठें मिल यार ,
सामाजिक मुद्दों पर चर्चा कौन करे ,
सुख-दुःख की परवाह किसे ,
मन में गाँठ की झड़ियाँ ,

ओ अतीत की खूबसूरत तस्वीरों 
मत आया करो मेरी सुप्त शिराओं में
वक्त के आईने में ढल सकी ना 
भटकती हूँ बचपन की उन्हीं गुफ़ाओं में ।

                                                                                            शैल सिंह


ग़ज़ल

       ग़ज़ल 


मेरे ख़्वाबों में आना दबे पांव तुम
चराग़-ए-वफा बुझ ना जाए कहीं

झिलमिला रहे लम्हें हंसीं यादों के
लम्हा ये तन्हा गुजर ना जाए कहीं

अश्क़ों से गीली पलक की जमीं है
मोहब्बत में हम मिट ना जायें कहीं

माना मजबूर तूं पर मोहब्बत नहीं
अहदो-पैमान ही रह ना जाए कहीं

चांदनी शब में ढूंढतीं हैं निगाहें तुझे
वीरां मुंडेरों टिकी रह ना जाएं कहीं

नींद से रहती बोझिल मगर जागती
दर से आहट वो मुड़ ना जाए कहीं ।

अहदो-पैमान--वादे कसमें

                       शैल सिंह




शुक्रवार, 22 मई 2015

ओ बेवफ़ा

       ओ बेवफ़ा

मेरी वफ़ा का सिला क्या ,तूने दिया वो बेवफ़ा
अच्छी निभाई यारी ,संग यार के वो बेवफ़ा,

पूछते सभी सवाल मुझसे अनुत्तरित जुबां है
बदनीयत पे हैरां हूँ मैं ,वो इकरारे रुत कहाँ है
वो इकरारे रुत कहाँ है
रुसवा किया है तुमने ख़यालात को वो बेवफ़ा ,

जिस तरह से रेजा-रेजा मेरी अर्से-वफा हुई है
तूं भी रोये खूँ के आँसू अना घायल मेरी हुई है
अना घायल मेरी हुई है
हो ज़न्नत मुझे नसीब तुझे दोज़ख़ वो बेवफा ,

चकाचौंध दौलतों की तूने गिरवी ईमान रखा
बड़ी सादगी से मेरी शराफत पर अज़ाब रखा
शराफत पर अज़ाब रखा
इस गुनाह की तुझे खुद ख़ुदा सजा दे वो बेवफा

दिखाया नकली चेहरा ऐतबार का कतल कर
फूलों से ज़ख्म खायी काँटों से बच के चल कर
काँटों से बच के चल कर   
तेरा आशियां जले मेरा घर रौशन हो वो बेवफा ।

                                                             शैल सिंह

शनिवार, 9 मई 2015

'' किसानों की बेबसी ''

किसानों की बेबसी 


क्यों बेमौसम बरस कर मेघा  
तूने खेतों मैदानों पर क़हर बरपाई
बेवक़्त कर ओला वृष्टि की चौपट  
कृषकों के परिश्रम की हाय कमाई ,

क्यों अकड़ में अन्धा हुआ रे मेघ तूं
मुर्दा हसरतों पर ऑंखें डबडबाईं
क्यों इतना प्रमत्त हुआ जा बरस वहाँ
जहाँ की बंजर धरा में फटी बिवाई ,

फसलें ही पूंजी थीं आधार स्वप्नों की
क्यूँ ना तेरी आत्मा,क्षति से कसमसाई
बेटी के हाथों की हल्दी थी जिसके बूते
उसी बल को तोड़ तूने किया धराशाई ,

गले फसरी लगाने को कर दिया विवश
कहाँ गई तेरी भलमनसाहत औ भलाई
झमाझम बरसकर हुआ संवेदनाविहीन    
कैसे क़र्ज़ा चुकायेंगे तबाह कृषक भाई ।

गहने गिरवी,घर बंधक,मार उधारी की 
दीन दशाहीन देख जरा शर्म नहीं आई
अनहद बरस तूने रंक,फकीर बना दिया  
देख दुर्दशा अन्न की ओ मक्कार कसाई ।







शनिवार, 11 अप्रैल 2015

कश्मीर पर कविता। " तूं ख़ूबसूरत बाग़ हिंदोस्तां बागवां तुम्हारा "

कश्मीर पर कविता


ऐ कश्मीर तेरी वादियों में ज़न्नत का नूर है
अखण्ड भारत का सरताज तूं कोहिनूर है ,

ग़र ये वतन है मेरा तो तूं जान है वतन की
ग़र ये वदन है मेरा तो तूं प्राण है वदन की
ग़ैर की निग़ाह से सच हमने कभी न देखा
ग़र कहीं है स्वर्ग तो तेरी भू पे है गगन की ,

ग़र तुझसे बिछड़ गए तो जी के क्या करेंगे
साथ-साथ हम रहेंगे संग जिएंगे और मरेंगे
कभी विलग की हमने तो स्वप्न में ना सोचा
बिन तेरे अखंडता की कैसे हर्षा भला करेंगे ,

वो फूल भी क्या फूल जो चमन में ना खिले
वो फूल शूल सा लगे जो सहरा से जा मिले
तूं ख़ूबसूरत बाग़ है यह देश बागवां तुम्हारा
उर प्रेम का अंकुर उगा हम गले से आ मिलें।

                                     शैल सिंह

देवी उपाधि नहीं मन भाती

देवी उपाधि नहीं मन भाती


जब-जब होती हूँ तनहा 
काटे कटता नहीं जब लमहा
तब-तब कलम सखी बनकर
शब्दों का जामा जाती पेहना  ।

मेरे अनुरागी मानस पर
जब वैराग औ राग उफनते हैं
आँखों के आँसू स्याही बनकर
अंतर का दर्द उगलते हैं ।

नारी शब्द से नफ़रत होती है
अबला नाम से होती है घृना
बंधन पायल,बिंदिया,कंगन
ताक़त इनसे होती बौना ।

त्याग,तपस्या,ममता की मूरत
देवी उपाधि नहीं मन भाती
वात्सल्य की मोहरा बन नारी 
बैरी जग से छली है जाती ।

तुझे दुवा दें या करें  शुक्रिया अदा
बता ऐ अपराधी,अन्यायी ख़ुदा
आँचल में दूध और आँख में पानी
क्यों उसकी ही लिखी ऐसी बदा ।

बाँहें पालना अङ्क सुखों की शैय्या
जिसकी गोदी में सुखद बसेरा
दिन-रात जली जो दीपशिखा सी
क्यों उसके अंतस में गहन अँधेरा ।

                                              शैल सिंह

बुधवार, 18 मार्च 2015

जिन अधरों ने उनको पुचकारा

जिन अधरों ने उनको पुचकारा


वज्र की छाती वाली धरती माँ सी
औरत कितनी है बदक़िस्मत हाय 
मर्दों के हाथ का मात्र खिलौना बस  ,

जिस माँ ने जनकर ऐ मर्द तुझे
इक मर्द होने का है नाम दिया
उसी का मान सम्मान मसलकर 
तुमने सरेआम है बदनाम किया ,

उस पुज्यनिया की लूट आबरू 
दर्पित हो तूने अभिमान किया
चिथड़े-चिथड़े कर अस्मत के
उसे सरेबाज़ार निलाम किया ,

तूमने जान कोख़ में कन्या भ्रूण
इक माँ को बेवश मजबूर किया
कचरे का ढेर समझ निरीहा को
बिन जने ही अस्तित्व चूर किया ,

घर का चिराग़ इक मर्द ही हो
ताकि मर्द बने बेग़ैरत तुझसा
माँ,बहन,बेटी की अस्मत लुटे
चील,कौव्वा,गिद्ध बन तुझसा ,

बाप,बेटा,भाई,का फ़र्ज भूलाकर
मर्द तुमने दानवता का रूप धरा
तुमने मानवता को शर्मसार कर
विकृत सोच से मन का कूप भरा  ,

ख़रीद-फ़रोख़्त में वही बिकी रे 
नंगी शोभा बनी दर-दरबारों की
संसार के लिए वह वस्तु हो जैसे
भोग की साधन इज्ज़तदारों की,

पीर ज़ज्ब कर हर ज़ुल्म सहे वो 
हर ख़ता पर बस नाम उसी का
मर्दों के सेज़ की कामुकता पर
क्यूँ चिता सजे अस्मिता उसी का ,

हक़ सारा प्रभु ने मर्दों को दिया
औरत के लिए सजा जीवन भर
जिन अधरों ने उनको पुचकारा
उसीका व्यापार हुआ जीवन भर ,

जिस लहू ने कोख़ में तुझे तराशा 
उसका कैसा ये मोल दिया तुमने
जिसने दर्द सहा पल्ल्वित किया
उसे सरेबाज़ार तोल दिया तुमने ,

इस्मत के बदले एहसान जताया  
टुकड़ों-चीथड़ों पे पालकर अपने
ख़ुद को तपा सृष्टि को जिसने रचा 
चूर किया उसी के ख़ारकर सपने ,

मर्दों के हवस की शिकार बनी वह  
कुलटा पापन कहलाई अंधे जग में
हद पार की मर्दों ने हर बेशर्मी की 
दाग लगाकर छोड़ी गई दलदल में,

जब सब्र तोड़ता ग़ुरबत औरत का 
हारकर चकलों में जा लेती पनाह
अधम पेट,मर्दों के भूखे उदर लिए
बैरी जग का सीने में समेटती आह ,

कैसी क़िस्मत पाई बेचारी औरत
कैसी तकदीर की निकली खोटी
कैसी बदनसीब आह सृष्टिदायिनी
अपने बेटों की सेज सजीं माँ,बेटी,

वह तो रस्मों रिवाज़ की वेदी चढ़ी
ऐश का सारा हक़ नाम तुम्हारे मर्द
जिन्दा जलने को तूने मजबूर किया 
बलिदान कहा देकर उसे तुमने दर्द ,

वज्र की छाती वाली धरती माँ सी
औरत कितनी है बदक़िस्मत हाय
मर्दों के हाथ का मात्र खिलौना बस।
                                             शैल सिंह






रविवार, 8 मार्च 2015

'' महिला दिवस पर ''

महिला दिवस पर 

व्यवधानों से कर के दोस्ती
दिक्कतों की परवाह ना की  
तोड़ पांवों की बेड़ियां उनने 
ऊँची हौसलों को उड़ान दी  ,

संघर्ष बन गई ताक़त उनकी 
तय अंतरिक्ष की दूरी कर लीं  
पाल-पोस ख़्वाबों को अपने  
तराश मन्सूबों को निखार लीं ,

सशक्त कर भूमिकाओं को
ख़ुद को इक नई पहचान दीं 
तोड़कर मानकों की परिधियाँ
कुचली मनोवृत्ति को संवार लीं ,

ख़ाहिश नहीं महिमामण्डन की
कोई चाहत नहीं सहानुभूति की
भभक उठीं सदियों की वेदनायें 
उबलती सिसकियाँ जो दबी थीं ,

बेहतर समाज की वे भी भागीदार
प्रगतिशील हुईं आज़ की नारियाँ
परम्पराओं की तोड़ सींखचों को 
प्रतिभावान हुईं हमारी भी बेटियाँ ,

जरुरत है समाज की सोच में
संकीर्ण नजरिये में बदलाव की
वरना विवश हो ले लेंगी हाथ में 
ख़ुद निडर कमान विधान की ।
               
                                 शैल सिंह



अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर मेरे ये वक्तव्य

अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर मेरे यह वक्तव्य 

माँ,बहन,बेटी,पत्नी,प्रेमिका का
मत हममें बस फर्ज तलाशिये
आन्तरिक ताक़त पहचानिये
बस हमारा ज़ज्बा निखारिये। 

क्यों हमारे लिए ही केवल 
तय किये गए मानक
क्यों हमारे लिए ही केवल 
खींची गईं रेखाएँ 
क्यों खुदा ने भी की
बेईमानी लिंगभेद कर 
मानक और पाबंदियाँ 
दोनों लिङ्गों के लिए क्यों नहीं 
क्योंकि ख़ुदा भी मर्द है
हमें कमजोर पहलू की 
स्वामिनी बनाकर क्यों ?
पुरुष को हैवानियत और 
दानवता का दर्प दिया 
जब-जब दर्द मिला 
मौला तेरे लिए बद्दुवा निकली 
तुमने किया भेदभाव और 
नारी मुखर हुई मजबूत होकर 
अगर नारी सशक्त हुई है 
अगर नारी क़ामयाब हुई है 
अगर नारी ने अन्याय के ख़िलाफ़ 
आवाज़ उठाई है ,बेहूदे समाज से 
यदि जंग लड़ी है ,तो खुद को जगाकर 
भगवान उसमें तेरा क्या योगदान
ये ज़ज्बा जागा है तो अन्याय के कारण 
अगर नारी सुदृढ़ हुई है तो भेदभाव के कारण 
तुमने तो हमें गाय और देवियों की उपाधि देकर
हमें दबाने और कुचलने का स्वांग रचा 
हमारी अस्मिता जब कुत्ते नोचते हैं 
तूं लिलाहारी बनकर लीला देखता हैं
असली गुनहगार तो तूं है
दुआँख्खा कहीं का
हमीं चढ़ें दहेज़ की बलि 
हमारा ही हो बर्बरता से शोषण 
छेड़छाड़ अत्याचार हमीं पर 
सभ्य व्यवहार की उम्मीद हमीं से 
जहाँ हमारे सम्मान की रक्षा नहीं 
जिस समाज द्वारा हमारी हिफ़ाजत नहीं
ऐसे समाज को थू 
गन्दी मानसिकता को थू 
हमने अब हथियार उठा लिया है 
वीणा उठा लिया है नारी सशक्ति का
नारी सशक्ति का ।
                           शैल सिंह    

शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

'' मेरी वफ़ा बदनाम हुई ''

ओ दोस्त बेवफ़ा 


बेवफ़ाई का कलमा लिखा
दोस्त तेरे लिए नज़ीर यही ,

हमें ना बहलाओ लोरी से
बालक नादान नहीं हैं हम
उद्भट विद्वान नहीं फिर भी
इतना भी ज्ञान नहीं है कम ,

शतरंज की गोट बिछाकर
नपुंसक चाल को दाद है दी
इस गुमां में मत रहना दोस्त
तेरे धूर्त विसात ने मात है दी ,

बड़ी बेहया से मेरी अना को
तूने दर्द की जो सौगात है दी
तुझे तेरे किये की मिले सजा
बददुवा तुझे दगाबाज़ जो की ,

ख़ुदा क्या बख़्शेगा तुझे कभी
चतुर चाल पड़ेगी तुझपे भारी
मेरे नये उड़ानों को पंख लगेंगे 
मुबारक तुम्हें तुम्हारी ग़द्दारी ,

तूमने ऐतबार का ख़ून किया
और मेरी वफा बदनाम हुई
ईमान तेरा रोये खून के आँसू
मेरी तल्ख़ जुबां अब आम हुई .
                                    शैल सिंह

शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015

'' ख़ुमार फागुन का ''

ख़ुमार फागुन का


अँखिया निहारे पन्थ
करती निहोरा कंत
पुरवा लगे अनन्त
आ जा परदेशी कंत ,
 
मन पर चढ़ गया रंग फागुन का 
तन रंग गया वसन्ती रंग
सराबोर भींजे रोज चुनरिया
हर रंग में चोलिया अंग ,

बदला मौसम का ढंग
पुरवा लगे अनन्त
काहे बने हो संत
आ जा परदेशी कंत ,

मंद-मंद बहे पछुवा रसीली
गुलाबी सिहरन भरे उमंग
ग़जब मारे पतझर मुस्की गुईंया
चौपड़ खेले बहार के संग ,

मधुमासी पी के भंग
पुरवा लगे अनन्त
काहे बने हो संत
आ जा परदेशी कंत ,

पीत वसन में गहबर सरसों
लगे नई नवेली नार
कलियों ने घूँघट पट खोला
करके मोहक सिंगार पटार ,

रसिक मिज़ाज भृंग
रसीली तितली के संग
काहे बने हो संत
आ जा परदेशी कंत ,

नरम भये तेवर पूस माघ के
ठंडी शनैः-शनैः निष्पन्द
नया कलेवर ले पाहुन आये
सुस्त शिराओं में उठे तरंग ,

आ जा लगा के पंख
पुरवा लगे अनन्त
काहे बने हो संत 
मोरे परदेशी कंत । 

                          शैल सिंह








हमारे गाँव की होली


हमारे गाँव की होली 


बदलते मौसम की तरह
बदल गए सब रीत रे
कहाँ वो फगुवा बैठकी
कहाँ जोगिरा गीत रे ,

ढोल,मंजीरे,झाल थापों पर
कहाँ अब हुरियारों की टोली
झूमते,नाचते,गाते कबीरा
कहाँ अब हम जैसे हमजोली ,

गली,मोहल्ले की भऊजाई
खोल झरोखा ताक-झांक में
नटखट देवरा कब गुजरेगा
साँझ-सवेरे इसी फ़िराक़ में ,

डाल घूँघट मुख दौड़ें दुवारे
मुट्ठी मा करिया रंग दबाय 
बुरा ना मानो होली है कहि 
बहुवें,बुढ़वों को देवर बनाय ,

कीचड़ सनी बाल्टी उँड़ेलें
नेह से माथ लगा के रोली
सारा रा रा होली है धुन पे
करें चुटकी काट ठिठोली ,

भिनुसारे से ही भांग-ठंडई
ओसारे,अंगना नाऊ,कंहार
रगड़-रगड़ सिलबट्टे घिसें 
सखी गा-गा  मस्त मल्हार ,

करूँ अपने ज़माने की बातें
आज की नई पीढ़ी दे घघोट
पश्चिमी सभ्यता निगली जैसे
गमछा,धोती ,जनेऊ ,लंगोट ,

जब-तब यादें बहुत सताती
घिर आती हैं आँखों में घटा
रिश्तों में जो तब मिठास थी
कहाँ अब वैसी रंगों में छटा ,

प्रीत के रंग में रंगे वो रिश्ते
बदरंग होकर गए महुलाय
वक़्त ने तेज़ी से रफ़्तार धरी
इक्क्सवीं सदी गई सब खाय ।
 
                                  शैल सिंह








 


रविवार, 22 फ़रवरी 2015

दस्तूर दुनिया का निभाना है ,

दस्तूर दुनिया का निभाना है



दुनिया भर की दुवाएं देकर
तुझे नए परिवेश सजाना है ,

बेटी छोड़ नगर नईहर का
सुख वैभव छोड़ पीहर का
नाज़ों पली मेरी राजदुलारी  
प्रितम का संसार बसाना है ,

करना हिया से पराई लाडो 
दुनिया का तो रीत पुराना है
कर पाषाण कलेजा गुड़िया
दस्तूर दुनिया का निभाना है ,

छोड़ के आँगन बाबुल का
ममता का छोड़ के आँचल
छोड़ तुझे वीरन का चऊरा   
विरवा रिश्ता नया बनाना है ,

निमिया का छोड़ बसेरा तुम  
सजन मुंडेर चहकना चिरई
पिया के घर,आँखों की पुतरी
डोली चढ़के विदा हो जाना है ,

तेरे यादों की बदली जान मेरी 
उमड़-घुमड़ नयनों से बरसेंगी
ऑंखें फुलवारी की ओ फुलवा
तेरे दामन देख ख़ुशी भी हर्षेंगी ।
                    
                शैल सिंह

शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

ज़मीर नीलाम कर शर्म न आई

'' ज़मीर नीलाम कर शर्म न आई ''
                     [ १ ]     

मेरी ख़ामोशियों से मत अंदाज़ लगा लेना
कि हम भूल गए तुझे गुनहगार बता देना ,

बड़ी सादगी से ख़ंजर कर दिल के आर-पार
हमनफ़स राब्ता तोड़ की नई राह अख़्तियार ,

तुझसे निज़ात पाकर ख़ुश हम भी कम नहीं
वरना खाते ज़िन्दगी भर धोख़े कोई ग़म नहीं,

फ़ितरत का दिखाया तूने है बेहतरीन नमूना
फुर्सत में बैठकर ख़ुद को दिखा लेना आईना ,
                      
                         [ २ ]

ज़मीर नीलाम कर शर्म न आई नामुराद कितनी हुई रूसवाई

घात लगाकर तूने दिया है दोस्त ,धक्का विश्वास की सीढ़ी से
अर्से की वेरही बाड़ तोड़ ,नई बाड़ लगाई स्वार्थ की सीढ़ी से ,

सम्मानों की पसलियाँ चूर-चूर कर ,ख़ूब मान बढ़ाया रसूखों से
बेवफ़ाई का काँटा कैसे निकालूँ ,तेरे वेहयाई के ढींठ सुलूकों से ,

हम तो टिके रहे उसूलों पर ख़ैर ,तुम सिद्धांतों को रौंद बढ़े आगे
हमने ही मार्ग प्रशस्त किया औ ,हमीं को शिक़स्त दे छल से भागे ,

सरे बाज़ार मख़ौल उड़वाया है ,क्या ख़ूब बेमिसाल सम्बन्धों का
ज़मीर नीलाम कर शर्म न आई , सहारा बेतुके तर्क के कन्धों का ,

                                                                शैल सिंह

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2015

और टूट ना जाये तन्हाई का पहरा

और टूट ना जाये तन्हाई का पहरा



तन्हई की चादर ओढ़े 
जब-जब होती हूँ तनहा
शब्दों का सुन्दर वस्त्र धारकर
मानस पटल पर हो जाता आच्छादित  
कवि मन पर गुजरा लमहा ,

झट कलम हाथ में गह लेती हूँ
भाव प्रवण बन जाती कविता
बाँध के अहसासों का सेहरा
कहीं अल्फ़ाज़ न धुँधले पड़ जाएं
और टूट ना जाये तन्हाई का पहरा ,

कविता की कड़ियों में गूँथ भर,
लेती हूँ जीवन का ककहरा
जी भर जी लेती जीवन अवसान तलक
वरना कहाँ समझ सका कोई भी
नर्म भावों का भाव सुनहरा ,

ज्ञान मेरा बस आत्मज्ञान बन
सिमट कर ख़ुद में ही है ठहरा
शौक़ शान संगीत बना लेखन
बन गयी लेखनी सम्बल मेरी
रिश्ते शिद्दत से निभा के गहरा ,

उम्र के दर पर छल ना जाये
डर है कभी ये पूँजी भी
और हो जाये धुप्प अँधेरा
ख़ुदा इस वैशाखी को देना बरक्कत
बल देना पोरों में आँखों में रौशनी लहरा ।
                                                   शैल सिंह








बड़े गुमान से उड़ान मेरी,विद्वेषी लोग आंके थे ढहा सके ना शतरंज के बिसात बुलंद से ईरादे  ध्येय ने बदल दिया मुक़द्दर संघर्ष की स्याही से कद अंबर...