" दास्तां कली की जुबां "
हर आहट लगे जैसे तुम गए
करके सिंगार आई तुम्हारे लिए
यौवन के मय से छलकती हुई
खोली कलियों के घूँघट तुम्हारे लिए ।
रूप की माधुरी ही चुरा ले गया
चूस मकरंद वहशी गुलों के सभी
सुर्ख़ अधरों की लाली उड़ा ले गया ।
हार तेरे लिए पुष्प के गूंथती
दृग को प्रतिपल प्रतिक्षा रही देवता
दौड़कर द्वार पर हर घड़ी देखती ।
ज़िस्म मुर्दा लिए फिर रही बाग़ में
तारिकाएं विहंसती रहीं हाल पर
मनचली कामिनी मिल ख़ाक़ में ।
मन का हिरना भटकता रहा चाह में
वक्त कंजूस है प्यास बुझती नहीं
सब्र शर्मसार होती रही राह में ।
बंद कोंपलों की सांकल नहीं खोलती
तान पत्तों की धानी चंदोवे सी छतरी
झूमकर डाल पर बाग़ में डालती ।
ख़ुश्बू सारी चमन की बहा ले गया
हर आहट लगे जैसे तुम आ गए
वो आशिक़ आवारा दगा दे गया ।
इठलाती नहीं शाख़ पर इस क़दर
दुष्ट बादल उमड़कर बरसता रहा
तुम आए लगा स्वाती की बूँद बनकर ।
नर्तकी कुञ्ज की मोरनी रूठी हमसे
हिक़ारत भरी हर नज़र देखती
बादशाहत गई जूझती हर क़हर से ।
खूबसूरत बदा,वाटिका बिक गयी
भरी बाज़ार में इक नीलामी हुई
शैल सिंह