शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

" हर आहट लगे जैसे तुम गए "

" दास्तां कली की जुबां "

 हर आहट लगे जैसे तुम गए


तन-मन सजाए संवारे हुए
करके सिंगार आई तुम्हारे लिए
यौवन के मय से छलकती हुई 
खोली कलियों के घूँघट तुम्हारे लिए ।

एक भौंरा गली से गुजरकर मेरे
रूप की माधुरी ही चुरा ले गया
चूस मकरंद वहशी गुलों के सभी
सुर्ख़ अधरों की लाली उड़ा ले गया ।

हर बटोरी से तेरा पता पूछती
हार तेरे लिए पुष्प के गूंथती
दृग को प्रतिपल प्रतिक्षा रही देवता
दौड़कर द्वार पर हर घड़ी देखती ।

रो रही साधना हँस रही बेबसी
ज़िस्म मुर्दा लिए फिर रही बाग़ में
तारिकाएं विहंसती रहीं हाल पर
मनचली कामिनी मिल ख़ाक़ में ।

दर्द घुल-घुल बहे अश्रु सैलाब में
मन का हिरना भटकता रहा चाह में
वक्त कंजूस है प्यास बुझती नहीं
सब्र शर्मसार होती रही राह में ।

ईल्म होता बहारों के यदि ज़ुल्म का
बंद कोंपलों की सांकल नहीं खोलती
तान पत्तों की धानी चंदोवे सी छतरी
झूमकर डाल पर बाग़ में डालती ।

मस्त मौला हवा का बेशर्म झोंका
ख़ुश्बू सारी चमन की बहा ले गया
हर आहट लगे जैसे तुम आ गए
वो आशिक़ आवारा दगा दे गया ।

भान होता घटाओं की शोख़ियों का
इठलाती नहीं शाख़ पर इस क़दर
दुष्ट बादल उमड़कर बरसता रहा
तुम आए लगा स्वाती की बूँद बनकर ।

महरूम हुई कोकिला कंठ से
नर्तकी कुञ्ज की मोरनी रूठी हमसे
हिक़ारत भरी हर नज़र देखती
बादशाहत गई जूझती हर क़हर से ।

सादगी पे नियति चोट करती रही
खूबसूरत बदा,वाटिका बिक गयी
भरी बाज़ार में इक नीलामी हुई
अरमानों की बोली लगा दी गयी । 

सर्वाधिकार सुरक्षित
                    शैल सिंह

सोमवार, 16 सितंबर 2019

" तेरा अस्तित्व क्या शहर गाँवों के बिना "

तेरा अस्तित्व क्या शहर गाँवों के बिना


मेरे गाँव की सोंधी  खुश्बू ले आना हवा
शहर में खरीदे से भी कहीं मिलती नहीं
ईमारतें तो गगनचुम्बी शहर में बहुत सी
धूप की परछाईं तक कहीं दिखती नहीं ।

बीत गई इक सदी देह को धूप सेंके हुए 
भींगी लटें तक घुटे कक्ष में सूखती नहीं
खुले आँगन के लुत्फ़ को तरसता शहर
लगे व्योम से चाँदनी कभी उतरती नहीं ।

शहरी सड़कों से भली गंवईं पगडंडियाँ
आबोहवा गाँव सी यहाँ की लगती नहीं
लगे दिनकर को आसमां निगल है गया
किरणें मोहिनी सुबह की बिखरती नहीं ।

भाँति-भाँति के शज़र यहाँ तनकर खड़े
किसी टहनी पर परिन्दों की बस्ती नहीं
क़िस्म-क़िस्म के गुल यहाँ खिलते बहुत
फज़ां में महक़ रातरानी सी तिरती नहीं ।

लाना जमघट पीपल के घनेरे छांवों का
वैसी मदमस्त पवन शहर में बहती नहीं
वो पनघट की मस्ती झूले  नीम डाल के
बुज़ुर्गों के चौपाल की हँसी  गूँजती नहीं ।

ना नैसर्गिक सौन्दर्य ना समरसता कहीं 
स्वर्ग जैसा है,वास्तविकता दिखती नहीं
तेरा अस्तित्व क्या  शहर गाँवों के बिना
बसती नीरसता आत्मीयता दिखती नहीं ।

शुद्ध जलवायु प्रकृति का  आकर्षण भी
लाना,शहरी पर्यावरण में जो रहती नहीं
दम घुटता शहर में लाना अमन संग भी
बड़ी खुशियाँ भी उत्सव सी लगती नही ।

सर्वाधिकार सुरक्षित
                      शैल सिंह

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