रविवार, 20 अगस्त 2017

ग्राम्य जीवन पर कविता

                     

            ग्राम्य जीवन पर कविता 

किन शब्दों में बयां करुं बदरंग हुए मेरे ग्राम्य जीवन के यथार्थ दर्शन को ,


जिस माटी में बचपन बीता आँगन की ओरी तले वर्षा का लुत्फ़ उठाये थे 
चींटे को पतवार बना खेले कागज की नाव में कीचड़ में सने घर आये थे ,

भूला नहीं रस ऊख का,होरहा चने,मटर का,गाय-बैल,खेतों का टूटा मेढ़
झूला नीम डाल का,गाँव का मेला,घनी लटें लटकाये बरगद का बूढ़ा पेड़ ,

पहचान खोते गांव,टूटते-बिखरते रिश्ते,आधुनिकता में संलिप्त अपनापन 
ना पूर्व सा परिदृश्य दिखा ना माई,काकी भौजी नामों वाला तृप्त सम्बोधन ,

जिस माटी के परिवेश में दांव-पेंच,छल-छद्म,धोखेबाजी,मक्कारी नहीं थी
जहाँ ईर्ष्या,द्वेष,क्लेश,शोषण,बलात्कार,असामाजिक तत्व,गद्दारी नहीं थी ,

आज भौतिकवादी युग ने गुमराह कर मानवीय मूल्यों का ह्रास कर दिया
वैमनस्यता,धूर्तता,चालबाजियों ने आदर्शवादी ढांचे को है ग्रास कर लिया ,

मेल-मिलाप,वार्तालाप की कंजुस प्रवृत्ति शहर से बढ़कर गांव की हो गई
त्यौहारों की चहल-पहल,विनोद प्रियता शहर से बढ़कर गांव की खो गई ,

ना पनघट पर कोई सखी,ना कजरी,फगुवा गीत रससिक्त मल्हार गूंजता   
ना पीपरा की छाँव का लहरन ना पहले सी कोइलर की मृदु तान कूंकती ,

रंग-रंगीला प्यारे बचपन का गांव मेरा,विहंसता नहीं सूनसान विरान मिला
ना कोल्हू कोल्हूवाड़ा,कुंएं की जगत,खलिहान,ना हापुड़ का मैदान मिला ,

अपना गांव मशीनीकरण हुआ,ना कोई रिश्ता सौहार्दपूर्ण व्यवहार मिला
ना हाथ के हुनर का कारीगर,मोची,बढ़ई,नाऊ,धोबी,लुहार,कुम्हार मिला ,

फीके हुए पर्व सभी,मंदिर के क्रिया-कलाप से भजन-कीर्तन भी लोप हुए
मिला न बचपन का कुछ नामो-निशां मेरे प्यारे गांव कहाँ तुम अलोप हुए। 

                                                                             शैल सिंह 

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