शनिवार, 30 मई 2015

आज भी कोई प्रेमचंद फिर से लिखे गोदान

आज भी कोई प्रेमचंद फिर से लिखे गोदान


रीढ़ की हड्डी तोड़ रही कर्ज़ का भारी बोझ 
रंगदारी,दबंगई वसूली,की जमात घर रोज   

अन्न अधमरे खेतों में औंधे बेजान निर्जीव
देख दुर्गति फसलों की उड़ गई है नींद 
तपे तवा सी धरती उगले सूरज रोज आग 
कलप रहा है किसान हाथ लिए सल्फास ,

मौसम हुआ हठीला है निर्मम हुई हवाएं 
सारी मेहनत खाक़ हुई हथेली आपदाएं 
लुटा हुआ किसान निरख रहा आकाश 
प्राण आधे रह गए ना भूख लगे ना प्यास ,

बदहाली दुर्दिन की समझे कौन व्यथाएं 
अंतस में दफ़न हुई सूली लटकी वेदनाएं 
जुल्म की पूरी दास्तान कह रही मरुभूमि 
उजड़ा हुआ है माली,बुने सपने हुए यतीम ,

झूठी सांत्वना की पूँजी खोखली संवेदनाएं 
फितूर साबित हो रहीं हैं जन-धन योजनाएं 
मौन का ताला लटके ओहदों की शाख पर 
मर्म पे लेप कौन लगाये पट्टी पड़ी आँख पर ,

अन्नदाता की कुंडली उल्कापात,ओले पानी 
फिर से पुनर्जीवित हुई होरी की नई कहानी 
आज भी कोई प्रेमचंद फिर से लिखे गोदान 
धूल फांकें ठंडे बस्ते बौने आंकड़े औ प्लान ,

क्षतिपूर्ति के समाधान पर टंगा घना अँधेरा 
कोहराम मिटाने कब आयेगा सुखद सवेरा 
राजधानी हृदयहीन यथार्थ पतन का जाने 
जीवन खाली कैनवास रंग भरना ना जाने । 

                                            शैल सिंह 

मंगलवार, 26 मई 2015

बेपनाह मोहब्बत हर शै लुटाने लगी है


बेपनाह मोहब्बत हर शै लुटाने लगी है 

इक तासीर दिल को जब से मिली है
ज़िन्दगी झूम कर मुस्कराने लगी है

अमां का कासा मिला मिली ज़िन्दगी 
गीत ख़ुशी के जुबां गुनगुनाने लगी है

इनाम मुझे मेरी परस्तिश का मिला
सांसों-सांसों में मस्ती समाने लगी है

सप्तरंगों में दुनिया सज़ी ख़्वाबों की
उन्नींदी रातें चांदनी में नहाने लगी है

झनझनाने लगे सुप्त सभी तार मन के
सुर टूटे तारों की वीणा सजाने लगी है

मोतियों में हुईं आँसू की बूंदें तब्दील
वैरागन उदासी नग़मा सुनाने लगी है

खुलुश मिल गया है शाद दिल है मेरा
फिर आरजूवें महफ़िल सजाने लगी हैं

दर्दों में डूबी थी जो आज तक बन्दग़ी 
आकर सपनों में ताबीर पिराने लगी है

रातें सितारों से जगमग मेरी हो गईं हैं 
हिलोरें किनारों से बातें करानें लगी हैं

आकर वाहयातों देखो मेरी नाचीज़ पर
बेपनाह मोहब्बत हर शै लुटाने लगी है

ठहर सी गयी थी ज़िंदगी इक मोड़ पर
अब वो रास्ता कई नये दिखाने लगी है

तलाश में जिसकी बेजां हम दर-दर हुए
आ मकसदें सामने सिर झुकाने लगी हैं

कैसे-कैसे गमें-दौरां से हैं गुजरे हम शैल
सहन-ए-ख़िज़ाँ नूर सबा बरसाने लगी है ।

सहने-ख़िज़ाँ--पतझड़ के देहरी
अमां का कासा--चैन संतुष्टि का कटोरा

                                                 शैल सिंह















बड़े गुमान से उड़ान मेरी,विद्वेषी लोग आंके थे ढहा सके ना शतरंज के बिसात बुलंद से ईरादे  ध्येय ने बदल दिया मुक़द्दर संघर्ष की स्याही से कद अंबर...