सोमवार, 7 अक्तूबर 2019

छोड़ दो तसव्वुर में मुझको सताना

छोड़ दो तसव्वुर में मुझको सताना 

तबस्सुम के जेवरात ग़म को पेन्हाकर
अश्क़ से याद के वृक्ष ख़िज़ां में हरा कर
डाली खिलखिलाने की आदत तुम्हारे लिए।

सील अधर तमन्नाओं को दफ़न कर
ख़्वाब दिल के कफ़स में जतन कर 
डाली दिल बहलाने की आदत तुम्हारे लिए। 

भर दृग की दरिया अश्क़ों का समंदर  
सितम सहे इश्क़ में चले जितने ख़ंजर
डाली जख़्म भुलाने की आदत तुम्हारे लिए। 

जब भी घुली मन तेरे लिए कड़वाहट 
भींगो दीं हसीं लम्हों के नूर की तरावट
डाली मर्म समझाने की आदत तुम्हारे लिए।

दिल की सल्तनत ही,की नाम जिनके 
वो ही दे गये मिल्यक़ित तमाम ग़म के
डाली दर्द सहलाने की आदत तुम्हारे लिए। 

क़सक हिज्र के रात की तुम न जाने
ले गए मीठी नींद भी प्यार के बहाने
डाली रात महकाने की आदत तुम्हारे लिए।

ना कोई अर्जे तमन्ना ना पैग़ामे-अमल
सीखा तरन्नुम में दर्द पिराने का शग़ल
डाली बज़्म सजाने की आदत तुम्हारे लिए। 

अब छोड़ो तसव्वुर में मुझको सताना
बैठ पलकों पर छोड़ो जलवे दिखाना 
डाली दास्ताँ छुपाने की आदत तुम्हारे लिए।

क़फ़स--पिंजरा
सर्वाधिकार सुरक्षित 
                      शैल सिंह





शब्दों के अभाव पर कविता

शब्दों के अभाव पर कविता

शब्दों बिन बेजुबां वाक्य हैं
रचना रखूं किस शिलान्यास पर 
अस्मर्थ,बेजान पंक्तिबद्ध कतारें
मौन शब्दों के उपहास पर ,

क्षत-विक्षत हो शब्द शांत हैं  
भाव दिग्भ्रमित वनवास पर 
अवचेतन की प्रसव वेदना  
सही न जाये,कलम उपवास पर ,

गीतों के बोल ठूंठ पड़े 
अधरों के कैनवास पर
शीतल से अहसास बन्दी जैसे 
कल्पनाओं के आवास पर ,

अक्षर-अक्षर दुलराया 
अभिव्यक्ति के विभास पर
काव्य के अवयव गण सभी 
रस,छंद,अलंकार हैं अवकाश पर ,

सुप्त पड़ी लेखनी की वाणी 
मसि,कागज गये सन्यास पर
घोलूं किसमें कल्पना का लालित्य  
टूटन,मिलन,वियोग के परिहास पर ,

करूँ प्राण-प्रतिष्ठा भावदशा की 
किन शब्दों,बिम्बों के मधुमास पर 
शब्द हो गए विलुप्त या विस्थापित 
या गये शब्द विधान के अभ्यास पर ,

कैसे गूंथूं मन का अवसाद 
शब्दाभाव में किस विश्वाश पर
किन शब्द कलेवरों में बेसुध पीर 
रचूं जग के करते हुए अट्टहास पर ,

भाव नदी का सोता सूखा 
कहाँ निष्ठुर हर्फ़ों को आभास पर
देख नयनों में भी जल प्लावन 
मिला निर्मम शब्दों से बस ह्रास पर ,

बिखरते,दरकते,रूठे रिश्तों को
कहाँ करूं वर्णित किस आस पर
कैसे अकथ विरह,वेदना,अंतर्दाह 
रखूं श्रीहीन शब्दों के विन्यास पर ,

कहाँ श्रृंगार का माधुर्य बिखेरूं 
शब्दों के किन अनंत आकाश पर 
कैसे जीवन का वृतान्त लिखूं 
निस्तब्ध शब्दों से मिले हताश पर ,

कर में अधीर,रचना प्रवित्त लेखनी  
शब्दों को रही खराद,तराश पर
शब्दों की चोरी में हैं संलिप्त लुटेरे
ख़त्म होने नहीं देते मेरी तलाश पर ,

पुचला कर आलिंगन भर सहलाया
पर फटके ना तरस खा शब्द पास पर 
शब्दों बिन कितना निरूपाय सृजन 
लगता प्रार्थनाएँ,मिन्नतें गईं कैलाश पर।

गण--टोली,गिरोह,        विभास--चमक,दीप्त
ह्रास--क्षमता,अभाव     विन्यास--सजाना,संवारना
शब्द विधान--निर्माण,रचना

                            सर्वाधिकार सुरक्षित 
                                                       शैल सिंह 


बचपन कितना सलोना था

बचपन कितना सलोना था---                                           मीठी-मीठी यादें भूली बिसरी बातें पल स्वर्णिम सुहाना  नटखट भोलापन यारों से क...