गुरुवार, 2 अगस्त 2018

नशीली आंखों पर ग़ज़ल

        " नशीली आंखों पर ग़ज़ल "


नशीली आंखों के चर्चे सुना था बहुत
क़शिश ऐसी कि देख बेसबर हो गया
मदिरालय से बढ़ कर कमसिन नयन
कुछ सोचा ना था इश्क़ मगर हो गया  ,

झुक गयी  पलकें जो शर्म से आपकी
साक़ी सा छलका पैमाना तर हो गया
यूं लड़खड़ाने लगे बिन पिए ही कदम
मय सी आँखों का ऐसा असर हो गया ,

आपके शोख़ हया के शोख़ अंदाज़ ही
ज़ुल्म ढाये कि ज़ख़्म-ए-ज़िगर हो गया
इस अदा की रज़ा क्या कह भी दीजिए
जिसपे दिल मेहरबां इस क़दर हो गया ,

समन्दर हैं दरिया या तेरे चश्म मयक़दा
था ना मयकश मैं उन्मत्त मगर हो गया
मस्त आँखों का आशिक़  बना ही दिया
इतना बोलतीं हैं वाकिफ़ शहर हो गया ,

गुलाब की पांखुरी सा टहक लाल अधर
क़ातिल मुस्कान मदहोश अगर हो गया 
जाने बेगुनाह दिल का होगा अंज़ाम क्या 
आँंखें संवाद कीं दहर को खबर हो गया ,

हब्शी आँखें लूटीं दिल का चैना औ सुकूँ 
लुटा आशनाई में क़रार मैं बेघर हो गया
ज्यूँ बंद करूँ आँखें आतीं तुम ख़्वाबों में         
बेतरह रतजगा में भोर का पहर हो गया ।

मयकदा--शराब पीने का स्थान
मयकश--शराबी ।

  शैल सिंह


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