शुक्रवार, 4 सितंबर 2015

बह गए रेत से सपने सारे

    बह गए रेत से सपने सारे 


सोंधी ख़ुश्बू वातायन में बिखरा तो दी हो बरखा रानी

टूटही छान से रिस-रिस कर घर में टपक रहा है पानी

महलों के बाशिंदों को देती रिमझिम सावन की फुहार

हम गरीबन पर गाज गिराती भसकी छप्पर हुए उघार

जगह-जगह दरकाती धरती बेकाबू बरखा मूसलाधार

बंगलों की बगिया महका के गमलों में फूल खिलाई हो

यहाँ गुरबत की बखिया उधेड़ जंगल की बाड़ लगाई हो

बजबजा रही हो घाव मनमाने उद्दंड बारिश की बूंदों से

टीसों में भर दी हो सिहरन, तेज हवा साथ इन झींसों से

डगमग मंझधार में जीवन नैया नहीं यहाँ कोई खेवनहार

हम ही सहते हैं मार सूखा की हमें ही करती बाढ़ बेजार

कर्ज़ों में धँसी है हड्डी पसली घुन सा शरीर में लगा बुखार ,

आग उदर की भड़काती झोंपड़ी के चूल्हे की ठंडी राख

आँखें आसमान टकटकी लगा काटीं जाग के कारी रात

महलों के सब दिन लगें गुलाबी हमारे सब फीके त्यौहार

कजरी,विरहा भूल गए,आल्हा,उदल बिसरा गीत मल्हार

चाँदनी फिसलती रही रैन में बंगलों,मेहराबों,गलियारों से

छलक रही आँखें असहायों की टकराकर ढही दीवारों से

दूधिया चाँद में चमक रहे नहा घर बरखा की बौछारों से

हम बरसाती में दुबके पड़े डर के घिग्घी बांधे सियारों से

कहीं तो बालकनी से झाँके बत्ती कोई पहरों पे लेता साँस

बह गए रेत से सपने सारे भला बदहाली कैसे भरे हूँआंस ।

गात -- शरीर                                                    शैल सिंह


बुधवार, 2 सितंबर 2015

अफ़सोस ये भारत देश के वासी हैं

अफ़सोस ये भारत देश के वासी हैं 


हमारा देश ' कृषि प्रधान देश ' के नाम से
सबको मालूम,विश्व विख्यात है
इसी देश के नौनिहाल अन्न उत्पाद
कैसे होता अज्ञात हैं ,
अहाते की छोटी सी फुलवारी में
पिछवाड़े की छोटी सी क्यारी में
तड़ी पड़ी थी धान की
बेटी सयानी पूछी मम्मा ये कैसी घासें
हरी-हरी परिधान की
मैंने बोला जरई है ये
बोल रही क्या होता है ये 
मैंने बोला रोपनी होगी
बोली रोपनी क्या होता है
मैंने बोला धान की रोपाई होगी
बोली धान रोपाई क्या होता है
मैंने बोला शर्म करो तुम
राईस ब्रीडर की बेटी हो
इसी घास को खाकर सब
मटियामेट कर देती हो
कृषि प्रधान देश में रहती हो
केवल खाती पीती सोती हो
रोपाई का मौसम है
निहुर-निहुर रोप रही थीं मूल्यानी
खेत ले जाकर उसे दिखाया
देख ले खेती होती कैसे अज्ञानी
जिन्होंने पढ़ते-लिखते कॅरियर बुनते
गाँवों को कोसों पीछे छोड़ दिया
क्या जानेंगे नवयुग के आज के बच्चे
जिनने सब रिश्तों से मुँह मोड़ लिया
जिनने खोली शहर में ऑंखें
सुख वैभव की जिन्हें मिली विरासत
उत्पादन कितने चरणों से होके गुजरता 
क्या जाने ये लोग इनकी ऐसी नफ़ासत
बेटी की सहेली और उसकी माँ ,
इक बार मेरे घर आई थीं
कैम्पस में घुमा-घुमा कर
बेटी ने उन्हें भी फील्ड दिखाई थी
धान की कई प्रजाति की किस्में
चिन्हित के लिए स्टिक में टैग लगाकर
छोटी-छोटी क्यारियों में अलग-अलग
सलीके से रोपी गयी थीं रो में सजाकर
देख अचंभित हुईं थीं माँ-बेटी 
विस्मय से फटीं रह गई ऑंखें
कह बैठीं इस संस्थान में
कितने करीने से उगाई गई हैं घासें
और हठात कह बैठीं सुन पारो
इन घासों पर तूं नंगे पांव
सुबह शाम टहलाकर
पावर तेरा कम हो जायेगा 
चश्मा आँखों से उत्तर जायेगा
सुनकर हँसी मैं ठठाकर
बेटी बोली आंटी ये घास नहीं है धान है
ये संस्थान अनुसन्धान की खान है
यहाँ वैज्ञानिक करते इसी पर काम है
धान से ही निकलता चावल
चावल ही विश्व का मूल खाद्यान्न है
कुछ गाँछों में धान की देखीं बालियाँ
पहली बार हुआ था दिग्दर्शन
बोलीं क्या धान ऐसा होता है
क्या चावल इसका ही है परिवर्तन
पहली बार फसल से हुआ दीदार था
ऑंखें हुईं थीं देख विस्फारित
दऊरी,दुकान है जिनकी रोजी-रोटी
जिनका जीवन विजनेस पर आधारित
क्योंकि दोनों थीं मारवाड़ी
कहाँ होती है उनके खेती बाड़ी
अफ़सोस ये भारत देश के वासी हैं
कृषि प्रधान देश के निवासी है ।

मूल्यानी ---खेतों में काम करने वाले मजदूर
तड़ी ,जरई ----धान की नर्सरी
                                     
                                     शैल सिंह 

सोमवार, 31 अगस्त 2015

खुद को सेंक दीए की लौ में ,

सींकती रही दीए की लौ में 


अम्मा क्यूँ नहीं मुझको भी तूने 
भैया सा घर में अधिकार दिया 
हक़ मेरे हिस्से का काट-कपट 
भैया को ही केवल प्यार दिया ,

मुझको भी गर ' पर ' मिलता 
उड़ती-फिरती मुक़्त गगन में 
माँ डाल सूरज के शहर बसेरा 
सुर्ख़  सी उगती नील गगन में ,

स्वप्न सुनहरे ऊँचे-ऊँचे बूनती
लिखती नित नई-नई इबारत
दुनिया को दिखलाती क्या हूँ 
किसमें हासिल मुझे महारत ,

मुक़्त पखेरू सी फ़िजां-फ़िजां
माँ विचरण करती जी भरकर
साँझ,भोर का डर,भय ना होता 
चलती बेख़ौफ़ राह पर डटकर ,

चील,कौओं की घूरतीं निग़ाहें 
शीशे से वदन को बेंधती ऑंखें
कंचन तन ढाला कांच में क्यों 
कुतर दी गईं उड़ानों की पाँखें ,

बाबुल के घर जन्मी पली बढ़ी
ससुराल पिया का घर कहती 
है कौन सा घर मेरा बतलाओ
माँ कहाँ बता मेरी निज धरती ,

कोई  भी मोल ना जाना मेरा 
तोली गई जाने कित रूपों में
जली दीया सी सबके लिए मैं
खुद को सेंक दीए की लौ में ,

फरियाद करूँ किस अदालत 
कैसी कुदरत तूने रची कहानी
क्यूँ देकर ऐसी अनमोल ज़िंदगी  
दिया आँचल में दूध दृग में पानी ।

                                     शैल सिंह 




रविवार, 30 अगस्त 2015

हौसलों का दीप ना बुझने पाये

हौसलों का दीप ना बुझने पाये 


भारत माँ के वीर जवानों तेरी जननी आज ललकारे
बहा दो खून की होली जला दो जगमग दीप सितारे ,

रंग-रंग में तेरी जमा है इस धरती का खून पसीना
स्वराज्य करो सपूतों खड़ी रहूँ मैं गर्व से ताने सीना
सर झुके न बैरी के आगे मेरी अभिलाषा वीरों प्यारे
बहा दो …… ।

इस पावन धरती पर गैरों का पदचाप न पड़ने पाये
ओ वीर सिपाही तेरी धरती माँ न कभी तड़पने पाये
ऋण अदा करना गौरव से भर आँचल माँ का दुलारे
बहा दो  .......।

कभी ना मानना हार पुत्रों ना पग पीछे कभी हटाना
स्वतन्त्र रहे ये भारत भूमि दुश्मन के छक्के छुड़ाना
जलता रहे निरन्तर हौसलों का दीया ना बुझने पाये
बहा दो  ….…।
                    शैल सिंह 

'' काश कलम ग़र होती मेरी तलवार ''

काश कलम ग़र होती मेरी तलवार 

मन में जब-जब जितने फूटे ज्वार
बस हम बस कागज का पेट भरे
कितने लाचार,मजबूर ,विवश हम
जबकि खूँ में गर्मी जोश में है दम
कैसे करें क्षरण इन उल्लुओं के उत्पात
जो नहीं समझते सीधी-साधी बात
छल ज़मीर में इनके संस्कार बदजात
तभी तो करते बार-बार विश्वासघात
हमने बस ईमान का पाठ पढ़ा
और शांति,सद्भाव का यज्ञ किया
नैतिकता में बंधे रहे ,संविधान का मान किया
ताजीवन दूध पिलाते रहे संपोलों को
और खुद बार-बार विषपान किया
कितने हुए शहीद सपूत यहाँ के
कितने अभी और शहादत देंगे लाल
अभी और कितनी बार सहेंगे वार
काश कलम ग़र होती मेरी तलवार
हौसलों को मसि बनाकर
शब्दों को देती तीखी धार
{ दाँत पीसकर }कर देती बदज़ातों का बंटाधार
कोई अलगाववाद की बात करे
और कोई मांगे हमसे मेरा कश्मीर
सीने पर बैठकर दल रहे मूंग
छुपकर घाव कर रहे गम्भीर
अन्न,जल ग्रहण करें इस धरती का
रुबाई गायें पापी पाकिस्तान की
हमारे प्रेम सौहार्द को मटियामेट कर
जाल बुनें बैठकर गोद में हिंदुस्तान की
कोई अल्ला-मुल्ला के नाम पर
दे रहा समस्त जगत को पीर
काश कलम ग़र होती मेरी शमशीर
ऑंखें निकाल हाथ पे रखती,देती सीना चीर
कुछ कठमुल्लों कुछ बद्दिमाग़ों ने
कर दिया है क़ौम का नाम बदनाम
क्षिक्षा,समृधि,प्रगति की बातें दरकिनार कर
करते फिर रहे कत्लेआम सरेआम
अकल पर परदा डालकर अपने
कर दिया है विश्व का चैन हराम
विफल होती जा रही सभी वार्ता
अपमानित होते सभी प्रयास
घुसपैठिये राह हैं ढूँढ निकालते
पहरों के चाहे जितने लगे कयास
काश कलम ग़र होती मेरी तलवार
और शब्द होते जैसे वृक्ष कपास
फाग सी विखेर देती रुई के फाहों को
विश्व में फैला देती नई उजास
काश कलम ग़र होती मेरी तलवार ।

                                                शैल सिंह 

बड़े गुमान से उड़ान मेरी,विद्वेषी लोग आंके थे ढहा सके ना शतरंज के बिसात बुलंद से ईरादे  ध्येय ने बदल दिया मुक़द्दर संघर्ष की स्याही से कद अंबर...